उषाकिरण खान के उपन्यास ‘गहरी नदिया नाव पुरानी’ का लोकार्पण
बिहार में जमीनी पत्रकारिता को लैंगिक दृष्टि से देखा जाना भी जरूरी
भारतीय नृत्य कला मंदिर, पटना में, किताब उत्सव का आठवां दिन
विषय : ‘बिहार की जमीनी पत्रकारिता के सवाल’
कला, संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार पटना के सौजन्य एवं तक्षशिला व पाटल संस्थाओं के सहयोग से भारतीय नृत्य कला मंदिर में राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित किताब उत्सव के आठवें दिन विभिन्न सत्रों का आयोजन हुआ. कार्यक्रम का पहला सत्र 3 बजे से 4 बजे तक आयोजित किया गया जिसमें ‘बिहार की जमीनी पत्रकारिता के सवाल’ विषय पर चर्चा हुई. इस सत्र में स्वतंत्र पत्रकार उमेश कुमार राय, इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े संतोष कुमार सिंह, इंडिया टुडे हिंदी के पत्रकार पुष्यमित्र, स्वतंत्र पत्रकार सीटू तिवारी बतौर वक्ता मौजूद रहे. इस सत्र में सूत्रधार की भूमिका स्वतंत्र पत्रकार सुधीर ने निभाई.
बिहार की जमीनी पत्रकारिता के सवाल विषय पर बोलते हुए उमेश कुमार राय ने कहा कि― “जब हम जमीनी पत्रकारिता के सवाल की बात करते हैं तो हमें इसके आर्थिक पहलुओं पर भी बात करनी होगी. मुझे लगता है कि फ्रीलांसिंग एक बेहतर विकल्प है जमीनी पत्रकारिता को जिंदा रखने का. हाल के समय में हमने देखा है कि फ्रीलांसरों ने कॉरपोरेट मीडिया घरानों के रिपोर्टरों से बेहतर काम किया है. क्योंकि उन्हें काम करने की आजादी मिली है, ऐसे में फ्रीलांसर को स्टोरी की सम्मानजनक कीमत मिलनी चाहिए, ताकि वे बेहतर काम कर सकें. उन्हें अधिक से विकल्प मिलना चाहिए ताकि वे स्टोरी पब्लिश करा सकें.”
वहीं सुधीर ने बताया कि डिजिटल प्लेटफार्म के कारण पत्रकारिता में अवसर बढ़े हैं, लेकिन मीडिया की साख पर नकारात्मक असर पड़ा है. बाजारवाद, टीआरपी, रिडरशीप की आपाधापी में कुछ पत्रकारों की कमाई तो बहुत अधिक बढ़ी, लेकिन जमीनी पत्रकारिता के लिए जगह संकुचित होती चली गई. पर्यावरण, आर्थिक विषमता, शोध-आविष्कार, आदि जरूरी मुद्दों को मीडिया में मुश्किल से हाशिये पर भी स्थान मिल पा रहा है. अब आम तौर पर देखा जा रहा है कि सरकार की विज्ञापन नीति के कारण खबरों को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है कि उनके मायने बदल जा रहे हैं. बिहार में ग्रामीण पत्रकारिता की स्थिति आर्थिक मोर्चे पर बहुत बदहाल है. वहीं, स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए बिहार के मीडिया हाउस में न के बराबर जगह बची है.” सीटू तिवारी ने कहा, ” बिहार में जमीनी पत्रकारिता को लैंगिक दृष्टि से देखा जाना भी जरूरी है. एक ऐसा समाज जो अपने मूल में ही सामंती है, वो अपने गाँव के जब एक महिला पत्रकार को कैमरा लेकर फोटो खींचते देखता है और बेधड़क बात करते देखता है, तो वो समाज कितना इस दृश्य के प्रति सहज होता है?” आगे उन्होंने कहा कि रिपोर्टर बेस पत्रकारिता अब लगभग समाप्त हो चुकी है. और महिलाओं के लिए बहुत मुश्किल है ग्राउंड रिपोर्टिंग. महिला पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जब आप चैलेंज लेंगे तभी समाज को अपने प्रति सहज कर पाएंगे. वहीं संतोष कुमार सिंह ने कहा कि― “आज जब तमाम सूचना आपकी मुट्ठी में है, जमीनी पत्रकारिता की उपयोगिता फिर भी कम न होगी. भले ही गांव और किसान मुख्यधारा की पत्रकारिता से गायब है लेकन जमीनी पत्रकारिता से जुड़े और शोधपूर्ण लेख अभी भी पढ़े जाते हैं. अभी भी जिस खबर का गहरा असर होता है वो तृणमूल पत्रकारिता के नमूने हैं. पी सेनाथ से लेकर जयदीप हार्दिकर से लेकर प्रियंका दुबे जैसे पत्रकारों की अहमियत हमेशा रहेगी.” पुष्यमित्र ने विषय पर बोलते हुए कहा कि जितने भी समाचार माध्यम हैं आजकल उन सबका मॉडल आर्थिक है. और सरकार सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है और इसलिए आप उसे नाखुश नहीं कर सकते. आगे उन्होंने कहा, अभी पत्रकारिता का दौर बहसों का दौर है.
