रथ बनाने के लिए सोने की कुल्हाड़ी का होता है उपयोग
742 चूल्हों पर बन रहा है भगवान जगन्नाथ के लिए प्रसाद
विशाल रथों को हजारों लोग मोटे-मोटे रस्सों से खींचते हैं
पुरी में आज से भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा की शुरुआत हो रही है. रात 10:04 बजे जगन्नाथ जी, बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निकलेंगे. अगले दिन रात 7.09 बजे वे अपनी मौसी के घर, यानी गुंडिचा मंदिर जाएंगे और 9 दिनों तक वहीं रुकेंगे. इसके बाद वापस जगन्नाथ मंदिर लौट आएंगे.यात्रा के लिए तीन भव्य रथ बनाए गए हैं. पहले रथ में भगवान जगन्नाथ, दूसरे रथ में बलराम और तीसरे रथ में सुभद्रा सवार होंगी.
भगवान जगन्नाथ भी इस बात से अछूते नहीं हैं. जब रथ पर सवार होकर हर साल भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर गुंडिचा जाते हैं तो वहां उनका भी लाड़-दुलार बहुत खास तरीके से होता है. उन्हें तमाम पसंदीदा व्यंजनों का भोग लगाया जाता है. आइए जानते हैं इस पूरी यात्रा के दौरान क्या-क्या होता है और कैसे की जाती है भगवान जगन्नाथ की पूजा.
सोने की झाड़ू से सफाई
रथयात्रा आरंभ होने से पूर्व पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने की झाड़ू से ठाकुरजी के प्रस्थान मार्ग को बुहारते हैं. इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है. कई वाद्ययंत्रों की ध्वनि के मध्य विशाल रथों को हजारों लोग मोटे-मोटे रस्सों से खींचते हैं. सबसे पहले बलभद्र का रथ तालध्वज प्रस्थान करता है. थोड़ी देर बाद सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है. अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं. लोग मानते हैं कि रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष मिलता है, अत: सभी कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं. जगन्नाथजी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है. गुंडीचा मंदिर वहीं है, जहां विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था. इसे गुंडीचा बाड़ी भी कहते हैं. यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है. सूर्यास्त तक यदि कोई रथ गुंडीचा मंदिर नहीं पहुंच पाता तो वह अगले दिन यात्रा पूरी करता है.
गुंडीचा मंदिर में भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं. इस बीच इनकी पूजा अर्चना यहीं होती है. ये रथ यहां पर सात दिन तक रहते हैं. यहां पर इस दौरान सुरक्षा व्यवस्था काफी चुस्त व दुरुस्त रखी जाती है. इस एक सप्ताह के दौरान यहां विभिन्न उत्सवों का आयोजन होता है और भगवान को विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है. इस दौरान भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन बलभद्र और सुभद्रा का लाड़ प्यार ठीक उसी तरह होता है जैसे बच्चों को अपनी मौसी के घर में प्यार मिलता है. आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथजी की वापसी यात्रा शुरू होती है. इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं. शाम से पूर्व ही रथ जगन्नाथ मंदिर तक पहुंच जाते हैं. जहां एक दिन प्रतिमाएं भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखी रहती हैं. अगले दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में पुन: स्थापित कर दिया जाता है. मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सौम्य प्रतिमाओं को श्रद्धालु एकदम निकट से देख सकते हैं. भक्त एवं भगवान के बीच यहां कोई दूरी नहीं रखी जाती. काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को भी कुछ वर्ष बाद बदलने की परंपरा है. जिस वर्ष अधिक मास रूप में आषाढ़ माह अतिरिक्त होता है उस वर्ष भगवान की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं. यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है. पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही समाधि दी जाती है.
रथयात्रा यहां का सामुदायिक पर्व है. घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती और न ही कोई उपवास रखा जाता है. जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं. माना जाता है कि यहां सभी घरों के भगवान जगन्नाथजी हैं. जब रथ यात्रा का पर्व होता है तो लोग अपने घरों में पूजा करने के स्थान पर रथ यात्रा में शामिल होते हैं. रथ के निर्माण का कार्य अक्षय तृतीया से ही शुरू हो जाता है. बलदेव, श्रीकृष्ण व सुभद्रा के लिए अलग-अलग तीन रथ बनाए जाते हैं.
आषाढ़ की शुक्ल द्वितीय को तीनों रथों को ‘सिंहद्वार’ पर लाया जाता है. स्नान व वस्त्र पहनाने के बाद प्रतिमाओं को अपने-अपने रथ में रखा जाता है. इसे पहोन्द्रि महोत्सव कहते हैं. जब रथ तैयार हो जाते हैं, तब पुरी के राजा एक पालकी में आकर इनकी पूजा करते हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से रथ मण्डप को सोने की झाडू से साफ करते हैं. इस परंपरा को छर पहनरा कहते हैं.अब सर्वाधिक प्रतीक्षित व शुभ घड़ी आती है. ढोल, नगाड़ों, तुरही तथा शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं. भव्य रथ घुमावदार मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तथा गुडींचा मंदिर के पास रुकते हैं. ये रथ यहा पर सात दिन तक रहते हैं.आषाढ़ दसवीं को रथों की मुख्य मंदिर की ओर पुर्नयात्रा प्रारंभ होती है. सभी रथों को मंदिर के ठीक सामने लाया जाता है, परन्तु प्रतिमाएं अभी एक दिन तक रथ में ही रहती हैं.आषाढ़ एकादशी के दिन मंदिर के द्वार देवी – देवताओं के लिए खोल दिए जाते हैं, तब इनका शृंगार विभिन्न आभूषणों व शुद्ध स्वर्ण से किया जाता है. इस धार्मिक कार्य को सुनबेसा कहा जाता है. मूर्तियों को मंदिर में फिर से स्थापित कर दिया जाता है और इसी के साथ संपन्न होती है रथ यात्रा.
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