मेरी छः कविताएँ




(1)

मृत्यु का विकल्प

मृत्यु का विकल्प बनती रहीं
भूलोक में स्मृतियाँ ही
सदैव

स्मृतियों में ज़िंदा रखा जा सकता
किसी मृत स्वजन या
व्यतीत को

असह्य पीड़ा होती
जब जाता हमेशा-हमेशा के लिए
सगा कोई

स्वयं को संभालना और……
सहेजना स्मृतियों को
कितना कठिन होता

एक के बाद एक
अनगिनत मृत्यु से
हम हो जाते इस क़दर
विचलित कि
जाने वालों के चेहरे
तिर्यक रेखाओं की तरह
काटते दिखते
एक-दूसरों के
चेहरों को

हम उस कोलाज़ में
तलाशने लगते
अपने ही चेहरे

सुबह-सुबह सोकर जगते तो
आईने के सामने पड़ते ही
हथेलियों से स्पर्श कर
पता करते
कि मृतकों के चेहरों से बने
कोलाज़ में
शामिल नहीं अभी
हमारा चेहरा

सांस बाक़ी है….

मृत्यु ग्रास बनाती रहती
हर किसी को
जो जाने जाते
धरम-करम एवं पुण्यकर्म के लिए
जो करते स्वस्थ चिंतन
देश एवं समाज की
बेहतरी के लिए
उनको तो पहले ही

लोक में यह धारणा चली आ रही
पुरानी कि अच्छे लोगों के लिए
बुलावा आता ज़ल्दी
यम के महल से
मृत्यु पुकारती रहती
उन्हें ही निरंतर
अपनी कंदराओं से

कोरोना की शक्ल में भी
दबोच लेती पलभर में

कुछ नेक लोग मानते आए
सदियों से कि
पापियों के लिए ही आतीं
महामारियाँ
मृत्यु का ग्रास बनकर
जबकि सच तो यह कि
सबका ही
संहार करती वह
सबको बनाती जाती
अपना निवाला

वह इस तरह का
भेेद नहीं करती
जैसे पतझड़
पत्तों में नहीं करता
सबको गिराता
ज़मीन पर

जैसे वृक्ष आच्छादित होते रहते
नये-नए पत्तों से
हरबार
दुनिया भी
सँवरती रहती
बार-बार
महाप्रलय के उपरांत !

(2)

मँगरा कीड़ा

चापलूस किसी समाज
या संस्था में होते
मँगरा कीड़े की तरह
जो साबुत लकड़ी
या हरे-भरे पेड़ के
स्वस्थ मोटे तने
या टहनी को भी बना डालते
एकदम खोखला……

चापलूसी से बहुत क्षति पहुँचती
इंसानियत को
इंसानी संस्कृति में
विकृतियाँ ही नहीं पैदा होतीं
इससे नष्टप्राय हो जाती वह
एक तरह से कहें तो मरणासन्न……

चापलूसी इंसान को
चौपाया से भी बदतर बनाती
वह पाँवों से ही नहीं
हाथों से भी शुरू करवा देती चलना

चापलूस इंसान की
सबसे बड़ी ख़ासियत कि
ऐन मौके पर ही पगुराने लगता वह
उसका पगुराना
सच को दबाने-छुपाने की
कला मान लिया जाता…
सबसे बड़ी कला

इसी के दमपर वह होने लगता
पदासीन
बाज़दफ़ा पुरस्कृत भी

देखते-देखते उसके पीछे
उग आती एक लंबी
झबरीली पूँछ

वैसे चापलूस इंसान स्वार्थ में
पीछे छोड़ देता पशु को भी
…… मीलों पीछे

चापलूसों ने दुनिया में
सिर्फ़ पैदा किए
तानाशाह ही तानाशाह
जिनकी जगज़ाहिर
बेवकूफ़ियाँ व बदतमीज़ियाँ

चापलूस और गदहे में
चापलूस और बैल में
कोई साम्य नहीं सभ्य लोगों !
चापलूसों से करना तुलना
इन निरीहों का
घोर अपमान उनका

चापलूसों की बातों से चढ़ जाता
दिमाग़ अच्छे-अच्छे शासकों-प्रशासकों का
उनके विवेक का हो जाता अपहरण
वे अपने को समझने लगते
ख़ुदा से भी ज़्यादा

चापलूस और उनके आकाओं की
अंतरात्मा की नैतिक ज़मीन
बदल ही जाती अंततः
ऊसर-टाँड़ एवं परती में
उसपर उगाना हरियाली की फ़सल
बहुत -बहुत मुश्किल……

बहरहाल,वे ख़ुद को भले ही
मसीहा या महान समझें
पर सच तो यही कि उनकी
पोल-पट्टी खुल जाती

एक समय के बाद
वे गिर ही जाते नीचे
……बहुत-बहुत नीचे
सबकी निगाहों में !

