महंगाई से बचाने वाला ” वैक्सीन’ कब होगा इजाद ?
‘बाजार में गर्मी जेब में नरमी’
बढ़ती महंगाई कम हो,सिकुड़ती आमदनी बढ़े
सुधि पाठकों, गुड मॉर्निंग,सुहानी सुबह हम सभी का स्वागत कर रही है. आलस मिटा हमारे पूरे शरीर में जोश, स्फूर्ति और शक्ति भर रही है.आइये, हम सभी सुहानी भोर का अभिवादन स्वीकार करें. नैन बिछाए, बाहें पसारे आज की सुबह बड़े प्यार से हमें आवाज दे रही है.. जागो, मोहन प्यारे, जागो ! जागो, उठकर देखो जीवन ज्योत उजागर है. वाकई, रात गई, फिर आयी नयी सुबह. ढेर सारी मुस्कराहट लिये, अथाह उमंग भरी ताजगी लिये. हमारी खुशी के लिए, हम पर मेहरबान होने के लिए, एक नयी ‘शुरुआत’ के लिए हमें ‘जागना’ ही होगा. ठंड भी अब नहीं, आहिस्ता-आहिस्ता साथ छोड़ रही है.वासंती बयार हिलोरे, मार रही है. करवट बदल रहा मौसम पूरी तरह अनुकूल है. वाकई, कितनी अच्छी है आज की सुबह! ऐसे में क्यों न पवित्र मन, पवित्र हृदय से ईश को नमन कर शानदार शुरुआत की जाए ताकि पूरा दिन, रात इतना बेहतर बीते कि हम ‘तर’ हो जाएं.
दोस्तों, दिल का भूले नहीं तो खुलकर कहें अपनी बात. कोई सुने, न सुने. परवाह नहीं. मैं हूँ ना! ‘हमारी-तुम्हारी कहानियाँ’ कहने- सुनने वाला. मन की गांठे खोल सुनाइये दिल की बात. हर वह बात जो अनिवार्य लगे, अवश्य कहें. वैसी सभी बातें भी बेझिझक सुना ही दें जिसे कह देने को आपकी तबीयत मचलने लगे. सुनने-सुनाने लिए ही तो मैं हूँ. हर कदम हर मोड़ पर पायेंगे मुझे,सदा देता, सदा लेता मिल ही जाऊँगा मैं.
प्यारे दोस्तों, आपका यही मसला है न… कोरोना काल में कैसे जिंदा रहे? कैसे चले आर्थिक ‘चक्का’ ? अब तक तो ‘बहुत कुछ गंवा जैसे-तैसे सलामत रह लिए आगे क्या होगा ! कैसे गुजर होगा बढ़ती जा रही महंगाई में, सीमित होती जा रही आमदनी में.
टेंशन ही टेंशन! न दिन को चैन, न रात को आराम.| सोते जागते, उठते-बैठते बस एक यही फ़िक्र. कोरोना, कोरोना, कोरोना ! कब खत्म होगा इसका रोना. कितना कुछ बदल डाला है इस काल ने. कुछ भी पहले जैसा सहज नहीं रहा. न मिलना जुलना सहज रहा, न हाथ मिलाना. न कोई महफिल पहले जैसी रही, न हाट-बाजार. बस, जब कहीं निकलो चेहरे पर मास्क लगाकर निकलो, शारीरिक दूरी बनाकर भीड़ में चलो. ये क्या हो गया, ये कैसे हो गया. हम सभी साक्षी है इस बदलाव के. पीढियां दर पीढियां प्रभावित होंगी इस अनचाहे बदलाव के कारण.
