भीमबेटका (मध्य प्रदेश) और कैमूर (बिहार) के प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों की तरह भोजपुरी पेंटिंग में भी रेखाओं और त्रिभुज की आकृतियों का प्रयोग खूब होता है। भोजपुरी पेंटिंग के कई प्रतीक चिन्ह वैदिक संस्कृति के रूपाकारों से भी मेल खाते हैं। शादी-ब्याह एवं पर्व-त्यौहारों के अवसर पर यहाँ के लोग मिट्टी से बने अपने घर की दीवारों को सजाने के लिए चित्रकारी किया करते थे। ऐसे में यह अनुमान किया जा सकता है कि दुनिया की अधिकांश प्राचीनतम चित्रकलाओं की तरह भोजपुरी पेंटिंग का विकास भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ हुआ होगा।
एक चीनी सूक्ति है: ‘‘सफलता के हजार पिता होते हैं, असफलता अनाथ होती है।‘‘ बिहार की मधुबनी पेंटिंग और भोजपुरी पेंटिंग के बारे में यह सूक्ति पूरी तरह चरितार्थ होती है। दोनों बिहार की प्राचीनतम लोककलाएँ हैं, दोनों की शुरूआत भित्ति-चित्रण से हुई है, दोनों के अपने-अपने पारम्परिक रूपाकार और अभिप्राय हैं, दोनों में चित्रकारी का कार्य मुख्य रूप से महिलाएँ ही करती हैं, दोनों में आशा, उत्साह, आकांक्षाएँ और मंगलकामनाएँ भरी हुई है, दोनों का विषय-वस्तु पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है, दोनों पर्व-त्यौहारों एवं मांगलिक अवसरों पर निर्मित होती है। लेकिन बड़ा फर्क यह है कि डब्लयू सीआर्चर, पुपुल जयकर, भास्कर कुलकर्णी और उपेन्द्र महारथी जैसे कला-मर्मज्ञों के प्रोत्साहन एवं उत्साहवर्द्धक देखभाल के कारण मधुबनी पेंटिंग जहाँ आज अंतर्राष्ट्रीय फलक पर लोकप्रिय है, वहीं इसके अभाव में भोजपुरी पेंटिंग को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। बिहार के भोजपुरी क्षेत्रों जैसे- बक्सर, भोजपुर, सीवान, सारण, गोपालगंज और रोहतास इत्यादि जिलों में शादी-ब्याह एवं पर्व-त्यौहार के अवसर पर महिलाएँ अपने-अपने घरों की दीवार पर तरह-तरह के चित्रों का निर्माण सदियों से करती आ रही है। उन चित्रों को भोजपुरी पेंटिंग के नाम से जाना जाता है। भोजपुरी पेंटिंग में पिड़िया लेखन और कोहबर चित्र प्रमुख है।
कोहबर यहाँ शादी-ब्याह और पिड़िया भाई-बहन के पवित्र रिश्तों को दर्शाता है। दोनों का विषय-वस्तु पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होता है और उनमें भोजपुरी समाज के हर्ष-उल्लास, आस्था और विश्वास की झलक दिखती है। भोजपुरी पेंटिंग की शुरूआत कब हुई? इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी बताना मुश्किल है। क्योंकि इसका कोई लिखित दस्तावेज या प्रामाणिक खोज उपलब्ध नहीं है। लेकिन भोजपुरी जन-जीवन में अनंतकाल से यह चित्रकला विद्यमान है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही है। माँ इसे अपनी बेटी को सिखाती है और वह बेटी अपनी बेटी को। भीमबेटका (मध्य प्रदेश) और कैमूर (बिहार) के प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों की तरह भोजपुरी पेंटिंग में भी रेखाओं और त्रिभुज की आकृतियों का प्रयोग खूब होता है। भोजपुरी पेंटिंग के कई प्रतीक चिन्ह वैदिक संस्कृति के रूपाकारों से भी मेल खाते हैं। शादी-ब्याह एवं पर्व-त्यौहारों के अवसर पर यहाँ के लोग मिट्टी से बने अपने घर की दीवारों को सजाने के लिए चित्रकारी किया करते थे। ऐसे में यह अनुमान किया जा सकता है कि दुनिया की अधिकांश प्राचीनतम चित्रकलाओं की तरह भोजपुरी पेंटिंग का विकास भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ हुआ होगा। शुरूआती समय में रेखाओं का सूत्रपात हुआ होगा। बाद में कभी हताशा तो कभी