अशोक कुमार सिन्हा लिखित ‘बिहार के पद्म श्री कलाकार’ पुस्तक का लोकार्पण
बिहार में पद्म सम्मान पाने वालों से मिले रविवार को
कलाकारों के जुटान के इस दुर्लभ संयोग का साक्षी बनिए
समाज सेवा, राजनीति, चिकित्सा, पर्यावरण, खेल, रंगमंच, संगीत और लोक कला के महारथी
विमलेन्दु सिंह
पटना: आगामी सात जुलाई, 2024 दिन रविवार को अशोक कुमार सिन्हा जी की पुस्तक ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ का लोकार्पण होने जा रहा है. बिहार म्यूजियम, पटना लोकार्पण स्थल रहेगा. निमंत्रण-पत्र संलग्न है. यह आयोजन मेरे लिए व्यक्तिगत खुशी का पल होने वाला है. व्यक्तिगत इसलिए कि कला जगत से जुड़े लोगों के बारे में जानना, उनसे मिलना, बातें करना मेरा प्रिय शगल रहा है. पेशेवर तौर पर और साथ -साथ निजी अभिरुचि के तौर पर भी. पत्रकारिता के शुरुआती दौर से ही. इस पुस्तक में वर्णित कई कलाकारों से मिलने और बातचीत करने का मौका भी मुझे मिल चुका है. यह मेरे लिए व्यक्तिगत संतुष्टि की बात है.
एक बात और स्पष्ट कर दूं. प्रकाशन के पूर्व ही मुझे इस पुस्तक की पांडुलिपि पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था. लेखक के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है तो उनके आदेश की मैं अवहेलना नहीं कर सकता था. तो प्रकाशन के पूर्व ही पूरी पांडुलिपि पढ़ डाली. तो पुस्तकाकार लेने से पूर्व ही यह पुस्तक मेरे दिल में रच बस-सा गया है. इसलिए यह पोस्ट लिखते हुए समझिए कि मैं अपनी व्यक्तिगत खुशी का इजहार कर रहा हूं. और एक तरह से आपको निमंत्रण भी दे रहा हूं कि इस पुस्तक के लोकार्पण समारोह में भी आने का वक्त निकालें.
आप आने का वक्त निकाल पाएंगे तो कई पद्मश्री कलाकारों को प्रत्यक्षतः देख और सुन पाएंगे. विभिन्न कला विधाओं के दिग्गज कलाकारों का ऐसा एकत्रीकरण किसी खगोलीय घटना सदृश ही कोई दुर्लभ संयोग होता है. कला और कलाकार में अगर आपकी थोड़ी भी अभिरुचि है तो कलाकारों के जुटान के इस दुर्लभ संयोग का साक्षी बनिए. आइए. पधारिए. आपको खुशी मिलेगी. मुझे यकीन है.
वाकई खुशी की सीमा का कोई पारावार नहीं रहता जब बिहार के किसी व्यक्ति के नाम की घोषणा पद्म श्रेणी के किसी सर्वोच्च सम्मान के लिए की जाती है. तकरीबन प्रत्येक साल कई एक व्यक्तियों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री जैसे सम्मानों से सम्मानित किए जाने के लिए उनके नामों की घोषणा होती है, फिर तय तिथि को समारोहपूर्वक वे सम्मानित भी किए जाते हैं. ऐसे नाम विविध क्षेत्रों से जुड़े हो सकते हैं. समाज सेवा, राजनीति, चिकित्सा, पर्यावरण, खेल, रंगमंच, संगीत और लोक कला आदि.
सभी अपने क्षेत्र के दिग्गज ही होते हैं. एक से बढ़कर एक. लेकिन कला और संस्कृति से जुड़े किसी व्यक्ति को सबसे ज्यादा खुशी तब होती है जब कोई कलाकार इस सम्मान के लिए चुना जाता है. अशोक कुमार सिन्हा की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ विभिन्न विधाओं में ख्यातनाम पद्मश्री प्राप्त कलाकारों को समर्पित है. अशोक कुमार सिन्हा जी अभी बिहार म्यूजियम, पटना में अवर निदेशक के पद पर आसीन हैं. विभिन्न विषयों पर उनकी अबतक छत्तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. और अनेक पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. कई रचनाकर्म के मध्य में हैं जो आने वाले वक्त में पाठकों के हाथों में होंगी.
