पटना (वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की कलम से) | राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन से रिश्ता तोड़ लिया. रिश्ता तोड़ने का पहला कारण अपमानित किया जाना बताया और यह भी जोड़ा कि उन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा था. उन्होंने बिहार की आवाज को सदन के माध्यम से उठाने की हर सम्भव कोशिश की, बिहार में शिक्षा की स्थिति में सुधार करने की चेष्टा की लेकिन बिहार सरकार ने उनके साथ कदमताल करने के बजाय उनकी पार्टी को ही कमजोर करने की साजिश कर डाली. एनडीए से अलग होने का उन्होंने ऐसे कारण गिनाए.
लेकिन विश्वस्त सूत्रों के अनुसार कुशवाहा ने यह निर्णय अपने लिए सीटों की संख्या न बढ़ाए जाने के कारण खीज कर लिया है.
अपनी बात कहने के बाद मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए दिल्ली में उन्होंने यह खुलासा किया कि अब इसकी चर्चा वह पार्टी में करेंगे और जो सर्वानुमति बनेगी, उसी आधार पर निर्णय लिया जायेगा. अपने तीन आॅप्शन बताते हुए उन्होंने यह कहकर कि शरद यादव की पार्टी अभी इममैच्योर है , इशारा कर दिया कि वह तीसरा फ्रंट बनाने के मूड में नहीं हैं. लेकिन यदि महागठबंधन में शामिल हुए तो किसी के करीब रहेंगे या रालोसपा के स्वतंत्र अस्तित्व के साथ जायेंगे यह अभी तय नहीं हुआ है परंतु सोमवार की शाम होने वाले विपक्ष की बैठक में भाग नहीं लेंगे. हालांकि चर्चा यह भी है कि वह राहुल गांधी से मिल सकते हैं.
कुशवाहा के इस कदम को बिहार की सियासत के लिए अहम बताया जा रहा है. दिल्ली में पीसी के साथ ही बिहार में भी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया. एनडीए छोड़ने के उनके निर्णय का बिहार महागठबंधन ने स्वागत किया है. उपेन्द्र कुशवाहा का दावा यह है कि बिहार की कुशवाहा बिरादरी उनके साथ पूरी मुस्तैदी से खड़ी है. यह कहकर उन्होंने नीतीश कुमार पर निशाना साधा है. पूर्णिया से जदयू सांसद संतोष कुशवाहा ने स्पष्ट कहा कि उनके जाने से एनडीए पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला.
वैसे उपेन्द्र कुशवाहा के इस निर्णय से पार्टी में फूट के आसाार हैं. उसके दो विधायक और कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों ने इस निर्णय पर पार्टी में मायूसी की बात कही है. इससे उपेन्द्र कुशवाहा का वह दावा हल्का होता है कि यदि वह महागठबंधन में शामिल होंगे तब उसके लिए वह ऐसेट ही साबित होंगे. जबकि , एनडीए ने उनके इस दावे को कोई तवज्जो कभी नहीं दी.
यह सही है कि राजनीति परिस्थितिजन्य होती है. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि बिहार में रालोसपा की ताकत को उन्होंने इतना बढ़ाया है कि वह लोकसभा चुनावों में जोखिम उठाने को तैयार हों जिसका फायदा उन्हें 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में मिल सके. सम्भावना यही है कि वह न तीसरा मोर्चा बनायेंगे और न ही अकेले चुनाव लड़ेंगे. वह महागठबंधन का ही हिस्सा बनेंगे. राजद या कांग्रेस में से किससे उनकी करीबी होती है यह भविष्य की बात है.
लेकिन लोकसभा चुनावों में महागठबंधन में शामिल होकर वह उसे कितनी मजबूती देंगे यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि उनको सीटें कितनी मिलती हैं. पिछले दिनों अरवल में तेजस्वी यादव से उनकी हुई मुलाकात के बाद यह बात सामने आई थी कि वह छह सीटें चाहते हैं जबकि राजद उनको चार सीट देने के लिए तैयार था. अभी भी स्थिति वही है.
परंतु महागठबंधन की असली परीक्षा तो 2020 के विधानसभा चुनावों में होनी है. जब चुनाव परिणाम कुछ खास खुलासा करेंगे. 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद की अगुआई वाले महागठबंधन को भारी बहुमत प्राप्त हुआ था. एक्जिट पोल के नतीजे धाराशाई हुए थे. भाजपा की शर्मनाम हार हुई थी. लेकिन दो अलग-अलग दावे भी थे. राजद ने उस सफलता का सारा श्रेय लालू यादव को दिया था जबकि जदयू ने नीतीश कुमार को. इसकी परख 2020 में ही होगी कि वह अपार बहुमत किसके कारण आया था लालू यादव के कारण या नीतीश कुमार के कारण .