‘संविधान मेरा पवित्र ग्रंथ, भारत की संसद मेरा मंदिर’

विदाई भाषण में बोले राष्ट्रपति 

जनता की सेवा मेरी अभिलाषा रही है- प्रणब मुखर्जी




सोमवार की शाम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आखिरी बार देशवासियों को संबोधित किया. प्रणब मुखर्जी ने नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बधाई दी और कहा कि ‘ मैं उनका हार्दिक स्वागत करता हूं और उन्हें आने वाले वर्षों में सफलता और खुशहाली की शुभकामनाएं देता हूं. ‘

राष्ट्रपति ने समाज में बढ़ रही हिंसा पर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि हमें अपने जन संवाद को शारीरिक और मौखिक, सभी तरह की हिंसा से मुक्त करना होगा. पर्यावरण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यावरण की सुरक्षा हमारे अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है. प्रदूषण और जयवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं से निपटने के लिए उन्होंने सभी को साथ मिलकर काम करने का आह्वान करते हुए कहा कि हम सबको मिलकर कार्य करना होगा क्योंकि भविष्य में हमें दूसरा मौका नहीं मिलेगा.

 

राष्ट्रपति के विदाई भाषण के कुछ प्रमुख अंश-

  1. मैंने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के युवा और प्रतिभावान लोगों, वैज्ञानिकों, नवान्वेषकों, विद्वानों, कानूनविदों, लेखकों, कलाकारों और विभिन्न क्षेत्रों के अग्रणियों के साथ बातचीत से सीखा. ये बातचीत मुझे एकाग्रता और प्रेरणा देती रही. मैंने कड़े प्रयास किए. मैं अपने दायित्व को निभाने में कितना सफल रहा, इसकी परख इतिहास के कठोर मानदंड द्वारा ही हो पाएगी.
  2. सहृदयता और समानुभूति की क्षमता हमारी सभ्यता की सच्ची नींव है. परंतु प्रतिदिन हम अपने आसपास बढ़ती हुई हिंसा देखते हैं. इस हिंसा की जड़ में अज्ञानता, भय और अविश्वास है. हमें अपने जन संवाद को शारीरिक और मौखिक सभी तरह की हिंसा से मुक्त करना होगा. एक अहिंसक समाज ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों के सभी वर्गों विशेषकर पिछड़ों और वंचितों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है. हमें एक सहानुभूतिपूर्ण और जिम्मेवार समाज के निर्माण के लिए अहिंसा की शक्ति को पुनर्जाग्रत करना होगा.
  3. पर्यावरण की सुरक्षा हमारे अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है. प्रकृति हमारे प्रति पूरी तरह उदार रही है. परंतु जब लालच आवश्यकता की सीमा को पार कर जाता है, तो प्रकृति अपना प्रकोप दिखाती है.  हम सबको अब मिलकर कार्य करना होगा क्योंकि भविष्य में हमें दूसरा मौका नहीं मिलेगा.
  4. शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो भारत को अगले स्वर्ण युग में ले जा सकता है. शिक्षा की परिवर्तनकारी शक्ति से समाज को पुनर्व्यवस्थित किया जा सकता है. इसके लिए हमें अपने उच्च संस्थानों को विश्व स्तरीय बनाना होगा. हमारे विश्वविद्यालयों को रटकर याद करने वाला स्थान नहीं बल्कि जिज्ञासु व्यक्तियों का सभा स्थल बनाया जाना चाहिए. हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में रचनात्मक विचारशीलता, नवान्वेषण और वैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा. इसके लिए विचार-विमर्श, वाद-विवाद और विश्लेषण के जरिए तर्क प्रयोग करने की जरूरत है. ऐसे गुण पैदा करने होंगे और मानसिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देना होगा.

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