अशोक कुमार सिन्हा जी पूर्व में बिहार खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी और उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के निदेशक के तौर पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं. जाहिर है कला, कलाकार, बुनकर, शिल्पकार, चित्रकार, मूर्तिकार आदि से इनके ताल्लुकात ज्यादा रहे हैं. और जिनसे आपके ज्यादा ताल्लुकात रहते हैं आप उनके जीवन और कर्मक्षेत्र में भी अभिरुचि लेने लग जाते हैं. यकीनन अशोक कुमार सिन्हा जी के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा, मैं यह दावा कर सकता हूं.
इस पुस्तक को सिन्हा जी के कलाकारों से संपर्क, संबंध और सरोकार की ही एक परिणति समझिए. इस पुस्तक में जिन पंद्रह पद्म श्री से सम्मानित बिहारियों के बारे में उन्होंने लेखनी चलाई है, सभी के सभी कला संसार के दिग्गज हैं. इनमें उपेंद्र महारथी, श्याम लाल वर्मा जैसी बेहद ख्यातनाम हस्तियां शामिल हैं. वहीं कुछ बेहद ख्यातनाम तो नहीं लेकिन अल्पज्ञात भी नहीं हैं. सबसे बड़ी बात यह है जो मैं कहने की कोशिश कर रहा हूं, वह है उन कलाकारों की पृष्ठभूमि. उनका संघर्ष. उनकी जीवन यात्रा. जिन संघर्षों को उन्होंने जीया है, भोगा है और फिर जो मुकाम हासिल किया है, वह उन्हें प्रेरक शख्सियत बनाता है. निजी जीवन तो नितांत ही लो प्रोफाइल. सरलता और सादगी से भरा. लेकिन जिस काम से जुड़े हैं उसके दिग्गज, धुरंधर और महारथी.
इस पुस्तक में सर्वाधिक वर्णन चर्चित कला मधुबनी पेंटिंग, जिसे मिथिला पेंटिंग के नाम से भी जाना जाता है, से संबद्ध पद्मश्री पुरस्कृत बिहार के कलाकारों हैं. जगदम्बा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुन्दरी देवी, महासुन्दरी देवी, बौआ देवी, गोदावरी दत्त, दुलारी देवी, शिवन पासवान और शांति देवी कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने मधुबनी पेंटिंग को आंचलिक से वैश्विक पहचान दिलाने का काम किया. घर की अंधेरी कोठरी और मिट्टी की भित्तियों से मधुबनी पेंटिंग को कला संग्राहकों, आर्ट गैलरीज, संग्रहालयों और कलाकृति बाजार के मुकाम तक का सफर तय करवाया. यह सिर्फ और सिर्फ इन कलाकारों की संघर्ष और लगन की परिणति है.
मधुबनी पेंटिंग पारंपरिक तौर पर मिथिलांचल के ग्रामीण इलाकों की महिलाओं में प्रचलित लोक चित्र शैली है जिसे वे पर्व त्योहारों पर, शादी विवाह के अवसर पर और अपने मिट्टी की कच्ची दीवारों को सुसज्जित करने के लिए बनाया करती थीं. बनाया करती थीं, इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि यह अभी नारी वर्चस्व वाली कला है. हालांकि पुरुष भी इस कला में निपुण होते हैं. लेकिन पारंपरिक तौर पर यह कला महिलाओं से ही जुड़ी रही है. कच्ची मिट्टी वाले घरों के गोबर लीपे सतह पर अरिपन (रंगोली) बनाने की परंपरा है. विवाह के अवसर पर घरों में कोहबर बनाने की परंपरा है. इन चित्रों को फर्श और दीवाल से कागज पर उतरने में लंबा वक्त लगा.
मिथिला की महिलाएं चित्रकला में तो दक्ष थीं लेकिन इसके व्यवसायिक पहलू से उनका कोई परिचय नहीं था. उन्हें नहीं पता था कि यह आमदनी का जरिया हो सकता है और इसे बेचा भी जा सकता है. इसमें एक व्यक्ति भास्कर कुलकर्णी की क्या भूमिका रही, इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों से गुजरते हुए आप की ऐसी कई जिज्ञासाएं स्वत: शांत होती चली जाएंगी. बहरहाल मधुबनी पेंटिंग को जब बाजार मिला तो मधुबनी पेंटिंग की कला यूरोप, अमेरिका और एशिया के कई देशों तक जा पहुंची. बल्कि जापान में तो मिथिला म्यूजियम तक की स्थापना हो गई. मधुबनी के लोक चित्रकार जापान जाते हैं और कई कई माह गुजारकर और अच्छी खासी रकम कमाकर वतन वापसी करते हैं.
