लेखक : गुंजन सिन्हा
जंगल गाथा पुस्तक के बारे में…..
यह गाथा है एक महाविनाश की – मेहनतकश मजदूरिन से वेश्या बनी बिरसी मुन्डाइन की, किसान से कैदी बने धनेसर उरांव की, तीन पीढ़ियों से विस्थापन झेल रहे सुघड़ खरवार की, बंजर बना दिए गए घनघोर जंगलों की, निरीह जंगली जानवरों की जो बिला वजह मारे गए, उन तितलियों की जो जंगली पगडंडियों पर गोल बना बैठती थीं, मंडल, कुटकू, कोयल, कोइना, हरया, कारो नदियों की.
……जंगल पुकारते हैं. कभी अपने नैसर्गिक स्पर्श से हमें स्वस्थ कर देने के लिए, कभी अपने घाव, कष्ट, अपना क्षत-विक्षत अस्तित्व दिखाने के लिए. ..
निजी अनुभवों और विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारियों पर आधारित यह किताब जंगलों और उनसे जुड़े मुद्दों की बात करती है, जैसे – जंगलों का नाश, जानवर, अविकास, अंधविश्वास, आदिवासी, नक्सल, आबो-हवा, विस्थापन, डायन-हत्या, प्रकृति का निर्मम दोहन और इन सब के बीच मानव मन को चंगा करने की जंगलों की जादुई शक्ति.
यह किताब उनके लिए है जिन्हें जिंदगी कोई भारी भरकम पुस्तक पढ़ने नहीं देती. उन्हें भी जंगल पुकारते हैं. यह पुकार कभी पिकनिक पर जाने की इच्छा के रूप में जगती है, कभी यूँही एक आवारगी जगाती है. इंसान के अन्दर यह खास आवारगी उसकी भटकन है, अपनी उदास रूह की तलाश में. आदिम इन्सान की रूह शहर और सभ्यता के रोजमर्रे में कहीं खो गई है.
इस पुस्तक को पढ़ कर आपको जंगल की याद आएगी. अत्याचारों का शोर सुनाई देगा और उसके बीच किसी कोयल की कूक, किसी आमापाको की हूक भी सुनाई देगी. और सबसे बढ़ कर सुनाई देगी, आपकी अपनी रूह की पुकार.
आप भी कह उठेंगे –
“अनंत तक फैली सृष्टि – ऊपर आसमान, नीचे धरती, चारो ओर जंगल, पहाड़ियों, बहती जा रही रजत जलधार – इन सबके केंद्र में मैं ही हूँ – मैं अकेला, सबका स्वामी. सबकुछ मेरे लिए है! मेरी प्रतीक्षा में है! अनंत काल से! ये पहाड़ियां, उनके बीच रुकी थमी सी यह नदी, ये दरख़्त, और यह क्षण – सब इस इंतज़ार में थे कि मैं यहाँ आऊंगा इन्हें देखने. मेरे ही इंतज़ार में पहाड़ियों के पीछे सूरज ठिठका हुआ है!”
पेशे से पत्रकार गुंजन समाज, अविकास एवं पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं. उनके कई लेख, शोध पत्र और कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं. स्त्रियों की स्थिति और उनकी आधुनिक नैतिक दुविधा पर केन्द्रित उपन्यास वेटिंग इन द वाइल्ड कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के अंग्रेजी स्नातकोत्तर सिलेबस में है.
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