नहाय खाय के साथ शुरू हुआ जीवित्पुत्रिका जीउतिया व्रत
जीउतिया का पारण शनिवार को सुबह 6:59 के बाद
आदिकाल से भारतवर्ष अपनी संस्कृति और परंपराओं के लिए पूरी दुनिया में विख्यात रहा है और हम बड़े गर्व के साथ कह सकते हैं कि इस आधुनिक युग भी वे परंपराएं हमारे जीवन में रची-बसी हैं.हमारे देश में भक्ति और उपासना का सबसे महत्वपूर्ण रूप उपवास है. विशेषकर हमारी माताएं-बहनें विशेष अवसरों पर उपवास रहकर अपने परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं.उन्हीं विशेष व्रतों में एक है जीवित्पुत्रिका.लोकजीवन में जिउतिया के नाम से विख्यात ये व्रत संतान की मंगल कामना के लिए किया जाता है. जिउतिया के दिन माताएं दिन-रात निर्जला रहकर अपनी संतान के दीर्घ जीवन की मंगल कामना करती हैं. इस व्रत का उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलता है. आश्विन महीने की कृष्ण पत्क्ष की सप्तमी से शुरू होकर नवमी यानी तीन दिनों तक चलनेवाला ये व्रत बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल में बड़ी ही आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है.
व्रत का तीन दिवसीय अनुष्ठान –
नहाय-खाय– यह व्रत का पहला दिन होता है.इस दिन व्रती स्त्रियां मड़ुआ की रोटी, नोनी का साग और सतपुतिया की सब्जी खाती हैं. आज के दिन कई विशेष पकवान भी बनाए जाते हैं. सबसे खास होता है शुद्ध घी में बना हुआ ठेकुआ जिसे अनुष्ठान पूरा होने के बाद संतान को खिलाया जाता है
खर जिउतिया– इस दिन व्रती स्त्रियां दिन-रात निर्जला उपवास रखकर पूजन करती हैं और कथा सुनती हैं.
पारण- 36 घंटे के उपवास के बाद व्रती महिलाएं पारण करती हैं. आज के दिन दाल, चावल, कढ़ी के साथ-साथ कई किस्म की सब्जियां, दही बड़े और पकौड़े आदि बनाए जाते हैं.
जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है-
गन्धर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन बड़े उदार और परोपकारी थे. उनके पिता ने वृद्धावस्था प्राप्त होने पर जीमूतवाहन को राजसिंहासन पर बैठाया और वन को प्रस्थान कर गए. इधर जीमूतवाहन का मन राज-पाट में नहीं लगता था. इसलिए उन्होंने राज्य का दायित्व अपने भाइयों को सौंप दिया और स्वयं पिता की सेवा करने वन चले गए.वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन वन में घूमते हुए जीमूतवाहन ने एक वृद्धा को वृद्धा विलाप करते हुए देखा. पूछने पर वृद्धा ने बताया कि वो नागवंशकी स्त्री है और उन्हें एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है और आज उसके पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है.जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त किया और कहा- डरो मत मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वध्य-शिला पर लेट गए.नियत समय पर गरुड़ और लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए. अपने चंगुल में जकड़े प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बडे आश्चर्य में पड गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड़ जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.आश्विन महीने के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.
महाभारत में वर्णित एक दूसरी कथा भी काफी प्रचलित है.
महाभारत युद्ध के बाद द्रोणपुत्र अश्वथामा ने द्रौपदी के पांच पुत्रों को पाण्डव समझकर उनका वध कर डाला. दूसरे दिन अर्जुन कृष्ण भगवान को साथ लेकर अश्वथामा की खोज में निकल पड़े. भीषण युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र और अर्जुन ने पाशुपतास्त्र का प्रयोग कर दिया. जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गयी. देवताओं के बीच बचाव के बाद अर्जुन ने अपना पाशुपतास्त्र तो वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा को अपना ब्रह्मास्त्र वापस लेने का ज्ञान नहीं था. अंत में उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया. लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर उत्तरा की रक्षा की.किन्तु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ बालक मृत था . जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने प्राण दान दिया । वही पुत्र पाण्डव वंश का भावी कर्णाधार परीक्षित हुआ। परीक्षित को इस प्रकार जीवनदान मिलने के कारण इस व्रत का नाम ”जीवित्पुत्रिका“ पड़ा.
पौराणिक कथाओं के साथ-साथ कई लोककथाएं भी प्रचलित
इनमें से एक कथा चील और सियारिन की है. प्राचीन समय में एक जंगल में चील और सियारिन रहा करती थीं और दोनों ही एक दूसरे की मित्र भी थीं. दोनो ने एक बार कुछ स्त्रियों को यह व्रत करते देखा तो स्वयं भी इस व्रत को करना चाहा.दोनों ने एक साथ इस व्रत को किया किंतु सियारिन इस व्रत में भूख के कारण व्याकुल हो उठी तथा भूख सही न गई. इस कारण सियारिन ने चुपके से खाना ग्रहण कर लिया किंतु चील ने इस व्रत को पूरी निष्ठा के साथ किया और परिणाम यह हुआ कि सियारिन के सभी जितने भी बच्चे हुए वह कुछ ही दिन में मर जाते तथा व्रत निभानेवाली चील्ह के सभी बच्चों को दीर्घ जीवन प्राप्त हुआ.
पंडित यू के मिश्रा