पारंपरिक तौर मधुबनी पेंटिंग दो जातियों तक ही सीमित रहा है. मैथिल ब्राह्मण और कायस्थ. कायस्थ में भी ज्यादातर कर्ण कायस्थ. मधुबनी पेंटिंग में दो शैलियां प्रचलित रही हैं. कचनी शैली और भरनी शैली. पारंपरिक तौर पर ब्राह्मण महिलाएं भरनी शैली और कायस्थ महिलाएं काचनी शैली की पेंटिंग करती रही हैं.
उच्च जातियों को यह बर्दाश्त नहीं था कि नीची जातियों की महिलाएं देवी-देवताओं और पौराणिक आख्यानों का चित्रण करें. फिर इसका जो निदान निकला उससे गोदना शैली प्रतिष्ठापित हुई. सच कहें तो जातीय विभेद के कारण मधुबनी पेंटिंग की एक नई गोदना शैली का जन्म हुआ और इसके साथ ही यह तथाकथित अस्पृश्य जातियों की मधुबनी कला से जुड़ने की तमन्ना पूरी करने का एक सशक्त माध्यम भी बना. लेखक ने विभिन्न अध्याय में इसकी उत्पत्ति और विकास को अपने तरीके से बताने की सफल कोशिश की है. गोदना शैली में काले रंग की प्रधानता होती है और देवी देवता, तंत्र, पौराणिक गाथाओं की जगह प्रकृति, सामुदायिक नायक, लोक देवता आदि पर केंद्रित तस्वीरें तैयार की जाती हैं.
इस पुस्तक में दुलारी देवी, शांति देवी और शिवन पासवान जी पर केंद्रित दो अध्याय हैं. शांति देवी और शिवन पासवान दंपति हैं. इन दोनों के साथ ही दुलारी देवी की भी जीवन गाथा मधुबनी पेंटिंग के साथ जुड़ी जातीय विभेद जैसी विद्रूपता और विसंगतियों का प्रकटीकरण है तो साथ ही जातीय सौहार्द्र और सामाजिक समरसता की भी गाथा है. लेकिन इसे देखने के लिए आपको अपना पूर्वाग्रहपूर्ण नजरिया बदलना होगा. और इस सौहार्द्र का भी इस्तेकबाल करने की हिम्मत जुटानी होगी.
दुलारी देवी जाति की मल्लाह हैं. मत्स्य आखेट और खेतों में मेहनत – मजदूरी जीवन – यापन का साधन रहा. व्यक्ति प्रतिकूलताओं से लड़कर कैसे जीवन की पथरीली राह को निष्कंटक बनाता है, दुलारी देवी का जीवन संघर्ष इसका सबसे सटीक उदाहरण है. लोगों के घरों झाड़ू-पोछा, बर्तन-वासन, चूल्हा-चौका से लेकर खेतों में रोपनी-कटनी और मेहनत-मजदूरी सब कुछ किया. लेकिन आंखों के सामने तो बस मधुबनी पेंटिंग बना रही महिलाओं की छवि नाचती थी. दिग्गज कलाकार महासुन्दरी देवी और कर्पूरी देवी आपस में जेठानी देवरानी थीं. उनके यहां दुलारी काम करने जातीं तो दोनों को पेंटिंग करते देखतीं. इनकी आंखों में एक सपना पलने लगा. मधुबनी पेंटिंग सीखने का, चित्रित करने का. लेकिन कहें तो कहें कैसे. कर्पूरी देवी और महासुन्दरी देवी, दोनों ने इनके सपनों को भांप लिया और मार्गदर्शन भी किया. दुलारी पर अपना खूब स्नेह लुटाया. आगे सफलता की कहानी तो असंभव को संभव बनने और बनाने की ही कहानी है जिसे हर किसी को अवश्य ही पढ़ना चाहिए.