महंगाई तो पहले भी कम जुल्म नहीं ढा रही थी, कोरोना काल में सातवें आसमान से भी ऊपर जा पहुंची. आमदनी तो बढ़ नहीं रही, जरुरतें जरूर बढ़ती ही जा रही है. खर्चे भी रुकने का नाम नहीं ले रहे. कैसे चलेगी गृहस्थी, कैसे कटेगा ब्रह्मचर्य. रोटी , कपड़ा और मकान के बिना ना पहले कोई रह सका, ना आज के ‘फास्ट’ तरक्की की ओर मेरे कदम बढ़ाते जमाने में. उस पर कयामत यह कि कोरोना काल पीछा ही नहीं छोड़ रहा. कोरोना काल, महाकाल, जालिम काल, आफत भरा काल, मौत का सौदागर काल!
अब तो तीन बुनियादी जरुरते कुछ यूं बदल गयी… महंगी रोटी, महंगा कपड़ा और महंगा मकान.| ऐसे में चौथी, पांचवी बुनियादी जरूरत किसी की होगी हुआ करे. हमारी- आपकी तीन बुनियादी जरूरतें भोजन, वस्त्र और आवास किसी तरह पूरी हो जाएँ बस यहीं बहुत है. हमें और की चाह नहीं, कुछ और दरकार नहीं. कहीं रोटी, कपड़ा और मकान के भी लाले न पड़ जाए. यहीं डर है, चिंता है, परेशानी है. पहले ही महंगाई ने क्या कम जुल्म ढाए है, जो अब ‘महा महंगाई’ जान लेने पर आमादा है.
मौजूदा सरकार भले ही ना माने, कोई कारपोरेट घराना कितना ही नजर फेर ले. कितने भी धन कुबेर आकर बार-बार झुठलाते ही क्यों न रहें. इस सच को हरगिज नकारा नहीं जा सकता कि यह सिर्फ महंगाई का सितम नहीं, ‘महा महंगाई’ का वह जानलेवा प्रहार है जो हमारी मौजूदा जिंदगी को तहस-नहस कर रहा है. अपने ‘चक्रव्यूह’ में हमें जकड़ इसने हमारा जीना दुश्वार कर दिया है. इसकी मार से बचाने का कोई “वैक्सीन” क्यों कोई इजाद नहीं करता! ‘महा महंगाई’ का सामना करने के लिए क्यों कोई किसी ‘इम्युनिटी’ की बात नहीं करता ‘बाजार की ‘गरमी बढ़ती ही जा रही है, पाकेट की ‘गरमी’ नरम पड़ती जा रही है.
हर आम, खास की एक ही समस्या… एक ही मांग. बढ़ती महंगाई कम हो, सिकुड़ती आमदनी बढ़े. मगर कैसे, कोई उपाय है ? कहीं कोई आस नहीं, कोई राह नहीं. महान शायर मिर्जा गालिब ने अपने जमाने में एक गजल की रचना की थी, जिसकी पंक्ति है ‘कोई उम्मीद नजर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती’ गालिब की ये पंक्ति आज की जिंदगी गुजार रहे हर शख्स’ हर व्यक्ति के मौजूदा हालात से खूब मेल खा रही है. है, ना .
दोस्तों, क्या ऐसा नहीं लगता कि महंगाई का रोना’ होते हुए भी इसके खिलाफ कोई रीयल आवाज, आम आवाज कहीं से नहीं उठ रही. अपने-अपने एजेंडा वाले तथाकथित आज के राजनीतिक दल चाहे लाख इसके खिलाफ बोलते हो,, यदा-कदा सड़कों पर ‘विरोध प्रदर्शन करते हैं. जिस तरह कभी डीजल-पेट्रोल, कभी रसोई गैस तो कभी यूरिया खाद की बढ़ती कीमतों को लेकर नारेबाजी करते नजर आया करते हों. अगर ऐसा क्या खास है, ऐसी क्या मजबूरी हैं जो मौजूदा व्यवस्था के ‘जनक’ पर इसका कोई असर नहीं पड़ता. ना उनके ‘काम’ पर जूँ रेंगती है, ना उनकी ‘सेहत’ पर आफत आती है. उनका ‘व्यापार तो फलता जा रहा है, फूलता जा रहा है. वाकई, यह सोलह आने सच है.कुछ नहीं बदलने वाला, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. महंगाई ना कभी कमी हैं, ना कभी कमेगी. इसके कम होने की आस हमें छोड़नी ही होगी, क्योंकि यह नक्कारखाना है, इस नगरी में तूती की आवाज भला कौन है सुनने वाला ! कुछ और ही करना होगा कोई और विकल्प की बात करनी होगी. किसी नए मार्ग पर चलना होगा.