हमारा शहर-हमारे गौरव ‘रामवृक्ष बेनीपुरी : कृतित्व स्मरण’
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में रामवृक्ष बेनीपुरी के कृतित्व को स्मरण किया गया. इस सत्र में वक्ता के रूप में राकेश रंजन और राजीव रंजन दास मौजूद रहे. राकेश रंजन ने बताया कि― “निराला ने कभी बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के लिए कहा था कि यह आदमी जनता के लिए लिखता भी है और जनता के लिए लड़ता भी है. यह बात रामवृक्ष बेनीपुरी के लिए भी उतनी ही सही है. स्वाधीनता सेनानी के रूप में वे लगभग नौ साल जेल में रहे. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक रहे. उन्होंने डेढ़ दर्जन पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें बालक, युवक, कर्मवीर, योगी, हिमालय तथा नई धारा जैसी ऐतिहासिक महत्त्व की पत्रिकाएँ शामिल हैं. उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, ललित निबंध, शब्दचित्र, संस्मरण, जीवनी, यात्रा-वृत्तांत, कविता, नाटक, बाल-साहित्य, राजनीतिक साहित्य–इन तमाम विधाओं में जमकर लिखा.” वहीं राजीव रंजन दास ने कहा― “राम वृक्ष बेनीपुरी जी लेखनी के एक हरफनमौला कलमकार थे. इनकी लेखनी की विविधता इसी से दिखती है कि कभी वह क्रांतिकारी पत्रकार की भूमिका में नज़र आते है और “इंकलाब” की लेखनी पर 6 मास की जेल की सजा भुगतते हैं तो कभी अपनी लेखनी से देश मे जमींदारी उन्मूलन से लेकर समता मूलक समाज और किसान के सवालों पर संघर्ष करते नज़र आते हैं. बेनीपुरी जी की लेखनी का ही एक दूसरा रूप यह है कि बेनीपुरी जी की लेखनी ने हमे बिहार में आज़ादी की लड़ाई से लेकर पहली प्रांतीय सरकार पर अंग्रेजों की कारस्तानी की आंखों देखी जानकारी मिली. साथ साथ समाजवादी आंदोलन, किसान आंदोलन के साथ साथ 1942 कि क्रांति और हजारीबाग जेल से पलायन और नेपाल के हनुमान नगर जेल ब्रेक की घटना की जानकारी मिली. ऐसे में हम बेनीपुरी जी को एक इतिहासकार भी कह सकते हैं. बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे बेनीपुरी जी. उनके शब्दचित्र-संकलन ‘माटी की मूरतें’ के रजिया, सरजू भैया, भौजी, बैजू मामा, बालगोबिन भगत और सुभान खाँ जैसे चरित्र हिंदी साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र हैं, जो मानव-मानव के बीच के आत्मिक संबंध-सूत्रों की पहचान कराते हैं. बालगोबिन भगत सच्चे संत हैं, क्योंकि सच्चाई और सादगी उनके लिए सबसे जरूरी चीजें हैं. सुभान खाँ सच्चे मुसलमान हैं, क्योंकि प्रेम और भाईचारे को वे सबसे ऊपर रखते हैं. इन दोनों के लिए इंसानियत जीवन का सबसे महान मूल्य है. आज के समय में, जबकि धर्म को विकृत किया जा रहा है, ये चरित्र हमें राह और रोशनी दिखाते हैं.”