नोटः #मँगरा एक प्रकार का कीड़ा है जो सफ़ेद रंग का होता है | यह किसी पेड़ के मोटे तने या जड़ में प्रवेश कर उसको मिट्टी में बदल देता है | बाद में वह तना या जड़ खोखला हो जाता है | यह शब्द मेरे ग्रामीण अंचल में पुराना भोजपुर के उत्तर आशा पड़री के आसपास लोकजीवन में बहुप्रचलित है | कुछ लोग इस तरह के चरित्र को सहज ही ‘मँगरा’ कह देते हैं जो किसी संस्था या परिवार में प्रवेशकर उसे खोखला बना देते हैं | — चंद्रेश्वर

(3)

सही-सलामत

फ़ेसबुक पर पढ़-पढ़कर
समझता रहा जिसे
आला दरज़े का चिंतक
वही चोर निकला

जिसे दानी समझा
वही दानव निकला

जिसको मानता रहा
तनिक ईमान वाला
वही निकला
सबसे बड़ा बेईमान

जिसे कवि मान बैठा था
वह कलंकित छवि लिए मिला
सरे-बाज़ार
हँसता
देता ताव मूँछों पर

सचरित्रता पर देने वाला
उपदेश ही
निकला सबसे बड़ा रेपिस्ट

जिसे सच समझा
वही साबित हुआ
सबसे बड़ा झूठ

जिसे ताक़तवर समझा
वही मिला मिमियाता
ज़िंदगी की माँगता भीख
दाँत निपोरे

यहाँ कुछ भी नहीं
सही-सलामत मित्रो !
सबकुछ है उल्टा-पुल्टा
बेतरतीब और गड्मगड्ड

यह दुनिया अब
एक ऐसे दौर में
जहाँ शक़्लों से न तो
लोग ही पहचान में आते
ना ही चीज़ें
यहाँ तक कि
महामारियाँ भी आतीं
बिना लक्षण लिए

देखिए तो सही कि किस तरह
निर्लज्ज होकर मारता
गोल-पर- गोल
गोलकीपर ही
अपनी ओर !


(4)

आज़ादी

सबसे ज़्यादा ख़राब और
ख़तरनाक माना गया
मेरा वो ख़्याल
जिसमें शामिल
मेरी आज़ादी

साहब की आँखों की
किरकिरी था
इसी के नाते

यार भी कहाँ निभाते थे
यारी

यारी में ईमान था अब
गुज़रे ज़माने की बात

सब करना चाहते थे
अपहरण
किसी न किसी तरीके से
इसी आज़ादी का

परिजन -दुर्जन
सबके निशाने पर थी
यही एक चीज़
मेरी आज़ादी

गिरोह या कि संघ
दल या कि मंच
सब लगे थे छीनने में
इसी एक आज़ादी को
जिससे बनती या
आकार पाती थी
मेरी शख़्सियत

इसकी चाहत ने
नहीं छोड़ा मुझे
कहीं का

हर किसी को पसंद आती थी
मेरी चुप्पी
मेरी वैचारिक विकलांगता

हर किसी को चाहिए था
मेरा समर्थन

(5)

वैसे सच पूछिए तो ……!

मेरा हिन्दुस्तान
पहचान में नहीं आ रहा
उसकी शक्ल को कुछ शासकों ने
तो कुछ कोरोना ने
बिगाड़ कर रख दिया

अब रेलगाड़ियाँ पहले की तरह
नहीं चल रहीं
क्या पता,कब चलेंगी
कैसे चलेंगी

बसों में भीड़ है भारी
उनमें सवार लोग
एक-दूसरे को
धकियाते-रगड़ते हुए
कर रहे महँगा सफ़र

पीएम जी के दूरदर्शन
बार-बार के आग्रहों के बाद भी
ग़ायब सोशल डिस्टेंसिंग

मास्क पहने दिखते
एकाध चेहरे ही

एकाध ही दिखते
लिए हाथ में
सेनेटाइजर की बोतल
किसी पिस्टल या
रिवॉल्वर की तरह

भूख की आग कबतक
सही जा सकती
सब निकल पड़े दुबारा
रोज़ी-रोज़गार की तलाश में
सड़कों पर

कोई मोची हो या रिक्शावाला

ठेलेवाला हो या खोंमचेवाला

फेरीवाला हो या दूधवाला

फूल-माला वाला हो या

पंक्चर बनाने वाला

चायवाला हो या फलवाला

मंदिर का पुजारी हो या

मस्ज़िद का मौलाना….

