जिन्दगी थी पर जिन्दगी में कहीं कोई ट्विस्ट नहीं था
एक महिने के लिए साइकिल से साहित्य यात्रा पर उत्तराखंड में
39 दिन की यात्रा महज़ एक हजार रुपये में तय किया
बच्चों की 1000 से ज्यादा स्वरचित कविताएं इकठ्ठा की
एक- डेढ़ महीने के अंदर मैंने अपनी पूरी की पूरी जिन्दगी जी ली
जर्मनी में एक 5 लाख का वर्ल्ड राइडिंग फेडरेशन का सोशल इम्पैक्ट अवार्ड
जिन्दगी में अगर सबकुछ अच्छा चल रहा है तो इसका मतलब यह नहीं की आप खुश हैं. सुख- सुविधाओं से अलग भी जिन्दगी के कई अलग और अनोखे मायने होते हैं. मेरी जिन्दगी में भी सबकुछ अच्छा चल रहा था. एक अच्छी नौकरी थी जिसमें हर महिने तक़रीबन लाख रुपये आ जाते थे. दिल्ली जैसे व्यस्त शहर में खुदकी जान से भी ज्यादा ख्याल रखने वाले सैकड़ों दोस्त. और एक परवाह करने वाली गर्लफ्रेंड. सबकुछ अच्छा था फिर भी कुछ कमी सी थी. इतना कुछ होने के बाद एक घिसी पिटी जिन्दगी जीने की आदत सी पड़ गई थी. जिन्दगी थी पर जिन्दगी में कहीं कोई ट्विस्ट नहीं था.
अगर दोस्तों से कुछ कहो तो उनका जवाब होता अबे अब तुझे क्या चाहिए ? सबकुछ तो है तेरे पास. ऐसे में उन्हें कोई समझाए तो समझाए कैसे ? पर सब बेकार. ना वो समझ पाए और ना ही मुझे मेरी परेशानी का कोई हल मिलता दिखाई दिया.
मन के अंदर एक अंतर्द्वंद सा चलना शुरू हो गया. जीवन जिसका जुड़ाव हमेशा कला पक्ष से था थोड़ा आध्यात्मिक होता दिखा तो सोचा कि उन तमाम अवधारणाओं को तोड़ना चाहिए जिसने जीवन की तमाम सच्चाईयों पर पर्दा डाल रखा है. अगर अच्छी नौकरी, अजीज दोस्त, परवाह करने वाली गर्लफ्रेंड जीवन का सच है तो जीवन में इतना अवसाद या फिर ठहराव क्यों है ? इतना एकांकीपन ? इतनी उदासी क्यों ?
सबसे पहले जेहन में ख्याल आया कि नौकरी छोड़ दिया जाये लेकिन यह सही विकल्प नहीं था. पूरे साल की बची छुट्टियों का कैलकुलेशन किया तो पता चला की मेरी 39 छुट्टियां शेष बची हैं. ऑफिस में एक एप्लीकेशन डाला और छुट्टियां कन्फर्म होती दिखी तो मन में एक ऐसी यात्रा का प्लान बनने लगा जिसमें रोमांच हो.
कुछ दोस्तों से सलाह लिया तो किसी ने मुंबई, किसी ने चेन्नई, किसी ने बंगलोर तो किसी ने थाईलैंड जाने तक की सलाह दे डाली. पर मुझे मजा नहीं आया. मुझे कुछ अलग चाहिए था. कुछ बहुत ही ज्यादा अलग. फिर मन में आया कि क्यों ना साइकिल से यायावरी की जाये. और इस ख्याल के मन में आते ही दिमाग की नशे खुलने लगी और मैंने पूरी तरह से डिसाइड कर लिया कि एक महिने के लिए साइकिल से साहित्य यात्रा पर निकलना है. कुछ दोस्तों से बात किया तो बात थोड़ी और आगे बढ़ी. लेकिन साइकिल से हिमालय को रौंदना इतना आसान नहीं था. सामने ठंडे मौसम के मार से लेकर पहाड़ी रास्ते और साइकिल की रिस्की सवारी जैसे बड़े अवरोध थे. लेकिन एक पल के लिए मन में आया कि ठान लिया तो ठान लिया. जो होगा देखा जायेगा.
कुछ जरूरी चीजों की एक लिस्ट बनाया. जिसमें कपड़े से लेकर सटेलाइट फोन, गो प्रो कैमरा, टेन्ट स्लीपिंग बैग, किंडल, मोबाइल फ़ोन, और लैपटॉप तक शामिल था. इस तरह तक़रीबन 70 kg का बैगपैक बनकर तैयार हुआ जिसका कुल वजन 12 किलोग्राम के आसपास था. पहाड़ों पर साइकिलें टूटती बहुत हैं. इसलिए एक से ज्यादा साइकिल की जरूरत महसूस हुई तो वर्ल्ड की सबसे बड़ी स्टूडेन्ट एलुमनी सहयोग के लिए सामने आई. लेकिन इस सहयोग के बदले में उनके लिए मुझे ऊत्तराखंड के सभी 13 जिलों में स्थित 13 नवोदय विद्यालयों में जाकर बच्चों की स्वरचित कवितायें इकठ्ठा करनी थी.
