राजद ने एनडीए पर बड़ा हमला बोला है. राष्ट्रीय जनता दल का आरोप है कि जिस पंचायती राज व्यवस्था को राजद ने बिहार में लागू किया उसे एनडीए सरकार ने महज शो पीस बना कर छोड़ दिया.
राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश प्रवक्ता चित्तरंजन गगन , एजाज अहमद एवं सारिका पासवान ने रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित करते हुए कहा कि सबसे पहले राजद शासनकाल में हीं बिहार में पंचायतीराज व्यवस्था लागू किया गया था और विकास के साथ हीं शासन और प्रशासन में पंचायत प्रतिनिधियों को प्रत्यक्ष भागीदारी दी गई थी . जबकि एनडीए की सरकार ने पंचायतीराज व्यवस्था को मात्र शो-पीस बनाकर रख दिया है. उन्होंने कहा कि 73 वें संविधान संशोधन के द्वारा जो अधिकार पंचायतों को दिया गया है , बिहार की वर्तमान सरकार द्वरा उन सारे अधिकारों का अतिक्रमण कर दिया गया है .
राजद प्रवक्ताओं ने कहा कि पंचायतीराज व्यवस्था के प्रति वर्तमान सरकार की उदासीनता की वजह से 2006 से लेकर अबतक पंचायतीराज व्यवस्था का नियमावली भी सरकार नहीं बना पायी है।. आज किस मुँह से भाजपा और जदयू विधान परिषद चुनाव में पंचायत प्रतिनिधियों से वोट माँग रही है जबकी सरकार के पंचायत प्रतिनिधि बिरोधी गलत नीतियों के कारण हजारों पंचायत प्रतिनिधि आज भी कोर्ट – कचहरी का चक्कर काट रहे हैं.
राजद प्रवक्ताओं ने कहा कि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं बिहार पंचायतीराज अधिनियम 1993 बनाकर पंचायतीराज संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई थी और राबड़ी देवी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं 2001 में पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव कराया गया था . राजद शासनकाल में 2001 में हुये पंचायती संस्थाओं के चुनाव में हीं महिलाओं और अनुसूचित जाति/ जनजाति के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू किया गया था .
राजद प्रवक्ताओं ने याद दिलाया है कि भाजपा के विरोध के बाद भी जब पंचायत राज अधिनियम 1993 बन गया और 1996 में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो भाजपा और समता पार्टी ( जदयू ) के इशारे पर आरक्षण प्रावधानों के खिलाफ हाई कोर्ट में रिट दायर कर चुनाव पर रोक लगवा दिया गया था.
सर्वप्रथम 2001 में राबडी देवी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं पंचायतों का चुनाव कराया गया और संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार 11 वीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों को पंचायती राज संस्थाओं के साथ सम्बद्ध कर दिया गया . एनडीए की सरकार बनने के बाद बिहार पंचायत राज अधिनियम 2006 पारित कर पंचायतों के अधिकार सीमीत कर दिए गए. संविधान के अनुसूची 11 में शामिल एक भी विषय को पंचायतों को हस्तांतरित करने का कोई राजकिय अधिसूचना जारी नहीं की गयी. पंचायतों के अधिकार केवल उन्हीं योजनाओं अथवा कार्यक्रमों तक सिमित कर दिए गए जिन्हें पंचायतों के माध्यम से निष्पादित कराने की वैधानिक अनिवार्यता है. एनडीए शासनकाल में पंचायती संस्थाओं को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया है और वह मात्र हाथीदांत बन कर रह गया है.
राज्य सरकार के नये फैसले के अनुसार अब डीडीसी के जगह पर बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी होंगे. जबकि 73 वें संविधान संशोधन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिला परिषद का मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी जिलाधिकारी के समकक्ष स्तर के पदाधिकारी हीं होंगे. डीडीसी को जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी नहीं रहने का मतलब है जिला के विकास योजनाओं से जिला परिषद की भूमिका को पूर्णतः वंचित कर देना. बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी केवल रुटीन वर्क कर सकते हैं अन्य विभागों के जिला स्तरीय पदाधिकारी से कनीय रहने की वजह से वे प्रभावहीन साबित होंगे.
यही स्थिति प्रखंडों में पंचायत समितियों की होने जा रही है. प्रस्तावित संशोधन के अनुसार अब प्रखंड विकास पदाधिकारी पंचायत समिति के कार्यपालक पदाधिकारी नहीं होंगे.