शांति देवी और शिवन पासवान दुसाध जाति के हैं. दोनों पति पत्नी हैं. यहां उनकी जाति का जिक्र करने का एकमात्र मकसद जाति विशेष का होने की वजह से उनको हुई परेशानियों की ओर आपका ध्यान इंगित करवाना है. शांति जी बाल्यकाल से कुशाग्र बुद्धि थीं. उनको पढ़ने की काफी ललक थी. बड़ी जिद के बाद इनकी मां उन्हें स्कूल भेजने को तैयार तो हुईं लेकिन स्कूल में इनकी पढ़ाई की राह इतनी आसान नहीं रही. इनसे अछूतों जैसा व्यवहार होता रहा. यहां तक कि प्यास बर्दाश्त न कर पाने के कारण जब इन्होंने एक ब्राह्मण के कुएं से लेकर पानी पी लेने की ‘जुर्रत’ की तो न सिर्फ कुएं की उड़ाही करवा दी गई बल्कि इनकी मां की सरेआम पिटाई की गई और उन्हें जुर्माना भी भरना पड़ा.
लेकिन इस जातीय विद्रूपता का एक दूसरा पक्ष भी है जो समरसता का है. बालिका शांति की एक सहेली थी और वह ब्राह्मणी थी. इस ब्राह्मणी सहेली ही इनके पढ़ने लिखने का सपना पूरा करने का माध्यम बनी. कैसे? पुस्तक पढ़ेंगे तो भली भांति जान पाएंगे. जीवन में संघर्ष चलता रहा. शांति देवी को बाद में एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिली लेकिन विडंबना देखिए कि वह भी सामाजिक प्रतिरोध के कारण उन्हें नौकरी त्यागना पड़ गया. नर्स की नौकरी मिल रही थी लेकिन किसी कारणवश उसे ज्वाइन नहीं किया. पेंटिंग करने इच्छा बलवती हुई. सीखा भी. लेकिन सब कुछ आसानी से हासिल कहां होता है. पेंटिंग करने तक के लिए भी इन्हें और इनके पति शिवन पासवान को जिन सामाजिक दुश्वारियों से गुजरना पड़ा, उसका लेखक ने बड़ा हृदय स्पर्शी वर्णन किया है. कड़वा है, लेकिन सच है. हम सभी को इससे अवगत होना चाहिए. एक बात और. शांति देवी और शिवन पासवान को मां सरस्वती ने सुमधुर कंठ प्रदान किया है. दोनों राजा सलहेस की गाथा को जब गाकर प्रस्तुत करते हैं तो आप भाव-विभोर हुए बगैर नहीं रह पाएंगे.
गोदावरी दत्त मधुबनी पेंटिंग की पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं, वयोवृद्ध हैं और बेहद सम्मानित. विनम्र, सरल और मृदुभाषी इतनी की किसी को भी अपना प्रशंसक बना लें. गोदावरी जी 94 वर्ष की हैं और पुस्तक के लेखक पर स्नेह न्योछावर करती रही हैं. उंगलियां तो अब थोड़ी थक गई हैं लेकिन याददाश्त अभी भी बुलंद हैं. थोड़े दिनों तक मुलाकात न हो तो लेखक को उलाहना के साथ मिलने का बुलावा भेज देती हैं और लेखक उनके आदेश को टाल नहीं पाते और थोड़ी देर के लिए ही सही उनसे मिलने के लिए मधुबनी स्थित उनके गांव में उनके घर के चौखट को लांघ ही आते हैं. लेखक कहते हैं, कैसे न जाऊं? अपने जीवन में मैंने संबंध और स्नेह ही तो उपार्जित किया है. सोचिए, तो पलकें गीली हो जाती हैं.
गोदावरी दत्त अंतरराष्ट्रीय ख्याति की कलाकार हैं और देश विदेश में न जाने कितने कला गुण ग्राहकों के संग्रह को इनकी पेंटिंग समृद्ध कर रही होंगी. जगदम्बा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुन्दरी देवी और बौआ देवी मधुबनी पेंटिंग कलाकारों की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्होंने इस कला को सतह से सातवें आसमान तक के सफर की सारथी रहीं. इस कला को अपनी लगन, मेहनत और कल्पनाशीलता से व्यापक फलक प्रदान करने की सहभागी रहीं. देश विदेश में इस कला और अपनी कलाकृति को पहुंचाया. लोगों का प्यार और सम्मान पाया और नई पीढ़ी के कलाकारों की प्रेरणा स्रोत बनीं. उन्होंने तब संघर्ष किया जब न कोई साधन था और न कोई सहारा. आज नई पीढ़ी के कलाकारों को कम से कम वह संघर्ष तो नहीं करना पड़ रहा है. वैसे जीवन संघर्ष के बगैर भी होता है क्या? यह तो जीवन का हमसाया है. जब तक जीवन है तब तक संघर्ष है. हर पल, हर कदम. लेखन ने तमाम कलाकारों के जीवन संघर्ष के एक एक पहलू को इस पुस्तक में छूने और कुरेदने का प्रयास किया है. इसमें उन्होंने कितनी सफलता पाई है यह तो पुस्तक के पाठक तय करेंगे.
