पंद्रह दिनों तक पितरों की पूजा-अर्चना का दिन पितृपक्ष, जिसे महालय व गरू दिन भी कहते हैं, में शास्त्रों के अनुसार 15 दिनों तक पूर्वजों का सम्मान सहित पूजन-अर्चन करना चाहिए.
पितृपक्ष में सूर्य दक्षिणायन होता है. शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दौरान श्राद्ध तृप्त पितरों की आत्माओं को मुक्ति का मार्ग देता है. कहा जाता है कि इसीलिए पितर अपने दिवंगत होने की तिथि के दिन, पुत्र-पौत्रों से उम्मीद रखते हैं कि कोई श्रद्धापूर्वक उनके उद्धार के लिए पिंडदान तर्पण और श्राद्ध करे लेकिन ऐसा करते हुए बहुत सी बातों का ख्याल रखना भी जरूरी है. जैसे श्राद्ध का समय तब होता है जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे. यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध करना चाहिए. सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है.
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन ऋण कहे गये हैं. देव, ऋषि और पितृ ऋण. इनमें से पितृ ऋण को श्राद्ध करके उतारना आवश्यक होता है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्यता और सुख-सौभाग्य की अभिवृद्धि के लिए अनेक जतन किये, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म लेना निर्थक होता है. वर्ष में एक बार श्राद्ध सम्पन्न करने और कौवा, कुत्ता, गाय को ग्रास निकाल कर ब्राह्मणों को भोजन कराने मात्र से ही यह ऋण कम हो जाता है. इस दौरान देव लोक पृवी लोक के नजदीक आ जाता है.
‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्‘ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) – भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है. धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है. मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है. पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है. प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है. सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है.
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है. पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है. ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है. 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं. इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है.
श्राद्ध दिनों को कनागत भी कहते हैं. इस पक्ष में मृतक पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है.
ब्राह्मणपुराण में लिखा है कि आश्विनी मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे अपनी संतानों तथा वंशजों से पिंडदान लेने के लिए धरती पर आ जाते हैं. सिंह और कन्या के सूर्य में पितृलोक धरती के अत्यधिक नजदीक होता है. इसलिए अश्वनी मास के कृष्ण पक्ष का नाम ‘कनागत‘ पड़ गया है.
श्राद्ध करने का अधिकार :
श्राद्ध करने का पहला अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को है. इनके जीवित न रहने पर अथवा ज्येष्ठ पुत्र की आज्ञा से छोटा पुत्र श्राद्ध कर सकता है. अगर मृतक के सभी पुत्र अलग-अलग निवास करते हैं तो सभी पुत्रों को श्राद्ध करना चाहिए. पुत्र के जीवित न होने की स्थिति में पौत्र, इन दोनों के जीवित न होने की स्थिति में प्रपौत्र को श्राद्ध करना चाहिए. मृतक के पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र न हो अथवा जीवित न हों तो ऐसी स्थिति में मृतक की पुत्री श्राद्ध कर सकती है. अगर वह भी न हो तो भतीजा श्राद्ध कर सकता है.
मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि मृतक की पुत्रवधू भी श्राद्ध कर सकती है. अगर किसी स्त्री के पुत्र न हो तो वह स्वयं भी अपने पति का श्राद्ध कर सकती है. अगर उपुर्यक्त में से कोई न हो तो बहन भी श्राद्ध कर सकती है. बहन के न होने पर बहन का पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है. मृतक का अगर कोई वंशज न हो और न ही सपिण्ड न ही सोदक हों तो उस देश के राजा द्वारा दाह संस्कार एवं श्राद्ध करने का विधान पुराणों में दिया गया है.
पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है.
पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं. पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है. वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है.
यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं.
श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान :
शास्त्रों में बताए गए विधि-विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए. श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है.
1. श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल.
2. शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं. ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं. तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं.
3. सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं. इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है.
4. रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं.
5. आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए.
6. केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है.
7. चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं.
जय श्री महाकाल
सौजन्य – पंडित अजय दुबे जी, उज्जैन.