मैं तो गज़ल हूं
खानाबदोश हैं, पीछे तराना छोड़ आए हैं
तुम सलामत रहो, कह के ज़माना छोड़ आए हैं
रुपए कमाने की चाहत ने घर से निकाला
पीछे बिलकता आशियाना छोड़ आए हैं
सिक्के आये हाथ तो चाहत हुई ख़र्चने की
भूल गए पीछे मकान पुरा छोड़ आए हैं
स्याह रातों में चलते सड़क पर एहसास हुआ
आंखों का काजल जाने कहां छोड़ आए हैं
न होगी अब तेरी और इबादत मुझसे
हम अपना पैग़मबर साड़ी में लिप्टा छोड़ आए हैं
जिन हाथों ने संभाला हमेशा लड़खड़ाते हुए
आज उन्हीं में दवा फिसलती छोड़ आए हैं
मैं तो गज़ल हूं, समेट लो सफ़ों में ‘रहबर’
लिखने को और फ़साना छोड़ आए हैं
आकाश कुमार गुप्ता मीडिया में काम करते है और कई गज़लें लिखी हैं और एक जिंदादिल इन्सान है .इनकी रचनाओं में घर -बार, परिवार, गाँव और दुनिया को देखने और कहने की अद्भुत क्षमता है .