लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है.
छठ पर्व है सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान
लोक मातृ का षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी
वेदों में सूर्य को जगत का आत्मा कहा गया है. समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है. सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है.वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे. सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है. ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है. यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है. छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है. ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है. सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है. सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है. सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं. अत: कोई आश्चर्य नहीं कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है. पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी. बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का निर्माण हुआ. भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है. अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी. प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे. उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं. वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है.
छठ पूजा भगवान भास्कर की उपासना का पर्व है. सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवताओं में सूर्यनारायण यानी भगवान भास्कर प्रत्यक्ष देवता हैं. वाल्मीकि रामायण में आदित्य हृदय स्तोत्र के द्वारा सूर्यदेव का जो स्तवन किया गया है, उससे उनके सर्वदेवमय- सर्वशक्तिमयस्वरूप का बोध होता है. छठ पर्व सूर्योपासना का अमोघ अनुष्ठान है. कहते हैं इससे समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रु नष्ट होते हैं और संतान का कल्याण होता है.भैया दूज के दूसरे दिन शुरू होने वाले इस चार दिवसीय पर्व के बारे में मान्यता है कि पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है.
छठ की महत्ता और विज्ञान
छठ पर्व की परंपरामें बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है, षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगौलीय अवसर है. उस समय सूर्यकी पराबैगनी किरणें (ultra violet rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्यसे अधिक मात्रामें एकत्र हो जाती हैं. उसके संभावित कुप्रभावोंसे मानव की यथासंभव रक्षा करनेका सामर्थ्य इस परंपरा में है. पर्वपालनसे सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभावसे जीवोंकी रक्षा संभव है. पृथ्वीके जीवोंको इससे बहुत लाभ मिल सकता है. सूर्यके प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वीपर आती हैं. सूर्यका प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुंचता है, तो पहले उसे वायुमंडल मिलता है. वायुमंडल में प्रवेश करनेपर उसे आयन मंडल मिलता है. पराबैगनी किरणोंका उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्वको संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोनमें बदल देता है. इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वीके वायुमंडलमें ही अवशोषित हो जाता है. पृथ्वी की सतहपर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुंच पाता है. सामान्य अवस्थामें पृथ्वी की सतहपर पहुंचनेवाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है. अत: सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पडता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ ही होता है. छठ जैसी खगौलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वीके भ्रमण तलों की सम रेखाके दोनों छोरोंपर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतहसे परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रामें पहुंच जाती हैं. वायुमंडलके स्तरोंसे आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदयको यह और भी सघन हो जाती है.ज्योतिषीय गणनाके अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मासकी अमावस्याके छ: दिन उपरांत आती है. ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है.
पौराणिक और लोक कथाएं
छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं.
रामायण से एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा.
महाभारत से एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की. कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था. सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था. आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है.
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है. वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं. महाभारत में ही छठ को लेकर एक और कथा प्रचलित है. दरअसल कुंती पांच पुत्रों की माता थी और छठी माता के रूप में उन्हें कलंकित होना पड़ा था. माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए कर्ण ने गंगा में सूर्य को अर्घ्य देना शुरू किया, जिसके बाद भगवान भास्कर कर्ण के पास आए और अंग की जनता के समक्ष उन्हें अपना पुत्र माना. इस प्रकार कुंती की पवित्रता कायम रही और वो कुंवारी मां के कलंक से मुक्त हो गई. इस प्रकार मूल रूप से कलंक या आरोप से मुक्ति की कामना के लिए छठ का व्रत रखा जाता है. मिथिला क्षेत्र में तो इस प्रकार की भी धारणाएं हैं कि छठ के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से शरीर पर आए उजले दाग अथवा किसी प्रकार के चर्म रोग से छुटकारा मिल जाता है.
पुराणों से
एक कथा के अनुसार राजा प्रियम्वद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं. राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी.
लोक मान्यता
मान्यता है कि छठ देवी भगवान भास्कर की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या तालाब के किनारे अर्घ्य दिया जाता है. प्राचीन काल से ही इसे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता रहा है लेकिन आज इस प्रान्त के लोग दुनिया में जहां भी रहते हैं वहां इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाया जाता है. इस लोकपर्व का संबंध बिहार के उस क्षेत्र से है, जो इतिहास के किसी दौर में महान सूर्योपासक रहा है. यह संबंध पूर्वी बिहार अथवा प्राचीन ‘अंग’ प्रदेश से जोड़ा जा सकता है.
छठ पर्व को अगर हम धार्मिक दृष्टि से हटकर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो छठ पर्व हमें जीवन का एक बड़ा रहस्य समझाता है. छठ पर्व के नियम पर गौर करें तो पाएंगे कि छठ पर्व में षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य की पूजा करके उन्हें फल एवं पकवानों का अर्घ्य दिया जाता है. जबकि सप्तमी तिथि को उदय कालीन सूर्य की पूजा होती है. दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है.
वेद पुराणों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवतः इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी. संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है. बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं. इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें. यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है.
अगले अंक में पढ़े कैसे करें छठ पूजा …