अरविन्द कृष्ण की बातचीत पर आधारित …… लौंडा नृत्य में प्रयुक्त होने वाले गायन और नृत्य के कई तत्व लुप्त हो गए हैं । ये तत्व आज लोकमानस के दिलों दिमाग में हैं कई कलाकारों के पास है जो जीवित है या जिन्होंने इन नृत्य को देखा है।
इस विषय पर शोध आवश्यक जिससे आने वाली पीढ़ी को दिखा सके कि लौंडा नृत्य में इस्तेमाल में आने वाली बेशकीमती तत्व कौन से हैं ?…..’भोजपुर की कला संस्कृति में लोक का बहुत महत्व है जिसमें स्थानीयता का बोध होता है।बात लोक संगीत लोक नृत्य या लोक नाटक की करें तो कुछ काम हुए हैं पर अभी भी शोध परक कार्यों की आवश्यकता है जिससे भोजपुर और भोजपुरी के विशाल परिवेश में जन जीवन से जुड़े लोक तत्व आज विलुप्त होते जा रहे हैं वही लोक तत्व आज फिजी, सूरीनाम, मॉरीशस समेत कई देशों में प्रमुखता से तीज त्यौहार और अन्य अवसर पर देखे जाते हैं .इस कड़ी में एक प्रमुख शोध परक कार्य शेष रह जाता है जो अब तक अछूता है । भोजपुर भाषी विशाल इलाके में लौंडा नाच के जो मूल तत्व है वह समय के साथ धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है जिससे लौंडा नाच अब सिर्फ महज रोजी रोटी का जरिया बन कर रह गया है जिससे लोक तत्व खत्म होते जा रहे हैं जिन्हें सहेज कर रखना और उन तत्वों को आम लोगों के लिए रुचिकर बनाना है।
लौंडा नाच में पुरुष स्त्री का वेश भूषा धारण कर अपने कला का प्रदर्शन करता है उसकी कला क्यों विकसित हुई? गांव-गांव में घूम घूम कर शादी विवाह,जन्म उत्सवों में मनोरंजन करने वाले नर्तक अपने आप मे कई विधाओं के सिरमौर होते थे। उनके अंदर भाव सम्प्रेषण के साथ सुर और ताल की जानकारी होती थी। मंच प्रणाम,वंदना की बात करें या श्रृंगार की सबमें वे निपुण होते थे। कालांतर में लौंडा नाच एक सम्मानित कार्य होता था पर धीरे धीरे यह कला फिल्मों के गीतों के इर्द गिर्द घूमने लगी। लौंडा बने पात्र को लोग फिल्मी गीतों के बोल पर नृत्य करते देखने लगे जिससे लौंडा नाच की मूल कला लुप्त प्राय हो गई । लौंडा नाच के मूल तत्व उसकी गायकी और नृत्य दोनों ही खत्म होने लगे। जबकि इतिहास में भोजपुर की कला संस्कृति में इन दोनों तत्वों का बहुत महत्व रखता था जिसके बदौलत ही लौंडा नाच आज भी विदेशों में भी लोकप्रियता की दहलीज पर खड़ा है और लौंडा नाच अपने ही इलाके में उपेक्षा का शिकार है। पौराणिक आख्यान में भी पुरुष नर्तक द्वारा नृत्य की प्रस्तुति के कई उदाहरण मिलते हैं।
(पटना नाउ की प्रस्तुति)