हां दोस्तों, एक ही विकल्प है कुछ नया करें. एक्स्ट्रा माइल्स कवर करने वाला नया प्लान गढ़ें. एक और लकीर खींच कुछ नया करें जो हम कर सकते हैं. खुद पर भरोसा रख, टाइम मैनेजमेंट के गुर सीख ऐसी नयी शुरुआत करें जिसमें कि आने वाले दिनों में बहुत जल्द ना सिर्फ हमारी आमदनी बढ़े, बल्कि अपना भविष्य भी सुरक्षित रख सके. अगर ऐसा हुआ तो हम हर बदलते बाजार के ‘स्टार’ बन अपना ही नहीं, औरों का भी भला कर सकेंगे. वैसे भी अपना भला हम खुद नहीं करेंगे तो और कौन है करने वाला. किसी अन्य से उम्मीद करना छोड़ अपना ‘स्टार्ट अप’ खुद शुरू करें वह भी देर किये बिना. इसे बखूबी समझने के लिए गणित के किसी ‘फार्मूले’ की तरह काम करने वाला एक सूत्र वाक्य प्रस्तुत कर रहा हूँ. मुझे यह सूत्र वाक्य एक ऐसी अनूठी पुस्तक में मिला जिसका नाम बेस्ट सीरीज की चर्चित पुस्तकों में दर्ज है. इस सूत्र वाक्य को अमल में लाकर बहुतों ने अपनी जिंदगी बेहतर बना ली. कोई भी इससे अपना फ्यूचर तक संवार सकता है.
हमारी, आपकी, हम सभी की मौजूदा कहानी में बदलाव लाने वाला सूत्रवाक्य है… “अगर आज भी हम वहीं काम कर रहे हैं जो करते आ रहे हैं तो परिणाम वही मिलेगा जो मिलता आ रहा है… इसे कुछ इस तरह से भी समझा जा सकता हेर अगर हमें परिणाम बदलना है तो हमें ‘वहीं’ काम करते रहने के ढर्रे में थोड़ी तब्दीली करें अपने पहले वाले काम कें साथ ही वह ‘अतिरिक्त’ काम भी करना होगा जो अब तक कभी नहीं किया, अथवा कम परिणाम देने वाले पुराने काम को छोड़ जल्द ही ज्यादा परिणाम देने वाला कोई ऐसा ‘नया’ काम शुरू करना होगा जिसमें आपकी ‘काबिलियत’ का शत-प्रतिशत निवेश हो ताकि आप हमेशा फायदे में रह सकें, आपका भरोसा, आपकी शाख मार्केट में बनी रहे.
जी हां, दोस्तों, इस शुरुआत से ना सिर्फ सीमित आमदनी देने वाली हमारी अपनी कहानी का कायापलट हो जायेगा, बल्कि ऐसी खूबसूरत कहानी के हम नायक बन जायेंगे जिस पर हर कोई गर्व करने लगेगा. हमारी नयी शुरुआत की शानदार उपलब्धि से हमारी आने वाली पीढ़ियां हमेशा प्रेरित होती रहेंगी. हमें आदर्श मान हम पर नाज करेंगी.
तो दोस्तों, आज की दास्तान बस इतनी ही. अगली बार ‘हमारी-तुम्हारी कहानियां’ में रू-ब-रू हो कुछ और शेयर करने तक के लिए आज विदा,
ऑल द बेस्ट ! बस चलते – चलते यही कहना है
कभी तो मिलेगी, कहीं तो मिलेगी बहारों की मंजिल राही…!
हिमांशु शेखर,वरिष्ठ पत्रकार