बिहार में पिछले डेढ़ साल से विकास के काम लटके पड़े हैं. सभी आयोग और बोर्ड में अध्यक्ष समेत सदस्यों के पद रिक्त पड़े हैं. ज्यादातर विभागों की राशि बिना उपयोग के सरेंडर हो रही है. शिक्षा, स्वास्थ्य समेत कई अहम मुद्दों पर आए दिन टकराव देखने को मिल रहा है.
दरअसल 2015 में चुनाव के बाद बने गठबंधन में शुरू से ही सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. ताजा विवाद एक बार फिर राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश सिंह के बयान पर हुआ है. रघुवंश सिंह ने कहा है कि केन्द्र की मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है. लेकिन रघुवंश इसी बात पर नहीं रुके. उन्होंने केन्द्र के साथ-साथ बिहार की महागठबंधन सरकार को भी नकारा बता दिया. रघुवंश ने कहा कि बिहार में महागठबंधन की सरकार ने पिछले डेढ़ साल में कोई काम नहीं किया है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि समय-समय पर रघुवंश और भाई वीरेन्द्र के बयानों से जदयू को असहज करने के पीछे और कुछ नहीं बल्कि प्रेशर पॉलिटिक्स है. महागठबंधन में सबसे ज्यादा विधायकों वाले राजद को हर वक्त ये डर सता रहा है कि कहीं नीतीश फिर से बीजेपी का दामन ना थाम लें. वक्त-बेवक्त केन्द्र सरकार का साथ देकर नीतीश भी राजद को लगातार दबाव में बनाए रखना चाहते हैं.
चाहे नोटबंदी हो, GST हो या फिर बेनामी संपत्ति पर कार्रवाई की बात. नीतीश ने खुलकर हर बार केन्द्र का साथ दिया. जब लालू पर बीजेपी के हमले हो रहे हैं तब भी जदयू और नीतीश शांत रहे. हाल में विपक्षी दलों की बैठक में भी नीतीश शामिल नहीं हुए और उसी दिन पीएम मोदी के साथ भोज और फिर मुलाकात के लिए चले गए. जाहिर है इन सबसे राजद की बेचैनी बढ़ती जा रही है.
पिछले कई महीनों से जारी उठापटक के बीच राजद और जदयू एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते. राजद एक ओर जहां विधायकों की संख्या ज्यादा होने के कारण गर्मी दिखा रहा है वहीं नीतीश कुमार वक्त-वक्त पर बीजेपी से अपनी नजदीकियां दिखाकर राजद पर दबाव बनाए रखना चाह रहे हैं. इन सबके बीच कांग्रेस तमाशा देखने को मजबूर है. रही- सही कसर सरोज यादव और मृत्युंजय तिवारी के अपनी ही सरकार के विरोध में किए आन्दोलन ने पूरी कर दी है.
अब जाहिर है, ऐसे हालात में, जब राजद के भाई वीरेन्द्र मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रहे और रघुवंश सिंह तो जैसे उनके पीछे ही पड़े हैं, नीतीश हर वक्त बीजेपी से अपनी नजदीकियां दिखाकर राजद को आइना दिखा रहे हैं. ऐसे में विकास का काम हो या फिर सामान्य कामकाज, सुचारू कैसे चल सकता है.
राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि सुशील मोदी जिस तरह से लगातार लालू को निशाना बना रहे हैं, उससे नीतीश के आगे कोई चारा नहीं बचा है. नीतीश की ऐसी चुप्पी पिछले कई सालों से देखने को नहीं मिली. सुशासन और भ्रष्टाचार रहित शासन का दंभ भरने वाले नीतीश कुमार की ये चुप्पी उनकी राजनीतिक मजबूरी बयां कर रही है. और इन सबके बीच बिहार एक बार फिर उल्टी गिनती के चक्कर में पड़ा है. जब तक राजनीतिक स्थिरता और स्टेबल सरकार नहीं होगी बिहार जैसे राज्य के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था आदि मसलों पर बेहतरी की चर्चा करना बेमानी है.