विश्व रंगमंच दिवस के बहाने भारतीय रंगमंच और संस्कृत रंगमंच




संस्कृत रंगमंच की उत्पत्ति भारत में लगभग 3500 साल पहले हुई

ओपी पाण्डेय

भारत में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना है. ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ. ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं. इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं. अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ. यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया. भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है.

नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात् दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें. फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया. विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया आदि आदि. नाटकों का विकास चाहे जिस प्रकार हुआ हो, संस्कृत साहित्य में नाट्य ग्रंथ और तत्संबंधी अनेक शास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए और साहित्य में नाटक लिखने की परिपाटी संस्कृत आदि से होती हुई हिंदी को भी प्राप्त हुई. संस्कृत नाटक उत्कृष्ट कोटि के हैं और वे अधिकतर अभिनय करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे. अभिनीत भी होते थे, बल्कि नाट्यकला प्राचीन भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी, ऐसा संस्कृत तथा पानी ग्रंथों के अन्वेषण से ज्ञात होता है.

कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तो ऐसा ज्ञात होता है कि नागरिक जीवन के इस अंग पर राज्य को नियंत्रण करने की आवश्यकता पड़ गई थी. उसमें नाट्यगृह का एक प्राचीन वर्णन प्राप्त होता है. अग्निपुराण, शिल्परत्न, काव्यमीमांसा तथा संगीतमार्तंड में भी राजप्रसाद के नाट्यमंडपों के विवरण प्राप्त होते हैं. इसी प्रकार महाभारत में रंगशाला का उल्लेख है और हरिवंश पुराण तथा रामायण में नाटक खेले जाने का वर्णन है. इतना सब होते हुए भी यह निश्चित रूप से पता नहीं लगता कि वे नाटक किस प्रकार के नाट्यमंडपों में खेले जाते थे तथा उन मंडपों के क्या रूप थे. अभी तक की खोज के फलस्वरूप सीतावंगा गुफा को छोड़कर कोई ऐसा गृह नहीं मिला जिसे साधिकार नाट्यमंडप कहा जा सके.

भारत का आदिकालीन रंगमंच

सीतावंगा की गुफा के देखने से पुराने नाट्यमंडपों के स्वरूप का कुछ अनुमान हो जाता है. दर्शकों के लिए जो स्थान है, वह ग्रीक ऐंफीथिएटर की भाँति सीढ़ीनुमा है. यहाँ 50 व्यक्ति बैठ सकते हैं. यह आदिकालीन रंगमंच का स्वरूप भी ऊपर वर्णित विकसित स्वरूप से मेल खाता है. भरत नाट्यशास्त्र से भी हमें नाट्यमंडप के प्राचीन स्वरूप का संकेत मिलता है. आदिवासियों के मंडप गुफारूपी (शैलगुहाकारी) हुआ करते थे, किंतु आर्य लोग अपनी आश्रम सभ्यता के अनुरूप अस्थायी तंबूनुमा नाट्यमंडपों से ही काम चलाया करते थे.

भरत नाट्यशास्त्र पहली अथवा दूसरी शती ई. में संकलित हुआ समझा जाता है. भरत ने आदिवासियों तथा आर्यों दोनों के नाट्यमंडपों के आकार को अपनाया है. इन दोनों के सम्मिश्रण से इन्होंने नाट्यमंडपों के जो रूप निर्धारित किए, वे सर्वथा भारतीय हैं. प्राचीन यूनानी और रोमन स्वरूपों से इनका कोई संबंध नहीं प्रतीत होता. पाश्चात्य नाट्यमंडप खुले मैदानों में बनते थे और उनमें दर्शकों के हेतु सीढ़ीनुमा अर्धचंद्राकार प्रेक्षास्थान बनते थे. इसके विपरीत भारत में नाट्यमंडप की व्यवस्था एक गृह के भीतर होती थी. नाट्यशाला का प्राय: आधार भाग दर्शकों के लिए होता था, जिसे प्रेक्षागृह कहते थे; शेष आधे में रंगमंडप होता था.

भरत नाट्यशास्त्र में दिए हुए नाट्यमंडप के आकार प्रकार तथा सजावट से ऐसा ज्ञात होता है कि उस समय तक भारत के आदिवासियों के नाट्यमंडपों का प्राथमिक रूप, जो हमें सीतावंगा गुफा, हाथीगुंफा, तथा नासिक के पास फुलुमई गुफा में प्राप्त होता है, आर्यों के प्राचीनतम लकड़ी के मकानों के रूप में समन्वित होकर तथा दोनों के सम्मिश्रण से एक नया ढाँचा खड़ा हो चुका था. यही नहीं, नाट्यमंडप के रूप के विषय में नियम भी बन चुके थे तथा उनपर धर्म का नियंत्रण भी प्रारंभ हो चुका था. ये नियम इतने कड़े थे कि मापने की रस्सी टूट जाना तथा एक भी स्तंभ का दोषयुक्त होना, नाट्यमंडप के स्वामी के मरण का सूचक समझा जाने लगा था. भरत के समय तक भारतीय रंगमंच इस महान संसार का द्योतक माना जाने लगा था, जहाँ स्त्री-पुरुष प्रविष्ट होकर अपनी पूर्वनिश्चित लीला करते हैं तथा उसकी समाप्ति पर यहाँ से विदा लेते हैं.

