गौरवपूर्ण अध्याय जोड़ा इस अखबार ने
संसद में लहराई गईं साप्ताहिक अखबार मिथिलावासी की प्रतियां
क्षेत्रीय आकांक्षा को दी वाणी
संजय मिश्र,दरभंगा
मिथिला की आकांक्षा का प्रतीक है दरभंगा. सांस्कृतिक और बौद्धिक विमर्श का केंद्र. जाहिर ही क्षेत्रीय पत्रकारिता के लिए ये धरा उर्वर साबित हुई. विभिन्न भाषाओं में एक से बढ़कर एक प्रयास हुए. मोटे तौर पर एक या कुछ लोगों की सामूहिक जिद की बदौलत समय समय पर पत्रकारिता समृद्ध होती रही.मिथिला का केंद्र होने के कारण इस नगर ने मैथिली पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक मनीषियों के भागीरथ प्रयास देखे. लेकिन मैथिली की भावभूमि के बीच ही यहां हिंदी पत्रकारिता पुष्पित पल्लवित होती रही. ऐसा ही स्तुत्य प्रयास ‘मिथिलावासी’ के रूप में सामने आया.
आपको बता दें कि दरभंगा ट्विन सिटी है. इसका एक हिस्सा दरभंगा तो दूसरा हिस्सा लहेरियासराय कहलाता है. लहेरियासराय में ही पुस्तक भंडार नामक प्रकाशन संस्था थी. देश के प्रसिद्ध साहित्यकार राम लोचन शरण इसे चलाते थे. उन्होंने यहीं से हिंदी में इंडिया की मशहूर बाल पत्रिका – बालक – का प्रकाशन साल 1926 में शुरू किया. साल 1950 के बाद इस पत्रिका का प्रकाशन पटना से होने लगा.शिक्षाविद उमाकांत चौधरी ने भी प्रशंसनीय कोशिश की. लहेरियासराय से उन्होंने हिंदी साप्ताहिक अखबार मिथिलावासी शुरू किया. यह वो दौर था जब इसके प्रकाशन काल में देश में इमरजेंसी लागू हुई और रही. ऐसे समय पत्रकारिता का अलख जगाए रखना जोखिम भरा काम था. इसके लिए साहस की आवश्यकता थी. वो दौर जब देश के तमाम मेन स्ट्रीम अखबारों के संपादकों से झुकने को कहा गया तो वे रेंगने लगे थे. उमाकांत चौधरी खुद हिंदी के प्रोफेसर थे. कांग्रेस से सहानुभूति थी. लेकिन जब पत्रकारिता का उत्तरदायित्व सामने होता तो इस पेशे की बेसिक्स के साथ खड़े मिलते. यहीं उनकी जीवटता के दर्शन हुए.
संपादक, मुद्रक और प्रकाशक
उमाकांत चौधरी ही थे. लहेरियासराय के बलभद्रपुर मुहल्ले में दफ्तर. और लहेरियासराय के नव भारत प्रेस से मुद्रण. संपादकीय सहयोग एम ए हुसैन और शमीम सैफी देते. प्रोफेसर की नौकरी की वजह से जब तकनीकी अड़चन आई तो उमाकांत ने संपादक का जिम्मा एमएलसी रहे विनोद कुमार चौधरी को सौंप दिया. इस साप्ताहिक अखबार का पहला संस्करण साल 1974 के 18 फरवरी को आया. पीत पत्रकारिता के लिए मिथिलावासी ने नई शब्दावली दी. पीली पत्रकारिता. अखबार के संपादकीय में इसका उद्घोष है कि पीला चश्मा पहनकर चीजों को नहीं देखा जाएगा. स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार की गलती नहीं की जाएगी.
अखबार का ध्येय वाक्य है — किसी का दिल दुखाना हमारा धर्म नहीं है. इसे तफसील से बताते हुए कहा गया है कि आलोचना और निंदा में बड़ा अंतर है. हम इस अंतर को अच्छी तरह समझते हैं. आज के दौर में जब इस या उस खेमे के लिए एजेंडा से भींगी पत्रकारिता किए जाने के आरोप लग रहे हों मिथिलावासी का ये निश्चय आपको चौंकाएगा. आज के समय के इस तरह के खतरे से तभी आगाह किया गया था. दिलचस्प है कि ये अखबार अपने संपादकीय में साफ करता है कि उपलब्धियों की प्रशंसा न करने का अपराध हम नहीं करेंगे. ये कहना लीक से हटकर था. इसे आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि पीले चश्मे से देख कर समाज और सत्ता के बीच कमजोर पुल बनाना हमारा लक्ष्य नहीं. लोगों की महत्वाकांक्षा और तरक्की के लिए उठने वाले भारी कदमों के बोझ ( ऐसा पुल ) नहीं संभाल पाएगा.