काम मेरे मन का था. सच कहूं तो ऐसा ही कुछ करने की मैं वर्षों से सोच रहा था. पर उनकी तमाम शर्तों के साथ एक शर्त यह भी थी कि मुझे यह पूरी 39 दिन की यात्रा महज़ एक हजार में तय करनी है. सच कहूं तो यह बहुत ही मुश्किल काम था. बावजूद इसके ना का कोई सवाल ही नहीं पैदा हुआ. एक नवंबर की रात साइकिल पर अपना सामान बांधा और अपनी जिन्दगी के इस सबसे बड़े पागलपन के लिए निकल पड़ा. शुरू में लगा कि हार जाऊंगा. लेकिन सफर और दिन दोनों आगे बढ़ता गया और एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नही चला तो इससे मन में कॉन्फिडेंट आया. लेकिन यह कॉन्फिडेंट जैसे ही अपनी मौजूदगी जमाता वैसे ही आठ तारीख़ की रात मोदी जी के द्वारा नोटेबन्दी का फ़रमान आ गया.
मैंने अपनी जेब टटोली तो याद आया कि मेरे पास अभी भी 980 रूपये शेष हैं. जिसमें नौ सौ के नोट थे. एक पल के लिए लगा कि इस दुनिया का मैं सबसे धनी आदमी हूं. लेकिन दूसरे ही पल मेरे सारे हौसले धरासाई होते दिखे.
सुबह जब रास्तों की तरफ नजर दौड़ाया तो एटीएम मशोनों के सामने सड़कों पर लोगों की लंबी लंबी भीड़ थी. माहौल पूरी तरह से खराब हो चूका था. महज़ 2000 रूपये निकालने के लिए लोगों को पूरे दिन लाइन में खड़ा देख मुझे समझ में आने लगा था कि लोगों की नजर में पैसे की इस बढ़ी कीमत मुझे मुश्किल में डाल देगी. खाना मिलना तो दूर मुझे कोई चाय के लिए भी शायद ही पूछेगा. लेकिन इतनी जल्दी हार जाना भी सही नहीं लगा. 58 किलोमीटर की दूरी तय करके हरिद्वार से देहरादून पहुंचना था लेकिन बीच में ही रात हो गई. अंधेरा घिरने लगा तो देहरादून- हरिद्वार हाईवे पर एक खाली खेत में अपना लंगर डाल दिया. टेंट लगाया और अपनी यात्रा के नौंवे दिन पहली बार भूखे पेट सोया. आज मेरी यात्रा का 35वां दिन है. लेकिन उसके बाद से मुझे कभी भूखा नहीं रहना पड़ा. भूख महसूस होने से पहले मुझे खाना मिला और गला सूखने से पहले पानी. इस दौरान मैंने सीखा कि असल में जीवन कैसे जीया जाता है ? फक्कड़पन क्या होता है ? आत्मीयता क्या होती है ? सामाजिक सरोकार क्या होते हैं ? अनुभव क्या होता है ? अनुभूति क्यों जरूरी है ?
और एक हजार से भी कम रुपये में ऊत्तराखंड जैसी टफ़ जगह पर अलग अलग 13 जिलों में घूमते हुए 39 दिन तक रहा, बच्चों की 1000 से ज्यादा स्वरचित कविताएं इकठ्ठा किया. खाया-पीया, लोगों की शादियां अटेंट की, डेवलोपमेन्ट सेक्टर में काम कर रहे तमाम संस्थानों को एड्रेस किया झेले, कई बार मौत को बेहद ही नजदीक से महसूस कर पाया. और अब कुछ दिनों के लिए अपने इसी कारनामें या फिर काम की बदौलत कुछ दिनों के लिए जर्मनी जा रहा हूं. दरअसल, यही तो मैं चाहता था जो इस यात्रा के दौरान कर पाया. महज़ एक- डेढ़ महीने के अंदर मैंने अपनी पूरी की पूरी जिन्दगी जी लिया है. और यह समझ पाया हूं कि यायावरी सिर्फ पागलपन नहीं बल्कि एक सार्थक जीवन की एक ऐसी पहल है जिसे हर कोई करना चाहता है, बावजूद इसके कोई कोई ही कर पता है.मुझे जर्मनी में एक 5 लाख का वर्ल्ड राइडिंग फेडरेशन का सोशल इम्पैक्ट अवार्ड मिल रहा है जो मेरे उत्साह को दुगना कर रहा है .
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