बिहार का एक और बहुचर्चित और लोकप्रिय कला है टिकुली आर्ट. बिहार में इसके कई नामी गिरामी कलाकार हुए हैं. इनमें से ही एक अशोक कुमार विश्वास हैं. इन्होंने न सिर्फ कला को समृद्ध किया है बल्कि कलाकारों की नई पौध का भी पोषण किया है. इस साल 2024 में ही अशोक कुमार विश्वास को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया है. जीवन के इक्यावन साल इस कला को समर्पित कर चुके हैं. बारह हजार से ज्यादा लोगों, ज्यादातर महिलाओं, को इस कला का प्रशिक्षण दे चुके अशोक कुमार विश्वास सही मायने में महिला सशक्तिकरण के सूत्रधार की भूमिका निभाई है. इस पुस्तक के लेखक ने अशोक कुमार विश्वास के बारे में बहुत ही सटीक टिप्पणी की है कि टिकुली कला इनकी जीवन दृष्टि बन गई है और कला की पूर्णता इनका पैशन.
बिहार के एक दिग्गज कलाकार हैं ब्रह्मदेव राम पंडित. स्टूडियो पॉटरी में एक ख्यातनाम. मूलतः बिहार के नवादा जिले से ताल्लुक रखते हैं. पिता और दादा गांव में कुंभकारी करते रहे और इन्होंने जेपी के सोखोदेवरा आश्रम से जुड़कर खानापुर, बेलगांव के विलेज पॉटरी इंस्टीट्यूट जाने और वहां अपनी कला को परिमार्जित करने का अवसर पाया और फिर पीछे मुड़ने की कभी नौबत नहीं आई. देश-विदेश में आर्ट शो, वर्क शॉप करते रहे. अपनी कला से कला संग्राहकों की नजर में कुछ इस तरह बस गए कि हमेशा के लिए न सिर्फ उनके कलेक्शन में बल्कि उनके दिलों में भी अपनी जगह बना ली. आज मुंबई में पत्नी, पुत्र और पुत्र-वधु के साथ पौत्र भी स्टूडियो पॉटरी में अपनी पहचान बना चुके हैं. पुत्र और पुत्र-वधु को विदेशों में सीखने का मौका मिला. मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज विमानपत्तन के टर्मिनल टू पर इनका आर्ट इंस्टालेशन इतिहास रचने वाला सृजन है.
ब्रह्मदेव जी कला जगत में पंडित जी के नाम से जाने जाते हैं. पंडित जी का जीवन संघर्ष जन-सामान्य के लिए किसी प्रेरक गाथा से कम नहीं. संघर्ष की पूरी कहानी तो आप पुस्तक पढ़कर ही आप जान पाएंगे. क्या आप ‘बावन बूटी’ कला से परिचित हैं? ज्यादातर लोगों को इसकी जानकारी नहीं होगी. यह बिहार में फली फूली कला है फिर भी पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि बिहारवासियों को भी पता नहीं इसकी कोई जानकारी होगी भी या नहीं. अगर इस कला के बारे में नहीं सुना है तो आप कपिल देव प्रसाद को भी नहीं जानते होंगे. यकीनन. और अगर आपने ‘बावन बूटी’ कला के बारे में सुन रखा होगा तो मुझे पक्का विश्वास है कि आप कपिल देव प्रसाद के नाम से अवश्य परिचित होंगे. दोनों एक दूसरे के पर्याय रहे हैं.
दरअसल ‘बावन बूटी’ बुनकरी कला है और नालंदा जिला का बासवन बिगहा इसका केंद्र हुआ करता था. बौद्ध देशों में ‘बावन बूटी’ वस्त्रों की बेहद मांग थी. ‘बावन बूटी’ बुनकरी कला ने तमाम उतार चढ़ाव देखे हैं. आज इसकी मांग पुनः बढ़ रही है लेकिन संरक्षण के अभाव में यह कला दम तोड़ रही है. इस कला को वैश्विक पहचान दिलाने वाले कपिलदेव प्रसाद भी आजीवन संघर्ष ही करते रह गए और आखिरकार इसी साल मार्च में पटना के एक अस्पताल में परलोक सिधार गए. किसी ने ‘बावन बूटी’ बुनकरी कला की सुधि नहीं ली. ‘बावन बूटी’ बुनकरी कला के उत्थान-पतन की कहानी का लेखक ने जितना बेहतरीन वर्णन किया है, आप पढ़ेंगे तो आपका जिज्ञासु मन इस कला के बारे जानने को और भी अधीर हो उठेगा.