अमर देसवा : उपन्यास का समकाल
कार्यक्रम के तीसरे सत्र में प्रवीण कुमार के उपन्यास ‘अमर देसवा’ पर अनीश अंकुर ने उनसे बातचीत की. प्रवीण कुमार ने बताया कि― “त्रासदी की व्यक्तिगत स्मृति सीमित होती है लेकिन जब वही त्रासदी सामूहिक हो तो उसकी स्मृति बड़ी गहरी और कालजीवी होती है. करोना पूरे भूमंडल की त्रासदी है और सारी की सारी सभ्यताएं अपनी तमाम जन कल्याण की दावेदारियों के बावजूद असफल रहीं कई बिंदुओं पर. खासकर हाशिए के समाज को लेकर. यह सामूहिक त्रासदी उस ऐतिहासिक अनिवार्य पाठ की तरह पढ़ा जाना चाहिए कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से निपटने के लिए सभ्यताएं कुछ ऐसा करें कि वह पुनः कलंकित न हों और जन कल्याण एवं लोकतांत्रिक समाज का दर्प खोखला न पड़े.” उन्होंने आगे कहा कि, गद्यकार का काम पुरानी अवधारणाओं को तोड़ना है. वहीं, कोरोना काल की त्रासदियों को रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया कि कोरोना काल में नागरिक अधिकारों का हनन हुआ था और मुझे लगा कि इस उपन्यास में इस घटना को दर्ज करना ज़रूरी था. तथा एक लोकतंत्र के भीतर अगर लोग आत्महत्या कर रहे हैं तो इसे मैं स्टेट फेलियर मानता हूँ.
वहीं अनीश अंकुर ने बताया कि ‘अमर देसवा’ कोरोना त्रासदी के बहाने समाज व सरकार के मध्य संबंधों की पड़ताल करने वाली महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति है. यथार्थ में घटने वाली घटनाओं को फैन्टेसी की सहायता से प्रवीण कुमार ने इसे दिलचस्प कृति बनाया है. कोरोना काल में हमारा भावनात्मक उथलपुथल का साहित्यिक दस्तावेज है ‘अमर देसवा.’ महमारी ने मनुष्य को अपनी मर्यादा कर एक मान्यवीय त्रासदी मुनाफे के कारबार में तब्दील होती जाती है, साधनहीन लोगों को मौत के मुंह में बड़े कैसे व्यवस्थित तरीके से धकेला गया है, मीडिया सहित सभी संस्थान इस काम में सहायक है इसे उपन्यासकार ने पकड़ने की कोशिश की है. प्रवाहमान भाषा में अंत तक उत्सुकता बनाये रखने वाली कृति है ‘अमर देसवा’ नवउदारवादी अर्थनीति के दौर में राज्य अपनी संविधान सम्मत जिम्मेवारियों से निर्णायक रूप से त्याग कर आम नागरिकों को निजी लुटेरी पूंजी तथा धर्म के अवैध गठजोड़ के भरोसे छोड़ चुका है.”
गहरी नदिया नाव पुरानी : लोकार्पण
कार्यक्रम के चौथे सत्र में उषाकिरण खान के उपन्यास ‘गहरी नदिया नाव पुरानी’ का लोकार्पण हुआ. लोकार्पण के बाद कुमार वरुण ने उषाकिरण खान और शिवदयाल से इस उपन्यास पर बातचीत की. उषाकिरण खान ने उपन्यास से रू-ब-रू करवाते हुए बताया कि― “गहरी नदिया नाव पुरानी उपन्यास सत्तर के दशक से शुरु होकर कोरोनाकाल में खत्म होता है. बडे बड़े परिवर्तनों का गवाह रहा समाज अब कैसा है? सियासत के क्या रंग है? प्राकृतिक आपदा से निपटने को कितने तैयार हैं? क्या गाँधी और जे पी के सपनों के भारत की ओर इन 75 साल मे सात कदम भी बढ पाये?” वहीं शिवदयाल ने कहा कि ‘गहरी नदिया नाव पुरानी’ उपन्यास में स्वातंत्र्योत्तर बिहार में दलितों के राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक सशक्तीकरण और ग्रामीण सत्ता संरचना में उनके पक्ष और हित में हुए परिवर्तनों का विश्वसनीय, प्रामाणिक और जीवंत चित्र प्रस्तुत किया गया है. उपन्यास की कथा स्वतंत्रता आंदोलन के उत्तरार्ध से आरंभ होकर आज के कोरोना-काल तक का कालखंड घेरती है. उपन्यास का नायक सुधीर हजारी समानता स्थापित करने के लिए पहले नक्सल आंदोलन से जुड़ता है लेकिन बाद में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अपील पर शांति और अहिंसा की राह पकड़ता है. उनके आंदोलन से जुड़ जाता है और आपातकाल में जेल जाता है. आपातकाल की समाप्ति और जनता पार्टी के गठन के पश्चात अवसर रहने पर भी वह सत्ता की राजनीति में नहीं पड़कर लोकनीति, अर्थात जनता की राजनीति का रास्ता पकड़ता है. अलग-अलग स्थानों पर रहकर सुधीर और पुनकला सामाजिक कार्यों से जुड़ते हैं, युवा शक्ति उनके साथ आती है और चीजें धीरे-धीरे बदलने लगती हैं. दलित जीवन में यह बदलाव शिक्षा के माध्यम से आता है. उपन्यास का शीर्षक अपने-आप में एक रूपक है जिसका आशय है कि परिवर्तन धीरे-धीरे, एक लय और गति में हो तो वही शुभ, सार्थक और स्थाई होता है, उतावली तो अनर्थ ही लाती है. यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति की जीवंतता का मूल मंत्र भी है.
दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई
कार्यक्रम के पांचवें सत्र में सुदीप ठाकुर की नई किताब ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’ पर अरुण सिंह उनसे बातचीत की. बातचीत में सुदीप ठाकुर ने बताया कि― “ऐसे समय जब हाल ही हमने आजादी मिलने के पचहत्तर साल पूरे किए हैं, यह देखना मौजू होगा कि यस सफर कैसा रहा. इसे देखने का तरीका और पैमाने अलग अलग हो सकते हैं. फिर भी, यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो 1970 का दशक काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है, जब देश ने अभूतपूर्व तरीके से हमारे लोकतंत्र को मिली चुनौतियों का सामना किया. दस साल इसी कालखंड पर केंद्रित है, जिसे इंदिरा गांधी का दशक कहा जाता है और बेशक यह जेपी का दशक भी था. आपातकाल यदि लोकतंत्र और नागरिक आजादी पर धब्बा था, तो इसी दौर में प्रिवी पर्स की समाप्ति और कोयले का राष्ट्रीयकरण जैसे साहसी फैसले भी लिए गए. इतिहास में भविष्य के लिए सबक छिपे होते हैं. हम आज देख सकते हैं कि हमारा देश आज वैसे ही सवालों का सामना कर रहा है, फिर नागरिक आजादी की बात हो या संसाधनों पर अंतिम व्यक्ति का हक. मुझे उम्मीद है कि दस साल उस दौर के साथ ही आज की सियासत को समझने में मददगार होगी.” वहीं अरुण सिंह ने कहा― “सुदीप ठाकुर जी की यह दूसरी शोधपरक किताब आजादी के बाद के 70 के उस दशक की है जिसे ‘इंदिरा गांधी का दशक’ भी कहा जा सकता है. ये ऐसे दिन थे जब इंदिरा गांधी ने एक एक कर कई ऐसे साहसिक फैसले लिए जिनका दूरगामी असर देश की सियासत, शासन पद्धति और देश की जनता पर पड़ा. इन फैसलों में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की समाप्ति, कोयले का राष्ट्रीयकरण और आपातकाल शामिल है. आपातकाल के बाद ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक नए सिरे से उभरा. अब जब निजीकरण के दौर की शुरुआत हुई है, इस किताब को पढ़ना और भी जरूरी लगता है. यह शोधपरक किताब न केवल जानकारियों से भरपूर है बल्कि इसे अत्यंत रोचक शैली में लिखा भी गया है.”
किताब उत्सव में सर्वाधिक बिकने वाली किताबें-
ठुमरी – फणीश्वरनाथ रेणु, काशी का अस्सी – काशीनाथ सिंह, पटकथा लेखन : एक परिचय – भगवती जोशी, विश्रामपुर का संत – आशुतोष शुक्ला, तमस – भीष्म साहनी, पेट रोग व्यवहारिक बातें – बृज किशोर अग्रवाल, दुनिया रोज बनती है – आलोक धन्वा, कितने चौराहे – फणीश्वरनाथ रेणु, एक दुनिया समानांतर – राजेंद्र यादव, सलाम – ओमप्रकाश वाल्मीकि, रतिनाथ की चाची – श्रीकांत, आदि शंकराचार्य: जीवन और दर्शन – डॉ. जयराम मिश्रा