संपादक उन्नति की आकांक्षा की चर्चा करते हैं. और यहां वे मिथिला की आकांक्षा को सामने लाते हैं. यानि उन्हें उत्कट उम्मीद थी कि मिथिला के लिए कुछ ठोस होगा. ललित बाबू जैसे बिहार के पहले विकास पुरुष के अवदान पर भरोसा दिखता है. अखबार के प्रकाशन काल में जगन्नाथ मिश्र भी सीएम रहे. जिन्होंने मिथिला सहित पूरे बिहार में इंडस्ट्रियल क्लस्टर निर्माण को गति दी. सीएम अब्दुल गफूर की छवि के अनुरूप राज्य चलने से स्थिरता आने का विश्वास जताता है ये अखबार. कहना मुश्किल कि ठोस होने का इशारा इन्ही कोशिशों की तरफ था.
मधुबनी से सीएम गफूर के उप चुनाव लड़ने और जीतने को विशद जगह मिली हुई है. प्रवेशांक 18 फरवरी 1974 में लीड खबर के रूप में इस उपचुनाव का विश्लेषण है. कुछ ही समय पहले क्रांतिकारी स्वाधीनता सेनानी सूरज बाबू की हुई हत्या से बिहार उबल रहा था उस समय.जब नाम ही मिथिलावासी हो तो सहज ही आपका ध्यान मिथिला के लिए इस अखबार की दृष्टि की तरफ जाएगा. उमाकांत चौधरी लोगों को भरोसा देते हैं कि उनकी आवाज मुखर होकर रखी जाएगी. संपादक के नजरिए को देखना बड़ा रोचक है. वे बिना लाग लपेट लोगों से संवाद करते दक्षता से व्यापक क्षितिज काखाका खींच देते हैं. शब्द रेखा चित्र की तरह झांकती है.
वे कहते हैं — ” हम मिथिला के हैं और मिथिला हमारा — इसमें कोई संदेह नहीं.मिथिला भारत का अंग है — इसमें कोई संदेह नहीं.आज के मिथिला की कुछ अपनी समस्याएं हैं — इसमें भी कोई संदेह नहीं.केवल बातों से समस्या हल नहीं हो सकती — इसमें भी कोई संदेह नहीं. और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि केवल चुप रहने से समस्या का कोई समाधान नहीं होगा.’मिथिलावासी’ केवल मिथिला का ही आईना नहीं होगा — अपितु आप उस आईना में संपूर्ण भारत और भारतवासियों की अपनी जो घरेलू, बाहरी, छोटी या बड़ी समस्याएं हैं और इस संबंध में क्या कुछ हो रहा है — और क्या कुछ हो सकता और क्या कुछ होना चाहिए — इसकी झलक भी देख पाएंगे.
वे आगे लिखते हैं — राष्ट्र एकता, समाजवाद, विश्व शांति, धर्म निरपेक्षता की बातें अच्छी लगती हैं लेकिन इनकी प्राप्ति हो इस प्रयास से कौन इनकार कर सकता है — हम भी नहीं कर सकते. हम पूरी ईमानदारी के साथ इस ओर मिथिला के कदम बढ़ाने की कोशिश करते रहेंगे.” इसी संपादकीय पृष्ठ में स्वाधीनता सेनानी रामनंदन मिश्र के विचार छापे गए हैं. उसे पढ़ना अखबार के दृष्टिकोण और उद्देश्य की समझ को बढ़ाता है. इसमें डुबकी लगाएं —
आंतरिक सच्चाई और उच्चता का महत्व स्पष्ट ही सर्वोपरि है. परंतु संसार के व्यवहार क्षेत्र में उतरने पर अनवरत याद रखना होगा कि बाहर का व्यवहार भी कुशल और योग्य हो. भूल की माफी अत्यंत निकट के महान साथी के पास मिल सकती है. परंतु संसार क्षमा नहीं करता. जाहिर सी बात है कि संसार या आमजन (पाठक) की पैनी निगाह इस अखबार पर रही. कई जीवित पुराने लोग बताते हैं कि स्तरीयता, लेखन शैली और प्रिंट से पहले अशुद्धि पर सजगता प्रशंसनीय रही. लेकिन कंटेंट में राजनीतिक खबरों या विश्लेषण के दौरान कांग्रेस के प्रति थोड़ा झुकाव रहता. ये स्वाभाविक था. उमाकांत कांग्रेस से जुड़ाव महसूस करते थे. लेकिन इस मानवोचित आग्रह को वे दुराग्रह में तब्दील नहीं होने देने के प्रति साकांक्ष रहते. उनके परिवार के पास संरक्षित हैं अखबार की प्रतियां. उन्हें पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि मिथिलावासी में पत्रकारिता करने के मौलिक तत्वों का खूब खयाल रखा जाता था.