खुशी को दर्शाने के लिए रेखाओं से आकृतियाँ सृजित होने लगी होगी। धीरे-धीरे रेखाओं में रंगों के साथ-साथ सूक्ष्मता, यर्थाथता एवं कल्पनाशीलता का भी प्रयोग होने लगा होगा। लोग अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भी इसके माध्यम से करने लगे होंगे। महाराष्ट्र एवं गुजरात के वरली चित्र और भोजपुरी चित्रकला में काफी हद तक समानताएँ है। उपर्युक्त ऐतिहासिक सच्चाइयों के अलावा भोजपुरी पेंटिंग का अपना मिथकीय विश्वास भी है। श्रीमद्भागवत में इस व्रत को गोपकन्याओं द्वारा करते दिखाया गया है। गोपकन्याओं इसमें कात्यायनी देवी की पूजा करती है और पति रूप में श्री कृष्ण को पाने की कामना करती है। अंत में श्री कृष्ण उन्हें उनका मनोरथ पूर्ण होने का वरदान देते हैं। दूसरी कथा एक रानी और नौकरानी की है। रानी के बच्चों की असमय मृत्यु हो जाती थी। जबकि नौकरानी के बच्चे जीवित रहते थे। नौकरानी के बच्चों को किलकारियाँ भरते देख रानी को जलन और कुढ़न होती थी। एक दिन रानी ने नौकरानी को लकड़ी चुनने हेतु जंगल भेज दिया और उसके बच्चे को शेर के पिंजड़े में डाल दिया। नौकरानी के लौटने के बाद उसके गोद में बच्चे को हँसते देख रानी आश्चर्यचकित रह गई। उसने नौकरानी से पूछा- ‘‘तुमने कौन सा नेक-धर्म किया है, जो तुम्हारे बच्चे जीवित रहते हैं।‘‘ नौकरानी ने जवाब दिया- ‘‘मैं पिड़िया व्रत करती हूँ। उन्हीं की दैविक कृपा से मेरे बच्चे जीवित है‘‘ यह सुनकर रानी ने भी पिड़िया व्रत किया और तब से उसके बच्चे भी किलकारियाँ भरने लगे। जानकारों के मुताबिक मध्यकाल तक भोजपुरी क्षेत्र में पिड़िया लेखन और कोहबर का बहुत अधिक प्रचलन था। तब भोजपुरी समाज एक खुशहाल समाज था। कृषि, कृषक और ग्रामीण जीवन भोजपुरी समाज का एक प्रमुख अंग हुआ करता था। स्त्री और पुरूष दोनों मिलकर खेतों में काम करते थे। दैनिक जीवन की सारी समस्याओं को भूलकर भोजपुरी पेंटिंग के माध्यम से अपने जीवन में उमंग और खुशियाँ लाते थे। उनके घर मिट्टी से बने, चूने से पुते और गोबर आदि से लिपे होते थे।
महिलाएँ पर्व-त्यौहार और शादी-ब्याह के अवसर पर अपने सुख-दुख, हर्ष-उदवेग तथा विभिन्न मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति भोजपुरी पेंटिंग के माध्यम से दीवारों पर करती थीं। उनकी कला में भोजपुरी समाज के हर्ष-उल्लास, आस्था और विश्वास की झलक दिखती थी। उन चित्रों में खासा मौलिकता होती थी। दीवाली के अवसर पर महिलाएँ समूह में पिड़िया लेखन (भिति-चित्रण) करती थी। यह कोई एक दिन का पर्व नहीं था। पूरे कार्तिक मास में चलने वाला यह ’’लोकोत्सव’’ था। यह प्रत्येक घर की दीवार पर होता था। चित्रकारी का काम मुख्य रूप से महिलाएँ करती थी। लेकिन पुरूष समाज भी इसमें मन से शामिल होता था। उनके पास समय था और अपनी कला परम्परा से भरपूर लगाव भी था। पूरा गाँव उसमें रूचि लेता था। इसमें ‘‘व्यक्तिगत आनन्द‘‘ की अपेक्षा ‘‘सामूहिक आनन्द‘‘ का भाव ज्यादा मुखर रहता था। रंग वनस्पतियों से बनाये जाते थे। उनके कला-रूपों में प्रकृृति ही चमकती एवं दमकती रहती थी। कहीं कोई नकलीपन नहीं। हर जगह ठोस खरापन। मटमैला रंग से गेरूआ, सेम के पते से हरा, हलदी से पीला और कोयले से काला रंग तैयार किया जाता था। मुगलकाल से लेकर आजादी पूर्व तक का भोजपुर क्षेत्र का इतिहास उथल-पुथल युक्त रहा।
