त्रेता या फिर द्वापर युग की है ‘आरा की अधिष्ठात्री’ आरण्य-देवी ?
त्रेता युग मे गुरु विश्वामित्र सहित राम ने भी की थी देवी की पूजा
आरा, 10 फरवरी. भोजपुर जिले का मुख्यालय ‘आरा’ अपने ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धता के लिए गौरवशाली रहा है. अनेक ऐतिहासिक स्थल, और कहनिया इसके प्रमाण हैं. इसी में एक है आरण्य-देवी मंदिर, जिन्हें शहर ही नही बल्कि पूरे जिले की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है. दरअसल वर्तमान में भोजपुर जिले का मुख्यालय आरा, पहले शाहाबाद का मुख्यालय हुआ करता था, जो अब 4 जिलों में बंट गया है. लेकिन अगर कुछ नही बंटा तो वह है देवी के प्रति लोगों का आस्था, जो आज भी लोगों को एकजुट होने और गौरान्वित होने के लिए प्रेरित करता है. आइये जानते हैं क्यो माना जाता है इन्हें नगर की अधिष्ठात्री देवी? पटना नाउ की खास रिपोर्ट….
आरा नगर के शीश महल चौक से उत्तर-पूर्व छोर पर संवत् 2005 में स्थापित आरण्य-देवी मंदिर, नगर की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं. पुरातन काल में उक्त स्थल पर सिर्फ आदिशक्ति की प्रतिमा थी. इस मंदिर के चारों ओर वन हुआ करता था. ऐसा कहा जाता है कि पांडवो ने वनवास के दौरान अज्ञातवास आरा में बिताया था. जिसका प्रमाण वकासुर वध और बकरी गांव से मिलता है. अज्ञातवास के दौरान ही पांडवों ने आदिशक्ति की पूजा-अर्चना की थी. किवदंती है कि देवी ने युधिष्ठिर को स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि वह आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित करे. स्वप्न के बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने मां आरण्य देवी की प्रतिमा स्थापित की. वही कुछ किवदंती में यह भी माना जाता है कि देवी ने यह स्वप्न युधिष्ठिर को नही बल्कि भीम को दिया था और अगले दिन उन्हें जंगल से गुजरने के दौरान देवी की वही मूर्ति,जिसे स्वप्न में देखा था वह मिली. मूर्ति के मिलने के बाद पांडवों ने उसे स्थपित कर पूजा अर्चना की. उसी समय से आरण्य की देवी को आरण्य देवी के नाम से लोग जानने लगे.
कैसे पड़ा देवी का नाम आरण्य-देवी?
दरअसल आरा का नाम कई बार बदला. एकचक्रापूरी, आरण्य, आरा, जौनपुर और आराह जैसे कई नाम आरा का भले ही समय-समय पर हुआ लेकिन आरण्य और आरा दो नाम आज भी इसकी पहचान हैं. आरा का कालांतर में नाम आरण्य था. आरण्य का अर्थ होता है वन. कालांतर में यह क्षेत्र घने वन से घिरा था. घना वन ही इसकी पहचान थी. इसलिए इस क्षेत्र का नाम ही आरण्य था. चुकि यह देवी इसी आरण्य की अर्थात वन की थी इसलिए लोगों ने इस वन की देवी को ‘आरण्य-देवी’ का नाम दे दिया. बाद में आरा से चीरने वाली घटना के बाद इसे आरा के नाम से लोग जानने लगे और फिर देवी को भी अपभ्रंश रूप में ‘आरण्य-देवी’ से ‘आयरन-देवी’ माँ के सम्बोधन से सम्बोधित करने लगे.
त्रेतायुग में भी गुरू विश्वामित्र ने की थी देवी की पूजा
महाभारत काल ही नही बल्कि त्रेतायुग में भी इस देवी का था अस्तित्व. कहा जाता है कि जब गुरु विश्वामित्र बक्सर से जनकपुर धनुष यज्ञ के लिए भगवान राम, और लक्ष्मण के साथ जा रहे थे तो उन्होंने आरण्य देवी की पूजा-अर्चना की थी, जसका उल्लेख धर्मग्रन्थों में मिलता है. आरण्य-देवी के दर्शन के बाद ही सोनभद्र नदी को उन्होंने पार किया था.
यही नही ऐसा कहा जाता है कि द्वापर युग में यहाँ राजा मयूरध्वज राज करते थे. राजा मयूरध्वज दानवीर राजा थे. राजा के दान की परीक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ उनके दरबार मे पहुँचे और अपने सिंह के भोजन के लिए राजा से उसके पुत्र के दाहिने अंग का मांस मांगा. साथ ही शर्त यह रखा कि पुत्र को चीरते समय एक बूंद भी राजा और रानी के आंखों से आंसू नही गिरना चाहिए. जब राजा और रानी मांस के लिए अपने पुत्र को लकड़ी चीरने वाले ‘आरा’ से चीरने लगे तो आरण्य-देवी ने प्रकट होकर उनको दर्शन दिया. राजा की परीक्षा तो पूरी हुई ही, उनका पुत्र भी सही सलामत जिंदा हो गया. इस घटना ने इसे इतिहास में अमर कर दिया और आरण्य को लोग आरा वाकई इस घटना से याद करने लगे. बाद में देवी को पांडवों ने स्थापित किया और उसके बहुत समय के बाद मंदिर की स्थापना वर्तमान समय मे किया गया.
इस मंदिर में स्थापित बड़ी प्रतिमा को जहां सरस्वती का रूप माना जाता है, वहीं छोटी प्रतिमा को महालक्ष्मी का रूप माना जाता है. इस मंदिर में 1953 में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुघ्न व हनुमान जी के अलावे अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापित की गयी.
आरा से ओ पी पांडेय की रिपोर्ट