▪️आज जिसकी पूजा का दिन है, वह उन ऋषियों का सूर्य नहीं जिसने उसे सप्ताश्व, मार्तंड और पूषण जैसे वेदोक्त पर्यायों से पुकारा था। यह उन वैज्ञानिकों का सूर्य भी नहीं जो पृथ्वी से उसकी दूरी उसकी किरणों के यात्रा-समय में मापते हैं और अपनी भौतिक जिज्ञासा से प्रेरित होकर यह जान पाने में सफल हो गए हैं कि सूर्य तरल आग और अणुओं-परमाणुओं के बेहद नियंत्रित टूट की प्राकृतिक प्रयोगशाला है! यह उन पंडितों का भी दिन नहीं जिन्हें हम उनके कर्म से अधिक उनके काण्ड से जानते हैं.
▪️यह उन मनुष्यों का दिन है जिन्होंने रात की जानलेवा सुरंग में अपनों और अपने जैसों को खोया था. जिनके लिए आसमान में उगा सोने का गोला एक चमत्कार था और उसका चाँदी जैसी धूप में बदल जाना आकाश का पृथ्वी से प्यार। यह उन पुरखों का दिन है जिनके पास देह को गर्म करने के लिए आग तक नहीं थी।जंगली जाड़े की बेहद ठंडी रातों में तन-मन से ठंडे पत्थरों की गुफा में जीने भर ऊष्मा के लिए दूसरी मानव देह के सिवा और क्या रहा होगा उनके पास ? और क्या रहा होगा सूर्य की ऊष्मा के सिवा जब छोटे दिनों की ठंडी हवाएँ उनके नंगे बदन को चींथकर रख देती होंगी. तब किसे मालूम था कि पेड़ के पत्ते सूर्य के प्रकाश में अपने और अपने इर्द गिर्द बसे जीवों के लिए खाना बनाते हैं; और यह भी किसे पता था कि ऋतु के चक्र का रिंग मास्टर सूर्य ही है और पृथ्वी का गर्भाधान बीज मात्र से नहीं ऋतुचक्र से रिसते जल और गगन में अपने भीतर तड़पते सूर्य की ऊष्मा से भी होता है. इनमें से एक भी तत्त्व कम हो जाए तो पृथ्वी वंध्या रह जाती है. सोचकर देखिए तो समझ जाइएगा कि यह सृजन के एक कारक के उत्सव का भी दिन है. यह अकारण नहीं कि स्त्रियाँ सूर्य से संतान माँगती है। प्रणय की काली रातों में जब छूकर ही देख पाती होंगे वे, अपनी सिहरती काया में उत्तप्त और ऊष्णधार पुरुष का प्रवेश नग्न देह को धूप स्नान ही तो लगता होगा। यह उनकी देह की आदिम अनुभूति है जो मनुष्य-मात्र के क्रोमसोम्स में एक स्मृति के रूप में जीवित है और शरद के डूबते-उगते सूर्य के आगे माँगती हुई प्रार्थना का गीत बन गले से फूटती है.
▪️आज उस सूर्य का दिन है जो हमारा पिता और पालनहार ही नहीं, हमारा सबसे पुराना वैद्य भी है। याद कीजिए कि गीले कपड़े की तरह सिकुड़े शिशु धूप में कैसे खिलते-खिलखिलाते हैं, ऋतु स्नान के बाद धूप में बाल सुखाती स्त्रियाँ कैसे वसंत का रूपक हो जाती हैं और कैसे मर चले बुजुर्ग टन-टन होकर गला खँखारते हुए कहते हैं – दुलहिन भूख लगी है, कुछ खाने को लाओ। .. प्रकृति को सब मालूम है। यह भी कि विटामिन डी थ्री के बिना मानव देह का मेटाबॉलिज़्म गड़बड़ हो जाता है और अस्थिपंजर कमजोर। धूप नहीं खींचती है देह को, देह ही धूप की तरफ़ भागती है। देह को अपनी यह आंतरिक अनिवार्यता तबसे पता है जब ख़ून में डी थ्री की जाँच के लिए कोई प्रयोगशाला न थी और न ही धूप की तासीर पचास रुपए की एक गोली बनकर बिकती थी। आज “डॉक्टर सूर्य प्रकाश” के अनादि और अनंत अस्पताल को धन्यवाद कहने का भी दिन है। तो कहिए न! और सुनिए, मत कोसिए उन करुण स्वरों को जो किसी अपने की कोढ़ग्रस्त देह के लिए कंचन काया माँगती हैं। कोढ़ शब्द एक ही अर्थ पहनकर नहीं घूमता। वह बैक्टीरीया से होने वाले और इलाज से ठीक हो जाने वाले कुष्ठ रोग का ही नहीं, उस विकट आलस का भी पर्याय है जिसके शिकार नेताओं और अफ़सरों से भारतीय लोकतंत्र ग्रस्त और त्रस्त है। धूप हमारे तन के कीटाणु ही नहीं, हमारे मन में दुबके आलस को भी मारती है। तो बंधुओ, यह ऊर्जा और उत्साह का उत्सव है.
▪️ऊर्जा और उत्साह न हो, तो जीवन का क्या अर्थ! केंचुए की तरह रेंगते हुए जीना भी कोई जीना है भाइयो! अब इस सूर्य-चर्चा का सही मोड़ आ गया है जब आपको बता दिया जाए कि सूर्य के प्रकाश से स्वयं को वंचित करना अवसाद की खाई में छलाँग लगाने जैसा है। बहुमंज़िली इमारतों के डब्बों से बाहर निकलिए और मिलिए उस सूर्य से जो प्राकृतिक ऐन्टीडिप्रेसंट यानी डिप्रेशन दूर करने की दवा है. बल्ब की रोशनी से फाइलों के लिए दिन भले आ जाएँ मानव कोशिकाओं के लिए नहीं आते. मनुष्य का मस्तिष्क तो धूप को ही धूप मानता है उसके उस फ़ोटोकॉपी को नहीं जिसका अविष्कार एडिसन और परिष्कार एलईडी वाले शुजी, निक और ओलेग ने किया था.
▪️आज उस मानस का दिन है जिसे खेतों में काम करने के लम्बे अनुभव ने गढ़ा है। वह मानस एक भोले किसान का मानस है। वह एक स्मृति बीज बनकर हमारे आधुनिक मानस में अमर है। उसे कोई संक्रमण रुग्ण नहीं कर सकता न कोई आक्रमण नष्ट। वैश्वीकरण वाले देख लें कि गंगा और जमुना ही नहीं, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर ही नहीं, अरब और अटलांटिक सागर के तट पर भी एकवस्त्रा स्त्रियाँ हाथों में सूप लिए खड़ी हैं और गा रही हैं – काँचहि बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाय.
Courtesy Dr Vinay Kumar