वर्तमान भारतीय रंगमंच

आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य का इतिहास एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है. इस्लाम धर्म की कट्टरता के कारण नाटक को मुगल काल में उस प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला जिस प्रकार का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुगल शासकों से प्राप्त हुआ था. इस कारण मुगल काल में के दो ढाई सौ वर्षों में भारतीय परंपरा की अभिनयशालाओं अथवा प्रेक्षागारों का सर्वथा लोप हो गया. परन्तु राम लीला आदि की तरह लोक कला के माध्यम से भारतीय थिएटर जीवित रही अंग्रेजों का प्रभुत्व देश में व्याप्त होने पर उनके देश की अनेक वस्तुओं ने हमारे देश में प्रवेश किया. उनके मनोरंजन के निमित्त पाश्चात्य नाटकों का भी प्रवेश हुआ. उन लोगों ने अपने नाटकों के अभिनय के लिए यहाँ अभिनयशालाओं का संयोजन किया, जो थिएटर के नाम से अधिक विख्यात हैं. इस ढंग का पहला थिएटर, कहा जाता है, पलासी के युद्ध के बहुत पहले, कलकत्ता में बन गया था. एक दूसरा थिएटर 1795 ई. में खुला. इसका नाम ‘लेफेड फेयर’ था. इसके बाद 1812 ई. में ‘एथीनियम’ और दूसरे वर्ष ‘चौरंगी’ थिएटर खुले.

इस प्रकार पाश्चात्य रंगमंच के संपर्क में सबसे पहले बंगाल आया और उसने पाश्चात्य थिएटरों के अनुकरण पर अपने नाटकों के लिए रंगमंच को नया रूप दिया. दूसरी ओर बंबई में पारसी लोगों ने इन विदेशी अभिनयशालाओं के अनुकरण पर भारतीय नाटकों के लिए, एक नए ढंग की अभिनयशाला को जन्म दिया. पारसी नाटक कंपनियों ने रंगमंच को आकर्षक और मनोरंजक बनाकर अपने नाटक उपस्थित किए.

संस्कृत रंगमंच की उत्पत्ति भारत में लगभग 3500 साल पहले हुई

सदियों से, भारतीय सभ्यता के समृद्ध इतिहास के बीच गुफावासी स्थिर सभ्यता को अभी भी संरक्षित किया गया है, जबकि भारतीय रंगमंच के विकास की प्रक्रिया को एक व्यापक रूप दिया गया है. भारतीय रंगमंच का इतिहास जो गुफावासियों के साथ शुरू हुआ, ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में संस्कृत रंगमंच की शुरुआत के साथ एक यथार्थवादी समोच्च प्राप्त हुआ. वास्तविक रूप से, संस्कृत रंगमंच को भारतीय रंगमंच के पहले प्रतिनिधित्व के रूप में मान्यता दी गई है. दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के लंबे समय के युग में शुरुआत, संस्कृत रंगमंच तब धार्मिक और अभिजात वर्ग के भारतीय उत्साह को दर्शाने का एकमात्र माध्यम था. रंगमंच, जैसा कि भरत मुनि कहते हैं, तब “पुरुषों की नकल और उनके काम (लोका-वृत्ति)” नाट्य शास्त्र को तकनीक या बल्कि कला को विकसित करने का पहला प्रयास प्रतीत होता है, एक व्यवस्थित तरीके से नाटक का. सत्रहवीं शताब्दी तक संस्कृत रंगमंच अभिव्यक्ति का एक लोकप्रिय रूप रहा. अठारहवीं शताब्दी के दौरान, संस्कृत रंगमंच धीरे-धीरे प्रख्यात कला के रूप में विकसित हुआ और फिर “भारतीय शास्त्रीय नृत्य नाटक” के रूप में लोकप्रिय हुआ. शास्त्रीय भारतीय रंगमंच ने बाद में आधुनिक आकार हासिल करने के लिए कई बदलाव देखे. भारतीय रंगमंच के विकास के चरणों के आधार पर, भारतीय रंगमंच के इतिहास को वास्तव में तीन चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है: प्राचीन भारत में रंगमंच, मध्यकालीन भारत में रंगमंच और आधुनिक भारतीय रंगमंच.

प्राचीन भारत में रंगमंच ने सुदूर अतीत से भारतीय परंपरा, संस्कृति, कलात्मकता और रचनात्मकता के सभी संवर्धन में एक प्रमुख भूमिका निभाई. प्राचीन भारत में रंगमंच की उत्पत्ति “वैदिक आर्यों” के धार्मिक कर्मकांड के परिणामस्वरूप हुई है. प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार भारतीय रंगमंच एक जीवन आकार की कला थी; व्यावहारिक रूप से इसके दायरे से बाहर कुछ भी नहीं था. प्राचीन भारत में रंगमंच सिर्फ एक कलाकारी नहीं था, बल्कि “त्रिविधो शिल्पम नृत्म गीता वदितम च” (नृत्य, संगीत वाद्ययंत्र बजाना) का व्यवस्थित प्रतिनिधित्व था. संस्कृत में साहित्य की शुरुआत वैदिक युग से हुई और भारतीय रंगमंच का समृद्ध इतिहास इस तथ्य को मानता है कि संस्कृत नाटक भारतीय रंगमंच का पहला मान्यताप्राप्त प्रतिनिधित्व था. प्राचीन भारत में लागू कला रूप के शास्त्रीय प्रतिनिधित्व के रूप में नाटकों को बनाते समय दैनिक घटनाओं, अनुष्ठानों, परंपरा, नृत्य और संगीत के उदाहरणों ने संस्कृत नाटकों को चित्रित किया. हालाँकि वास्तव में बहुत अधिक कच्चे तरीके से संस्कृत रंगमंच की उत्पत्ति भारत में लगभग 3500 साल पहले हुई थी, फिर भी समय के साथ इसकी कलात्मक महिमा कभी फीकी नहीं पड़ी.

By pnc

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