प्रो. श्याम शर्मा की मूल पहचान तो एक छापा कलाकार और पटना कला महाविद्यालय के प्राध्यापक और प्राचार्य की रही है लेकिन वास्तव में प्रोफेसर साहब बहुआयामी प्रतिभा संपन्न कलाकार हैं. चित्र, रेखांकन, मूर्तिकला, रंगमंच, साहित्य सृजन हर विधा में सिद्धहस्त और निष्णात शख्सियत. इस पुस्तक के जरिए उनकी जीवन यात्रा से गुजरना आपके लिए बेहद रोचक और प्रेरक रहेगा. श्याम शर्मा जी श्याम की ही भूमि से ताल्लुक रखते हैं. जन्म से बृजवासी हैं. मथुरा में जन्म हुआ. लेकिन कर्मक्षेत्र मगध की भूमि रही. आज शर्मा जी जीवन के आठवें दशक को पार कर नवमें दशक के सफर पर हैं और दैव योग से ऊर्जा से ओत प्रोत और सक्रिय हैं, यह कला जगत के लिए हर्ष की बात है.
बिहार कला समृद्ध सूबा है. और मिथिला कला समृद्ध अंचल. मधुबनी पेंटिंग से इतर भी कई कलाएं हैं जिनमें अपार संभावनाएं हैं. अंग प्रदेश की मंजूषा पेंटिंग, मिथिला की सिक्की कला, सुजनी कला, पेपरमेशी कला, बटन कला और भी कई कलाएं. सुभद्रा देवी पेपरमेशी कला की सशक्त हस्ताक्षर हैं जिन्हें पद्मश्री प्राप्त हो चुका है. कहते हैं, जिद के आगे जीत है. सुभद्रा देवी ने भी जिद ठान लिया था कि बचपन में मां से सीखी कला को वाह आगे ले जाएंगी. उसे जीवन यापन का जरिया बनाएंगी. इस जिद ने उनके हुनर को परिमार्जित किया और उनकी कृतियों से कीर्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई. इतनी की भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया.
और अंत में बात उपेंद्र महारथी की. पुस्तक में इनका उल्लेख प्रथम अध्याय में ही है. मैं इन्हें नमन कर अपनी बात समाप्त करूंगा. मुमकिन है उपेंद्र महारथी के नाम से कई लोग परिचित हों लेकिन उनके नाम से परिचित रहने वाले भी उनके जीवन से परिचित होंगे, मुझे ऐसा नहीं लगता. दरअसल लोग उन्हें और उनके कामों को जान पाएं, इसकी कोई सार्थक कोशिश ही नहीं हुई है. उपेंद्र महारथी जन्म से उड़ीसा प्रांत के थे. हालांकि जब से वह पटना शहर से जुड़े हैं तब बंगाल से तो हम अलग हो चुके थे लेकिन उन दिनों उड़ीसा और बिहार एक ही प्रांत था. बात 1936 से पूर्व की है. 1931 में कलकत्ता के स्कूल ऑफ आर्ट्स से पांच वर्षीय शिक्षा प्राप्त कर प्रथम श्रेणी में उपाधि प्राप्त की और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े.
1932 में महारथी पटना आए और यहां की सरजमीं उन्हें इतनी रास आई कि फिर यहीं के होकर रह गए. तब लहेरियासराय (दरभंगा) का पुस्तक भंडार बिहार में साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था. बतौर चित्रकार वहां से जुड़े और फिर तो आगे जो हुआ, जो हासिल किया वह सब कला इतिहास के पन्नों पर दर्ज है और उसकी एक झलक आपको यहां उल्लेखित पुस्तक में भी मिल जाएगी. उनके नाम पर पटना में उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान स्थापित है. सुखद संयोग है कि पुस्तक के लेखक उक्त संस्थान की बतौर निदेशक लंबी अवधि तक सेवा की है साथ ही कला और कलाकार के प्रति अपनी संवेदना और सरोकार को जाग्रत करने में सफलता पाई है.
विमलेन्दु सिंह के फेसबुक वाल से साभार