जमीं के लिए संवेदनशीलता पैदा करें निर्देशक -नितिन चंद्रा

By pnc Sep 2, 2016

फिल्म निर्माता निर्देशक नितिन चन्द्रा एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त निर्देशक है. जिन्हें मैथिलि फिल्म मिथिला मखान के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और आज फिल्म जगत के उभरते युवा निर्देशक हैं. अच्छी सोंच के साथ फिल्म बनाते है.उनसे बिहार में भाषाई फिल्मों के विकास पर कुछ बातें हुई. जो लोगों के सामने कई सवाल और सरकार के उदासीन रवैये को खुल कर सामने रखते है …

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फिल्म मिथिला मखान को क्या राष्ट्रीय पुरस्कार को ध्यान में रख कर बनाया गया था ?




इस सवाल में आपका शक दिख रहा है मुझे,लेकिन फिर भी मैं इसका जवाब दूंगा क्योंकि सिनेमा कि जानकारी हमारे यहां लोगों में नहीं है. कोई भी फिल्म नेशनल अवार्ड को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जा सकती. सिर्फ नेशनल अवार्ड के लिए बनाके देखिए, नेशनल अवार्ड कभी नहीं मिलेगा. नेशनल अवार्ड ध्यान में रखकर फिल्म बनाना आता अगर किसी को तो बिहार में लोग क्या कर रहे थे ? 90 राष्ट्रीय पुरस्कार बंगाल की तरह या 60 महाराष्ट्र की तरह क्यों नहीं ले आए. ना प्रकाश झा ना मनोज तिवारी ना कोई भी, बिहार की भाषाओं में क्यों नहीं लाया.नेशनल अवार्ड में 300 – 400 फिल्में आती हैं और वहाँ चुने जाने की प्रक्रिया बहुत ही डायनामिक है. वहां का पैनल फिल्म कहीं से भी 2 मिनट देख कर बता देता है की फिल्म कैसी है.अगर एक झलक में फिल्म अच्छी नहीं लगी तो आप गए.मिथिला मखान नेशनल अवार्ड की जिस दिन आखरी तिथि से एक दिन पहले भेज पाया था, यानी 14 जनवरी को और 28 मार्च को जब नेशनल अवार्ड अनाउंस हुआ तो पता चला की फिल्म पहुंची गई थी और अवार्ड मिला. २०१२ में “देसवा” भी मैंने भेजी थी उसको नेशनल अवार्ड नहीं दिया लेकिन “भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह” जो की एकमात्र भोजपुरी भाषा की फिल्म है वहाँ चुने जाने वाली.हाँ लेकिन एक बात जरूर कहूंगा की अगर बिहार के सिनेमा को बढ़ाना है तो ऐसी फिल्में बननी चाहिए जो ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रीय पुरस्कार ले और हर साल हमारी भाषा की फिल्मों को भारतीय अंतर राष्ट्रीय फिल्म समारोह में जगह मिले.

आपकी नई भोजपुरी फिल्म से राष्ट्रीय पुरस्कार की कितनी उम्मीद है ?

मुझे बस अपनी ईमानदारी की उम्मीद है और विश्वास.नेशनल अवार्ड पैनल का काम है अवार्ड देना मेरा काम है बनाना.अवार्ड मिलता है तो उस भाषा के लोगों का मनोबल बढ़ता है,आत्म सम्मान बढ़ता है,पहचान बढ़ती है लोगों की और आज अगर किसी को देश में मनोबल,आत्म सम्मान और पहचान को अच्छा करने की जरुरत है तो वो हमारी भाषाओं को है हम बिहारियों को है.

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भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में अभी लोग किस पैटर्न काम कर रहे हैं ?

