देखा मैं किसी विशाल प्राचीन मंदिर में हूँ. उसमे तमाम पुजारी नंगे हैं उनके यौनांग स्थाई रूप से उत्तेजित हैं. ऐसे ढेर सारे गोरे चिट्टे विशालकाय, सर घुटाए पुजारी जहाँ तहाँ बैठे गपिया रहे हैं. किसी को कोई एहसास नही कि वे नंगे हैं. उनमे से एक मुझे बाहर निकलने से रोक रहा है. मैं किसी तरह भाग आता हूँ तो देखता हूँ, मंदिर के बाहर बहती नदी के किनारे सड़क पर एक लड़की हांफती हुई बेतहाशा भागी जा रही है. नंग धड़ंग पुजारियों की भीड़ उसे पकड़ने के लिए दौड़ रही है. मेरी नींद खुल गई. पसीने से तर, और कंठ सूखा हुआ.. घडी में दो बज रहे थे. आखिर ऐसा दुःस्वप्न मैंने क्यों देखा. माजरा तुरंत समझ में आ गया यह असर था ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ का.
मैंने कल शाम अविनाश दास की यह कृति देखी थी. मुक्त नही हो सका हूँ और शायद जीवन भर मुक्त नही हो सकूँगा – फिल्म से, अनारकली से, अनगिनत अनाम नर्तकियों के अस्मिता विहीन अस्तित्व के एहसास से, अस्मिता के लिए अनारकली के संघर्ष से, दीमक खाये खम्भों वाले प्राचीन परम्पराओं के मंदिर से, इस मंदिर के तमाम नंगे पुजारियों से, मुझे गिरफ्त में लेने की उनकी साजिशों से, बदहवास भागती लड़कियों के बेचैन कर देने वाले बिम्ब से – मैं मुक्त नहीं हो सका हूँ और जीवन भर मुक्त नही हो सकूँगा. इस फिल्म के लिए अविनाश दास को और उनकी पूरी टीम को सलाम. फिल्म में सभी कलाकारों ने गजब का अभिनय किया है आखिरी दृष्यों में विद्रोही आक्रोश से भरा स्वरा का नृत्य, उसमे अभिरंजित अनारकली का दर्प अविस्मरणीय है. गीत के बोल और नृत्य-संगीत की गति में अनारकली की विद्रोही अस्मिता, उसकी भावनाओं का विस्फोट पूरी तरह व्यंजित हुआ है.
मैं फिल्मों का शौकीन रहा हूँ. सोचता था कि अविनाश दास बक बक ज्यादा करते हैं, पता नही कैसी फिल्म बनाई है. लेकिन अब कह सकता हूँ, इतनी अच्छी फ़िल्में मैंने बहुत कम देखी हैं. अक्सर ऐसा होता है, जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं उनकी क्षमता-प्रतिभा को महत्त्व तब तक नही देते जब तक उसे अमेरिका इंग्लैण्ड से सर्टिफेकट न मिले. मैं मानता हूँ, Avinash Das के बारे में मैं ऐसी ही गलत फहमी का शिकार रहा हूँ. ये भी आशंका थी कि आरा में आरा की अनारकली का टिकट शायद पहले दिन ना मिले. लेकिन दुर्भाग्य ! ऐसी जिन्दा फिल्म देखने के लिए सिनेमा हाल में बमुश्किल बीस लोग थे. फिल्म को जितना प्रचार मिलना चाहिए, नही मिला है. हर लिहाज से बेहद मनोरंजक होने के साथ फिल्म में व्यंग्य है, असरदार सन्देश है. एक आग है, लेकिन अभागी जनता को न तो आग की जरुरत है, न सन्देश की. उसे जरूरत है उन नंगे पुजारियों की जिन्हें मैंने अपने दुःस्वप्न में देखा है.
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गुंजन सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार