मेरी बात -अनुभव सिन्हा
ऐसा भारत के ही लोकतंत्र में संभव है. सजा और जमानत के बीच सुप्रीम कोर्ट की अंतिम मुहर लगने तक सज़ायाफ्ता जेल से बहार रह सकता है. वह मतदान नहीं कर सकता, वह चुनाव नहीं लड़ सकता लेकिन किसी राजनीतिक दल का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष हो सकता है. यह छूट है किसी भी सज़ायाफ्ता को भारतीय लोकतंत्र में . यह ठीक है कि ऐसे कानून के जारी रहने के लिए हम कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दें, लेकिन कानून की कमी को दूर करने के लिए या कानून की लज़्ज़त को मौजूदा वक़्त के हिसाब से बनाये रखने के लिए किसी भी वक़्त केंद्र की सरकार को ही उम्मीद से देखा जाएगा. भाजपा पर सीधे तौर पर ऊँगली उठायी जा सकती है. लेकिन एक नैतिक पक्ष जो भाजपा के साथ मजबूती से जुड़ा है वह है देश का वर्तमान जो आज़ादी के बाद के अतीत की गिरफ्त में भी है.
कई गलत कानूनों के जारी रहने से अतीत की गिरफ्त को आज भी ढीली नहीं कह सकते. लेकिन जो सर्वमान्य सत्य है नैतिक ईमानदारी, उसकी ताक़त और आंच के सामने मानसिंह और जयचंद जैसे चरित्र नहीं टिक सकते. तो भाजपा से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह सुप्रीम कोर्ट से विचार विमर्श करे क्योंकि इसका निदान संसद से शायद ही निकले कि, अब समय आ गया है कि संविधान में जिस बात का जिक्र तक नहीं है और जिसके सहारे देश चल रहा है उसका जिक्र किया जाय. हमारे संविधान में राजनितिक दलों के गठन को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है. मुमकिन है उस समय की प्रचलित नैतिकता इसका आधार रही हो लेकिन आज तो उसमे सिर्फ दोष ही नज़र आते हैं. इस बात की उम्मीद करना कि क्षेत्रीय दाल ऐसे विचार का समर्थन करेंगे , इसका मतलब यह होगा की हमने आज़ादी के बाद से अभी तक कुछ नहीं सीखा. मोदी सरकार हर दिन के हिसाब से अनुपयुक्त, निरर्थक और ओब्सोलेट कानूनों को समाप्त करती जा रही है जिससे यह संकेत तो मिलता ही है कि हमने देश के प्रशासन को किस पैमाने पर कसा और उसे कितना भरोसेमंद और इज़्ज़तदार बनाया. यह सब तो कांग्रेस का ही किया धरा है. उसका खामियाजा देश को अब भुगतना पड़ रहा है……. तो इसमें भी सुधार होना चाहिए और हालात बताते हैं कि उसमे वक़्त लगेगा ! तब क्या कानून के गुनाहगारों को अपनी मनमानी करने के लिए छोड़ दें ?