राजद प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया कि सोलह सालों के एनडीए शासनकाल में अबतक तीन-तीन बार नये अधिनियम बनाये गए और हर नये अधिनियम मे पंचायतों के अधिकार सीमीत करने का सिलसिला जारी है। नये संशोधनों के द्वारा पंचायती संस्थाओं को पदाधिकारियों के मातहत गिरवी रख दिया गया है.राज्य की यह सरकार संवैधानिक मजबूरी के कारण पंचायतीराज व्यवस्था के अस्तित्व को समाप्त तो नहीं कर सकता पर उसे प्रभावहीन और अधिकार विहीन बना कर केवल “शो-पीस” रहने दिया गया है.
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राजद प्रवक्ताओं ने कहा कि पंचायतीराज व्यवस्था के प्रति वर्तमान सरकार की उदासीनता की वजह से 2006 से लेकर अबतक पंचायतीराज व्यवस्था का नियमावली भी सरकार नहीं बना पायी है।. आज किस मुँह से भाजपा और जदयू विधान परिषद चुनाव में पंचायत प्रतिनिधियों से वोट माँग रही है जबकी सरकार के पंचायत प्रतिनिधि बिरोधी गलत नीतियों के कारण हजारों पंचायत प्रतिनिधि आज भी कोर्ट – कचहरी का चक्कर काट रहे हैं.
राजद प्रवक्ताओं ने कहा कि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं बिहार पंचायतीराज अधिनियम 1993 बनाकर पंचायतीराज संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई थी और राबड़ी देवी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं 2001 में पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव कराया गया था . राजद शासनकाल में 2001 में हुये पंचायती संस्थाओं के चुनाव में हीं महिलाओं और अनुसूचित जाति/ जनजाति के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू किया गया था .
राजद प्रवक्ताओं ने याद दिलाया है कि भाजपा के विरोध के बाद भी जब पंचायत राज अधिनियम 1993 बन गया और 1996 में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो भाजपा और समता पार्टी ( जदयू ) के इशारे पर आरक्षण प्रावधानों के खिलाफ हाई कोर्ट में रिट दायर कर चुनाव पर रोक लगवा दिया गया था.
सर्वप्रथम 2001 में राबडी देवी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं पंचायतों का चुनाव कराया गया और संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार 11 वीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों को पंचायती राज संस्थाओं के साथ सम्बद्ध कर दिया गया . एनडीए की सरकार बनने के बाद बिहार पंचायत राज अधिनियम 2006 पारित कर पंचायतों के अधिकार सीमीत कर दिए गए. संविधान के अनुसूची 11 में शामिल एक भी विषय को पंचायतों को हस्तांतरित करने का कोई राजकिय अधिसूचना जारी नहीं की गयी. पंचायतों के अधिकार केवल उन्हीं योजनाओं अथवा कार्यक्रमों तक सिमित कर दिए गए जिन्हें पंचायतों के माध्यम से निष्पादित कराने की वैधानिक अनिवार्यता है. एनडीए शासनकाल में पंचायती संस्थाओं को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया है और वह मात्र हाथीदांत बन कर रह गया है.
राज्य सरकार के नये फैसले के अनुसार अब डीडीसी के जगह पर बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी होंगे. जबकि 73 वें संविधान संशोधन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिला परिषद का मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी जिलाधिकारी के समकक्ष स्तर के पदाधिकारी हीं होंगे. डीडीसी को जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी नहीं रहने का मतलब है जिला के विकास योजनाओं से जिला परिषद की भूमिका को पूर्णतः वंचित कर देना. बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी केवल रुटीन वर्क कर सकते हैं अन्य विभागों के जिला स्तरीय पदाधिकारी से कनीय रहने की वजह से वे प्रभावहीन साबित होंगे.
यही स्थिति प्रखंडों में पंचायत समितियों की होने जा रही है. प्रस्तावित संशोधन के अनुसार अब प्रखंड विकास पदाधिकारी पंचायत समिति के कार्यपालक पदाधिकारी नहीं होंगे.
राजद प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया कि सोलह सालों के एनडीए शासनकाल में अबतक तीन-तीन बार नये अधिनियम बनाये गए और हर नये अधिनियम मे पंचायतों के अधिकार सीमीत करने का सिलसिला जारी है। नये संशोधनों के द्वारा पंचायती संस्थाओं को पदाधिकारियों के मातहत गिरवी रख दिया गया है.राज्य की यह सरकार संवैधानिक मजबूरी के कारण पंचायतीराज व्यवस्था के अस्तित्व को समाप्त तो नहीं कर सकता पर उसे प्रभावहीन और अधिकार विहीन बना कर केवल “शो-पीस” रहने दिया गया है.
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