पैटर्न तो कुछ इस तरह का है की आप पिछले 10 सालों से अपने परिवार के साथ एकभी भोजपुरी फिल्म देखने नहीं गए होंगे और मैं ये दावे के साथ कहता हूँ. भोजपुरी सिनेमा में दर्शक नहीं हैं,वो सिर्फ बेचारे शिकार हैं, जैसे अफीम के होते हैं. कुछ गरीब गुरबों को मानसिक रूप से तंग और आर्थिक रूप से परेशान लोगों के लिए मादकता और उन्माद का काम करता है. भर भर के सुरसुराहट (titillation) देने के सिद्धान्त पर पैटर्न सेट है. यहां जमीं बेच कर भी लोग ऐसी ही फिल्में बना रहे हैं और प्रियंका चोपड़ा जैसी नामी अंतर राष्ट्रीय अभिनेत्री भी भोजपुरी के नाम पर पुराने और नए शिकारों की बुद्धि भ्रष्ट करके अपनी पॉकेट भर रही हैं. तत्कालीन भोजपुरी सिनेमा बनाने वालों का सामाजिक सरोकार और मौलिकता से वही सम्बन्ध है जो दाल और कढ़ी का है. दोनों कभी एक साथ नहीं आते.
लेकिन मैं गन्दगी बनाने वालों से ज्यादा उन लोगों को दोषी मानता हूँ जो अच्छा बना सकते हैं लेकिन नहीं बनाते वो भी ऐसे समय में जब उनकी खुद की मात्र भाषा भोजपुरी है और भोजपुरी का चीर-हरण हो चुका है. जिसमें सबसे पहला नाम प्रकाश झा का है जिन्होंने सिर्फ बिहार बुराइयां दिखाकर बुलंदी पर पहुंचे और फिल्में बनाने भोपाल पहुँच गए, पिछले तीस सालों से उन्होंने बिहार में एक फिल्म तो छोड़िए, ५ मिनट भी कुछ शूट नहीं किया. इस तरह की संवेदनहीनता बहुत बड़ी जिम्मेदार है आज के दकियानूसी भोजपुरी फिल्मों के पैटर्न का. अपनी मातृभाषा में एक फिल्म ना बना सकें ना प्रमोट कर सके. प्रकाश झा भी उस सोच से पीड़ित हैं जहां वो भोजपुरी को नीचा देखते हैं. जहां वो ये सोचते हैं की भोजपुरी गंवारों की भाषा है. दूसरे सबसे बड़े अपराधी हैं बिहार का बुद्धिजीवी वर्ग जो अपनी मूंछ ऊंची रखने के लिए हिंदीमय हो गए और वो बिहार की अपनी भाषाओं को हीन देखते हैं.परिणाम ये हुआ की पूरा देश हम बिहारियों को हीन देखता है. मैं १३ राज्यों में रहा हूँ और ये मैं दावे के साथ कह रहा हूँ.

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ये एक मात्र भोजपुरी फ़िल्म है जो बिहार में बनी और इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल गोवा के लिए चुनी गई थी.

सरकार या बोर्ड को भाषाई फिल्म निर्माण को लेकर क्या प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए ?

सरकार भी तभी आती है जब वो देखती है कुछ लोग हैं जो अच्छा करना चाहते हैं. बहरहाल सिनेमा भारत सरकार की भी प्राथमिकता नहीं है. बिहार सरकार की प्राथमिकताएं मुझे समझ नहीं आतीं. पिछले 70 सालों में क्या किया हम लोगों ने पता नहीं. हर चीज़ में पिछड़े पड़े हैं, हारे हुए,थके से.बिहार की भाषा हिंदी नहीं है. बिहार की अपनी पांच भाषाएं हैं और सरकार इन भाषाओं को लेकर ना तो संवेदनशील है और ना ही उसकी कोई योजना है, और जिस राज्य का या समाज की भाषा गायब होती जा रही हो, साहित्य गायब हो चुका हो वहाँ पर सिनेमा की बात करना वैसा होगा जैसे बिना सत्तू लिट्टी बनाने की योजना. “भाषाई सिनेमा” भाषा का उत्पाद है. हिंदी सिनेमा ना तो बिहार कभी आया था और ना ही कभी आएगा. आज भी नालंदा जाइये तो 50 साल पुराने जॉनी मेरा नाम की बात करते मिल जाएंगे लेकिन कोई ये बात करते बिहार में नहीं मिलता की हमारे अपने सिनेमा का क्या हुआ ? पहली मगही फिल्म 1961 में बनी, भोजपुरी 1963 में और मैथिली 1965 में आई. लोगों को ये तक पता नहीं हैं कि सिनेमा के पचासवें साल में हैं. ना जनता को ना सरकार को ना पत्रकारों को.सोचिये अगर बंगाली सिनेमा का पचासवां साल होता तो क्या होता? सरकार को पहले भाषा पर काम करना चाहिए. स्कूलों में पांचवीं से लेकर बारहवीं तक भोजपुरी मैथिली और मगही भाषाओं को उनके क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से पढ़ाएं. भाषा में रोजगार खड़ा करें.जैसे मैंने अपनी दो फिल्मों के माध्यम से कुछ दिनों के लिए किया था और आगे भी करूँगा.
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बिहार के युवाओं को जो फिल्म निर्माण में जाना चाहते है उन्हें क्या -क्या तैयारी करनी चाहिए ?
भोजपुरी फिल्म निर्माण में तकनीक इस पर क्या कहेंगे आप ?

जो फिल्मों में युवा जाना चाहते हैं पहले वो अपनी मातृभाषा (जो की हिंदी नहीं हो सकती) उसको अध्ययन करें,ज़मीन और उसके रिवायत को समझें क्योंकि बिहार में कई भाषाएँ कई रस्म मुख़्तलिफ़ हैं एक दूसरे से.जमीं के लिए संवेदनशीलता पैदा करें और फिर वो सिनेमा बनाने का सोचें.

By pnc

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