कविता
लोकतंत्र
लोकतंत्र में लोक भीड़ है
तंत्र नकेल है
भीड़ का सिर नहीं होता
तंत्र का दिल नहीं होता
तंत्र लोक का रस निकालने की मशीन है
तंत्र बीन है
बीन बजते ही लोक नागिन डांस करने लगता है
साहब डांस देखकर खुश होता है
संपेरे की जेब नोटों से भर देता है
संपेरा का रोम रोम खिल जाता है
खेल खत्म होता है
नाग टोकरी में डाल दिया जाता है
वह सरक कर सो जाता है
लोकतंत्र का लक्ष्य पूरा होता है.
–धनंजय कुमार