पटना (अनुभव सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार) | आर्यभट्ट और रामानुजम की अगली कड़ी में शामिल वशिष्ठ नारायण सिंह शुक्रवार को पंचतत्व में विलीन हो गए. हज़ारों आंखों ने उन्हें अश्रुपूरित विदाई दी. पता नही बिहार सरकार को लाज आती है या नही, उद्योग मंत्री जय नारायण सिंह ने उनके प्रति अपने उद्गार में व्याकरण की शुद्धता का ध्यान रखना भी मुनासिब नही समझा. आरा के अपने गांव बसंतपुर में “विज्ञानी बाबू” के उपनाम से याद रखे जाने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह माटी के लाल थे और रहेंगे, लेकिन यह सवाल कचोटता है कि ज्ञान की परंपरा को आगे बढाने में सरकार जैसी संस्था की नसें ढीली क्यों पड़ने लगती हैं जब उसकी राजनीतिक गणनाएं राष्ट्रीय गरिमा को ही नज़रअंदाज़ कर देने में जरा भी देर नही करतीं.
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह जब अमेरिका में भारतीय मेधा का परचम लहरा रहे थे, दुर्भाग्य यह था कि उस समय भारत का मनोबल कायरता से भरी आत्मश्लाघा से ऊपर उठने का कोई संकेत नही दे रहा था. अमेरिका में उनका मन नही लगा लेकिन उन्होंने आइंस्टीन को चुनौती दे दी थी, जो भारतीय शासन तंत्र के हौसले के लिए भी चुनौती ही थी और यही वजह थी कि भारत में बम्बई और कानपुर IIT में भी उन्हें प्रोत्साहित नही किया गया. लेकिन उनका अंत जितना शर्मनाक है वह उस दुर्बल शासन चरित्र का परिचायक है जो अपनी ओछी मानसिकता के दायरे सिमटे रहना ही श्रेष्ठता मानता है. उनको दिया गया राजकीय सम्मान तो ठीक है लेकिन उनकी मेधा के अनुरूप शासकीय चरित्र ने अपना हौसला दिखाया होता तो आज देश को अपने इस लाल पर गर्व की अनुभूति ज्यादा होती न कि उनकी लगातार उपेक्षा की वजह से उनके सिजोफ्रेनिक हो जाने पर दुख हो रहा है. इससे भी ज्यादा दुख की बात यह है कि शासनिक चरित्र की कायरता का अंत होता नजर नही आता. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.
(नोट – उपरोक्त अनुभव सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार के व्यक्तिगत विचार हैं)