गौर करें तो उमाकांत राजनीति, शिक्षा और मिथिला की उन्नति से जुड़े विषयों पर फोकस रखते थे. इसके अलावा समाज चिंतन और साहित्य को भी यथेष्ठ जगह मिलती दिखती है. मैथिली भाषा के साहित्यकार मोहन मिश्र कहते हैं कि मिथिला के विकास के लिए ये अखबार पक्षधर तो था लेकिन मिथिला राज्य निर्माण के लिए उठने वाले स्वर और उस अंडर करेंट की तपिश से सचेत दूरी रखी जाती थी. इसके लिए (अलग मिथिला राज्य के लिए) कोई विशेष पहल नहीं दिखी. शिक्षाविद थे उमाकांत. लिहाजा शिक्षा ज्यादा जगह पाती थी. गुणवतापूर्ण शिक्षा उपलब्ध हो तो ये समाज निर्माण और उन्नति के लिए उत्प्रेरक का काम करेंगे. उनकी ये समझ अखबार में स्पष्ट झलकती है. आलोचनाओं के बावजूद, इमरजेंसी काल में भी मिथिलावासी का प्रकाशन होते रहना दरभंगा के हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान का हकदार है. बेहद रोचक शब्दावली से आप गुजरते हैं. दरभंगा की जगह दरभंगे.. पटना के बदले पटने..महंगाई की जगह मंहगी.. आम चुनाव के बदले महानिर्वाचन.
और फिर चरितार्थता जैसे शब्द आपको मोहित करते. आप में उत्सुकता जगाते. एक तरफ भाषाई छटा तो दूसरी ओर लोगों की बोलचाल से निकलती ध्वनि से सना शब्द विन्यास. सघन सोच धारण करने वाले संपादक से ही ऐसा मोदक स्वाद मिले. ऐसे शब्दों के इस्तेमाल की परिपाटी अब सूख चुकी है. एमएलसी रह चुके विनोद चौधरी मिथिलावासी के आखिरी संपादक हैं. फिलहाल स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा. अखबार के संबंध में कुरेदने पर वे यादों में खो गए. आंखों में चमक आ गई. कह उठे अखबार का प्रकाशन बंद हुआ पर संपादक तो हूं ही. परिस्थितियां साथ दे तो मिथिलावासी को फिर से चलाना पसंद करूंगा.
मिथिलावासी के योगदान पर उन्होंने कहा कि रिजनल एस्पिरेशन को आवाज देना परम लक्ष्य था. वे कहते हैं कि उस दौर में दरभंगा से मातृवाणी और आग का दरिया नामक हिंदी अखबार भी चल रहे थे. लेकिन मिथिलावासी ने बड़ा मुकाम हासिल किया. यादों को टटोलते वे कहते हैं कि मिथिलावासी की प्रतियां संसद में लहराई गई. अखबार की लोकप्रियता का ये चरम था. किसी क्षेत्रीय अखबार के लिए ये सुखद क्षण होते हैं. मिथिलावासी का प्रकाशन 1974 से शुरू होकर साल 1980 के बाद तक हुआ. लेकिन आर्थिक तंगी से हमेशा जूझता रहा ये अखबार. लोग मिथिलावासी अखबार के अवदान को भूल चुके हैं. शोधार्थियों का ध्यान भी इधर नहीं जाता. पत्रकारिता में करियर बनाने वाले मिथिला के युव जन से उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस थाती में डुबकी लगाएंगे.