काला-दस्ता को उखाड़ फेंकने की चुनौती को किया था स्वीकार
कैसे बनें एक अच्छा रचनाकार : राजीव रंजन सिन्हा
भारतीय पुलिस सेवा में चुने जाने के बाद सिद्धार्थ की पहली पोस्टिंग बारामूला में एसपी के पद पर होती है. बारामूला और उसके आसपास इलाक़े में तईबा नामक आतंकवादी गुट सक्रिय है. इस गुट का सरगना फ़िराक खान है. सिद्धार्थ का सामना इसी गुट के कुछ आतंकवादियों से हो जाता है. जिसमें फ़िराक खान का भाई मारा जाता है. भाई की हत्या से वह बौख़ला जाता है. वह अपने दस्ते के साथ एसपी आवास और दफ़्तर पर एक साथ हमला कर देता है. हमले से निपटने के लिए सेना की एक टुकड़ी वहां आकर मोर्चा संभाल लेती है. इस टुकड़ी का नेतृत्व कैप्टेन सुमित सिंह करता है.
सुमित सिद्धार्थ का ज़िगरी दोस्त है. दोनों तरफ से जबरदस्त फ़ायरिंग होती है, जिसमें फ़िराक खान सहित उसका पूरा कुनबा ख़त्म हो जाता है. इस लड़ाई में सिद्धार्थ को बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है. माता-पिता और उसकी छोटी बहन की मौत हो जाती है. वहीं सुमित शहीद हो जाता है. सिद्धार्थ को कई गोलियां लगती है. इलाज़ के दौरान वह ज़िंदा तो बच जाता है. लेकिन, कोमा यानी अप्राकृतिक निद्रा में चला जाता है. तक़रीबन दो साल तक वह ऐसे ही हालत में रहता है. कोमा से बाहर आने के बाद उसकी पोस्टिंग झारखंड के राजनगर में कर दी जाती है. राजनगर बड़ा ही ख़ूंखार इलाक़ा है. यहां देश का कानून नहीं बल्कि काला-दस्ता का राज चला करता है. काला-दस्ता का गठन देश के गद्दारों ने आज़ादी के बाद किया था. इसमें वैसे लोग शामिल थे, जिन्होंने अपने निज़ी फ़ायदे के लिए आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों के तलवे चाटें. और, बाद में जंगल और पहाड़ों में अपना आशियाना बना लिया.
पहले तो आदिवासियों के हक़ के लिए सरकार से लड़ने की बात कही. और, बाद में उनकी ही हक़मारी कर उनके ही इलाक़े में अपना दबदबा क़ायम कर लिया. उन्हें सरकार के खिलाफ़ भड़का कर उनके हाथों में बंदूकें थमा दी. और, इस तरह से कला-दस्ता ने एक बड़ी फौज़ तैयार कर ली. उसने अपने हथियारबंद कार्यकर्ता को ‘लड़ाके’ का नाम दिया. बाद के दिनों में इस संगठन को नेताओं का संरक्षण भी मिलने लगा. काला-दस्ता अपनी धमक बरकरार रखने के लिए समतल मैदानों में कई छोटे-बड़े नरसंहारों को अंज़ाम दिया.राजनगर में पोस्टिंग के बाद सिद्धार्थ के सामने चुनौती होती है काला-दस्ता के ख़ात्मे की.
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राजीव रंजन सिन्हा की चंद बातें आपसे सीधे ….
अगर आप कल्पनाशील हैं, तो आप अपनी कल्पनाओं की उड़ान को आसमान में जितनी ऊंची ले जा सकते हैं. उसे जरूर ले जाएं. पता नहीं वह उड़ान कब आपकी लेखन का शक़्ल लेकर एक कहानी गढ़ जाये. ये मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मैंने कल्पना में ही जी कर कुछ कहानियां लिखी है. बचपन से ही कुछ न कुछ सोचने की आदत रही है. कल्पना में खो जाना मानों मेरी फितरत में शुमार हो चुका है. मैंने अपनी इसी आदत को हमेशा अपने अंदर बरकरार रखा. एक समय ऐसा आया जब मुझे ये लगने लगा कि मुझे कुछ लिखना चाहिए, तब मैंने सोचना शुरू किया कि क्या लिखा जाए. किस पर लिखा जाये? कैसे लिखा जाए? लिखने का प्रारूप कैसा होना चाहिए? ये तमाम सवाल ऐसे थे, जिनका जवाब मुझे ढूंढना था. चार पांच दिनों के मशक्कत के बाद मुझे अपने सारे सवालों का जवाब मिल गया. पहली बार कहानी लिखनी थी, तो मैंने कुछ सच्चे तथ्य को लिया. और, उसके बाद कहानी का सार लिखा. सार तो लिखा गया, अब बारी थी सार को उपन्यास के रूप में अमली जामा पहनाने का. अपनी कल्पनाओं की उड़ान को मैंने बेलगाम कर दिया. एक कड़ी से दूसरी कड़ी को जोड़ता चला गया. और, जब सारी कड़ियां जुड़ गयी तब एक कहानी ने जन्म लिया. जिसका नाम ‘तपोभूमि’ था.
रवीन्द्र भारती