“वक्त के साथ परंपरा का विश्लेषण जरूरी”

By Amit Verma Oct 30, 2016

जब परंपरा से उसका वास्तविक अर्थ छिन जाये, लक्ष्य भ्रमित हो जाये एवं आवरण पर कृत्रिमता हावी हो जाये, तब उस परंपरा का त्याग कर देना चाहिए. किसी भी परंपरा एवं पर्व की वर्तमान प्रासंगिकता को अवश्य जॉचना चाहिए, वरना यह उल्लास के बीचों बीच अभिशाप बो जाता है.
मित्रों आज दीवाली है. हिंदु दर्शन में यह भाव है कि इस भौतिक शरीर और चंचल मन से परे कुछ है जो शुद्ध, अनंत और शाश्वत है जिसे आत्मा कहा गया है. ‘दीवाली’ आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है. सनातन धर्म के सभी त्योहार अपने निर्माण समय की समस्याओं एवं सुविधानुसार बने थे. यदि इस कसौटी पर दीवाली को रखा जाए तो ऊपर वर्णित दर्शन भाव के अलावा इस पर्व की सीधी अभिव्यक्ति यह थी कि ‘बरसात के मौसम के ठीक बाद के इस पर्व में दो स्पष्ट लक्ष्य थे प्रथम बरसात के दौरान पानी के जगह- जगह जमा होने से चीजें सड़ने के कारण कुछ विषाक्त गैसे वातावरण में फैलती थी, इस पर्व में गाय के घी के दीपक को जलाकर प्राणवायु शुद्ध करने की कोशिष होती थी एवं दूसरा इस मौसम में भयानक रूप से बढ़ गये अधिकांश कीट – फतंगे इस दीपक में जलकर मर जाते थे.’
क्या वर्तमान में दीवाली का मतलब इन बातों से है- असंख्य पटाखे प्राणवायु को विषैला करते हैं, यदि एक रिपोर्ट को मानें तो दीवाली के रात राजधानी दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति अमूनन तीस सिगरेट के बराबर धुआं लेता है और ध्वनि की तीव्रता पंद्रह डेसीबल तक बढ़ जाती है. आप दीवाली के बाद किसी भी अस्पताल में जाकर देखिए आपको हृदय रोग, दमा, नाक की एलर्जी, ब्रोंकाइटिस, निमोनिया…. आदि के सामान्य से दोगुनी मरीज मिलेंगे.
यहां एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि जिस देश में हर घरो तक बिजली की आपूर्ति नहीं है, वहां क्या इस खुली बर्बादी की छूट होनी चाहिए? वास्तव में धर्म का काम सामाजिक स्वरूप को राह दिखाना है, अतः समय- समय पर इसका विश्लेषण एवं संशोधन आवश्यक है.
तमसो मा ज्योतिर्गमय.
गगन गौरव (स्वराज अभियान)




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