इंतज़ार की भी एक हद होती ……

लोग अब कोरोना से कम
भूख से ज़्यादा बेहाल
फिर लोग भाग रहे
बड़े शहरों की तरफ़
ये कहते हुए कि गाँव में
रखा ही क्या

एक ओर तमाम सरकारी हिदायतें
गोया कितना ख़्याल रखती हो वह
अपनी प्यारी-सी पब्लिक का
दूसरी ओर चुनाव पर चुनाव
जन सभाएँ
सभाओं में धक्का-मुक्की करती भीड़
पता नहीं,नेताओं से क्या पाना
शेष रह गया अब भी
आज़ादी के इतने बरसों बाद भी

इन सभाओं में क्या सुनने जाती भीड़
क्या सुनती भीड़
उसे तो बुरी तरह से
जकड़ दिया गया
जाति-बिरादरी
धर्म-मज़हब के सींकचों में

नेताओं की ज़ुबान से सच
वैसे ही नदारद
जैसे ग़रीब के बुझे चूल्हे से
तसला भात का

मेरा हिन्दुस्तान नहीं आ रहा
पहचान में
साल भर में बढ़ी महँगाई
कई गुना

सत्ता बन बैठी
हरज़ाई बालम

शिक्षा ऑनलाइन
नेट बाधित

सबकुछ डिजिटल
अटल कुछ भी नहीं
नर्वस हर पल

बलात्कार……उत्पीड़न
हत्या की
ख़बर-दर-ख़बर
हाँफता लोकतंत्र

शहर से भगा दिए
गँवई मज़दूर
कोरोना-कोरोना का
मचाकर
कर्कश शोर
वे शापित जीने को
मज़बूर

चीख-चीख….
भूख-भूख……
महँगाई-महँगाई…..
बेरोज़गारी-बेरोज़गारी…….
गुम चोट की मार

ऐसे में क्या बिसात
कोरोना महामारी की

वैसे सच पूछिए तो
कोरोना है भी नहीं भी है !


(6)
अशुद्धियाँ

हे वैयाकरण महाशय जी
क्यों बैठे हैं
चुपचाप
माथ पर धरे
हाथ-पर हाथ

किस चिंता में गले जा रहे आप

हर काल में ही होती रही
अवहेलना
आपके बनाए
नियमों की
ऐसा कुछ भी नहीं जो
हो रहा हो संभव
पहली बार

टूटता ही रहा है घेरा
आपके अनुशासन का

यह भी पहली बार नहीं हुआ
कि लोग चाहकर भी
भूल जा रहे
प्रयोग अल्पविराम,अर्द्धविराम
पूर्णविराम का

ह्रस्व व दीर्घ का

भाषा में तो टूटती ही रहतीं
मर्यादाएँ व वर्जनाएँ

कुछ भी शाश्वत या सनातन नहीं यहाँ

शुद्धता पर बल के बावज़ूद
बढ़ती ही रहतीं
अशुद्धियाँ
व्यवहार में
परंपरा रही यह
सदियों की

जाने क्यों कहने का
हो आता मन
बार-बार
कि शुद्धियाँ ही पैदा करतीं
कृत्रिमता
मानव जीवन में
जबकि अशुद्धियाँ
नैसर्गिकता का बोध करातीं
हरदम

समाज-संस्कृति व भाषा के
विकास के लिए
वरदान हैं
अशुद्धियाँ

अशुद्ध उच्चारण से ही बनते
लोक में नए-नए शब्द
गढ़ी जातीं नयी-नयी
लोकोक्तियाँ
बनाए जाते नए-नए
मुहावरे
रचे जाते नए-नए गीत
रची जातीं नयी-नयी कथाएँ !

चंद्रेश्वर एक परिचय :

वरिष्ठ कवि-आलोचक चंद्रेश्वर
चंद्रेश्वर की छः कविताएँ

नाम – डॉ.चंद्रेश्वर
जन्मतिथिः 30 मार्च,1960 जन्मस्थानः गाँव-आशा पड़री
अंचल–सिमरी
ज़िला -बक्सर(बिहार) |
पिता का नाम- स्व.केदारनाथ पाण्डेय और माता का नाम श्रीमती मोतीसरा देवी |
पिता अपने ग्रामीण अंचल में ही माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक रहे |
लेखन के आरंभ से ही कई लेखक संगठनों से गहरा जुड़ाव रहा है |
सन् फरवरी 82 से दिसंबर 2010 तक जलेस के साथ सम्बद्ध | जनवरी 2011 से जनवरी 2020 तक लखनऊ की जसम इकाई के साथ मिलकर कार्य |
इनदिनों बिना किसी दबाव के स्वतंत्र होकर लेखन कार्य |
उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग ,प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01 जुलाई सन् 1996 से प्राध्यापन का कार्य |
संप्रतिः वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष,
एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,बलरामपुर,उत्तर प्रदेश |
हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सन् 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक छः पुस्तकें प्रकाशित | तीन कविता संग्रह -‘अब भी'(2010),’सामने से मेरे’ (2017),’डुमराँव नज़र आयेगा’ (2021) |
एक शोधालोचना की पुस्तक ‘भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका ‘इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार’ (1998) का भी प्रकाशन |
एक भोजपुरी गद्य की पुस्तक–‘हमार गाँव’ (स्मृति आख्यान) |
शीघ्र प्रकाश्य दो हिन्दी व एक भोजपुरी की पुस्तकें —

1.’हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता’ (आलोचना),’

2.बात पर बात और मेरा बलरामपुर'(कथेतर गद्य) |

3.आराःहमार आरा (भोजपुरी में संस्मरण) |


By pnc

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