यथार्थ चित्रण की भारतीय साहित्य में एक बहुत लंबी और महान परिपाटी रही है
अन्नी अमृता का लेखन आज की पीढ़ी को जोड़ने के साथ ही सहज आकर्षित करने वाला लेखन है
“मैं इंदिरा बनना चाहती हूं” अन्नी अमृता के द्वारा लिखी गई एक नई प्रस्तुति है जो अजिताभा पब्लिकेशन, नई दिल्ली के माध्यम से प्रकाशित हुई है . लेखिका की यह दूसरी पुस्तक है उनकी पहली किताब ” ये क्या है ” की महत्त्वपूर्ण दस्तक के बाद यह पुस्तक पाठकों के हाथ में है और सुर्खियां बटोर रही है . लेखन अमृता जी का पूर्णकालिक काम नहीं है . पत्रकारिता से जुड़े रह कर भी साहित्य की दुनिया में अपनी उपस्थिति इतनी दृढ़ता से दर्ज कराना प्रशंसनीय है . बतौर लेखिका पत्रकारिका और साहित्य दोनों कहानियां ही बताती है परंतु निर्मिति ही विधात्मक आधार को साकार करती है यह भी आधारभूत तथ्य है . ” मैं इंदिरा बनना चाहती हूं ” की बुनावट कच्चे, ताज़ा और ज़मीनी यथार्थ से हुई है जिस कारण कच्चेपन की सोंधी महक भी पूरी किताब में बिखरी पड़ी है . कहानियां बहुत कम होकर भी विषय की दृष्टि से बहुत विस्तार को अपने में समाए हुए है .
संस्मरणात्मक रूप कहीं कहानी से आगे निकल जाता है तो कहीं रेखाचित्र सा भाव लिए कोई चित्रण कहानी को टक्कर देता नज़र आता है . कहानियों की बुनावट में जो ढीलापन है वो यदि लेखिका का अपना चुनाव है तो यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है जिसकी सराहना की जानी चाहिए . परंतु बुनावट में विधात्मक तत्त्वों के बिखरने से कथावस्तु भी यत्र – तत्र अनचाहे पैर पसारने लगती है . लेखिका ने इन संभावनाओं को खारिज करते हुए अपने प्रयोग में सिद्धि पाई है . कहानियों से गुजरते हुए प्रकृतिस्थ आचरणानुसार नवांकुर के ऊपर विशाल बरगद की छाया विद्यमान है . कहानियों में समुच्चयात्मक रूप से निर्मल वर्मा के कहानियों की कथा योजना से ली हुई प्रेरणा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, तो कहीं मन्नू भंडारी तक रचनात्मकता अपनी दौड़ लगाती है .
पात्रों की बात करें तो समूचे पात्र लेखिका के स्वानुभव से निर्मित दीख पड़ते हैं , शायद इसीलिए लेखिका को अनेक जगहों पर घटनाओं के वर्णन में सहूलियत हुई है, जो पढ़ने के दौरान प्रवाहमयता में दिखता है . यथार्थ चित्रण की भारतीय साहित्य में एक बहुत लंबी और महान परिपाटी रही है जिसने रवींद्रनाथ, अज्ञेय, रेणु, पंत जैसे रचनाकारों के अथाह रचना संसार की निर्मीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है . निरुद्देश्य जीवनाकांक्षा की खोज, छटपटाहट और त्रासदी कई पात्रों को पिरोने में एक मजबूत धागे का काम करती है और इस माला निर्माण के कर्म में लेखिका ने कृष्ण के श्रृंगार सी सफलता पाई है . निश्चित तौर पर हम पेशेवर जीवन में किन भूमिकाओं से गुज़र रहे हैं उसके सापेक्ष हमारा जीवनानुभव कितना बड़ा है, उसका साहित्य निर्माण में ज़्यादा योगदान होता है .
साहिल, ललन, मोहन, किशन जैसे पुरुष पात्र जहां अपने नामों से ही हमारे सहज परिवेश का बोध कराते हैं, वहीं किसी उच्च आदर्श, ढोंग, स्वांग या नीतिशास्त्र का निर्वहन न करके आधुनिक यथार्थ जिंदगी को पूर्णतः प्रतिबिंबित कर देते हैं , जिसमें निश्चय ही आधुनिक कहानियों की सफलता के गुर छुपे हुए हैं . अन्नी अमृता के स्त्री पात्र भी आधुनिक कहानी के प्रतीकों, बिंबों एवं भाषा शिल्प को समुच्चयात्मक रूप से प्रस्तुत करने में सफल नजर आते हैं. स्वर्णा, स्नेहा, प्राची , राधा आदि पात्र लेखिका के इसी यात्रा यज्ञ में समिधा बनने का काम करते है .
निश्चित तौर पर लेखन के दौर में उभरते हुए कलमकारों को सराहा जाना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्यूंकि कल का लेखक आज के चित्रण को यथार्थ रूप नहीं दे सकता . साहित्य लेखन तो प्रकृति का पर्याय है जो उत्तरोत्तर परिवर्तन और क्षण – क्षण वसंत के स्वागत के लिए आतुर रहता है . तमाम समीक्षाओं, आलोचनाओं और वरिष्ठताओं के बावजूद भी स्थापित वर्ग को उभरते हुए नई पीढ़ी के कलमकारों से अपनी आत्मीयता स्थापित करनी ही होगी . अन्ना अमृता का लेखन आज की पीढ़ी को जोड़ने के साथ ही सहज आकर्षित करने वाला लेखन है . आज जब हम हिंदी के हिंग्लिश, प्रयोजनमूलक और तकनीकी अध्ययनों के प्रारूप पर विचार कर रहे हैं तब हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा की ” मैं इंदिरा बनना चाहती हूं ” जैसी रचनाएं और उनकी रचना शैली इस प्रारूप यात्रा की सारथी बनेगी . अन्नी अमृता को अग्रिम भविष्य की अनेकों शुभकामनाएं.
समीक्षा लेखिका : डॉ त्रिपुरा झा ,जमशेदपुर वीमेन यूनीवर्सिटी के बी एड विभाग की एच ओडी सह इग्नू की को -ऑर्डिनेटर
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