मुगलकाल के साथ आक्रमणों का दौर प्रारम्भ हुआ। उसके बाद अंग्रेज आये और उन्होंने भी भोजपुर को बेरहमी से लूटा। ब्रिटिश कृषि नीति, आर्थिक नीति और लगान प्रणाली के फलस्वरूप छोटे-छोटे किसानों की जमीन उनके हाथ से चली गई और वे खेतिहर मजदूर बन गये। अंगेे्रजी जुल्म के साथ-साथ मँहगाई, बाढ़-सुखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं से हर साल जदोजहद करते लोग अपने जीवन को बदलने के लिए गिरमिटिया मजदूर बनकर फिजी, मलाया, सिंगापुर, वर्मा, माॅरीशस, सूरीनाम आदि देशों में गये और वहीं बस गये। भारत का भी शायद ही कोई ऐसा कोना होगा, जहाँ भोजपुरी क्षेत्र के लोग रोजी-रोटी की खोज में न गये हों। अग्रेंजों के अत्याचार के विरूद्ध भोजपुर क्षेत्र ने संघर्ष का रास्ता अपनाकर 1857 की क्राँति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। क्राँति के दौरान की घटनाओं ने भोजपुरी संस्कृृति और उसके सामाजिक जीवन को प्रभावित एवं परिवर्तित कर दिया। भोजपुर पेंटिंग भी इससे अछूती नहीं रही। अंग्रेजों के जुल्म, मँहगाई की मार, रोजी-रोटी की जदोजहद और सामूहिक चेतना की विश्रृखंलता ने इस सामूहिक भोजपुरी कला को मार दिया। अमीर वर्ग धीरे-धीरे व्यस्त और आधुनिक होता गया। उसके पास श्रमसाध्य भोजपुरी पेंटिंग के लिए समय नहीं था। उसने असंस्कृृत कहकर इस लोककला की उपेक्षा शुरू कर दी। उसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि पेंटिंग का कार्य उत्पादक एवं मेहनतकश दलित और पिछड़ी जातियों के जिम्मे रह गया। लेकिन तब इन जातियों के समक्ष रोजी-रोटी का भयावह संकट था। उनके लिए रोजी-रोटी पहले था, कला-संस्कृृति बाद में।
परिणाम स्वरूप भोजपुरी पेंटिंग धीरे-धीरे लोकमानस से सिमटती चली गई। उस समय की त्रासद स्थितियों का वर्णन किसी कवि ने इस प्रकार किया है- भूल गइल राग-रंग, भूल गइल चौकड़ी तीन चीज याद रहल, नून-तेल-लकड़ी। प्रसंगवश यहाँ एक फ्रेंच कहानी का जिक्र प्रासंगिक जान पड़ता है। बोत्यें बहुत ही प्रतिभाशाली पेंटर था। समय पर उसकी शादी होती है, पर एक पुत्र को जन्म देकर पत्नी की असमय मृृत्यु हो जाती है। बोत्ये बेटे को माँ का भी प्यार देकर पालता है। मगर बालिग होने पर पुत्र बोत्यें को घर से निकाल देता है। बोत्यें पुत्र विरोध नहीं करता। वह कुली बनकर लोगों का सामान ढोता है। समय निकालकर पेंटिंग भी करता है। लेकिन लोग उसकी मजदूरी या पेंटिंग के पूरे पैसे भी नहीं देते। फिर भी वह कोई शिकायत नहीं करता। किसी तरह वह अपने दिन काटता है। एक दिन बग्धी से कुचलकर उसकी मृत्यु हो जाती है। उसकी आत्मा स्वर्ग में अब्राहम के दरबार में पहुँचती है। अब्राहम को बताया जाता है कि बोत्यें पृथ्वी का महान व्यक्ति है, इसे संतों जैसा सम्मान मिलना चाहिए। चकित अब्राहम अपने आसन से उतरकर बोत्यें के निकट जाकर कहते हैं-’’माँगो, तुम जो चाहोगे, तुम्हे मिलेगा। हम स्वर्ग के सम्राट है, हम सब तुम्हे देंगे।’’ बोत्ये कुछ नहीं बोलता, वह सहमी हुई दृृृष्टि से स्वर्ग के राजा को देखता है। अब्राहम उसके कंधे पर हाथ रखते है-’’हम सब देंगे, तुम माँगो तो सही।’’ इस पर डबडबायी आँखों के साथ बोत्यें कहता है-’’मुझे बहुत भूख लगी है। मैंने कई दिनों से कुछ नहीं खाया। मुझे रोटी का एक टुकड़ा और थोड़ा-सा मक्खन दे दीजिए।’’ भूखे लोगों की बेबसी पर आधारित यह कहानी भोजपुरी पेंटिंग की तत्कालीन परिस्थितियों पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।
भोजपुरी पेंटिंग की बदहाली आजादी के बाद भी जारी रही। लेकिन अमीर एवं आधुनिक लोगों की उपेक्षा के बावजूद भोजपुरी पेंटिंग चलन में बनी रही। लेकिन सदैव नहीं, बल्कि विभिन्न पर्व-त्यौहारों तथा शादी-ब्याह के अवसर पर। भोजपुर क्षेत्र में विवाह सामाजिक संस्कृति के निरन्तर प्रवाह का सूचक है और कोहबर घर की सज्जा उसका सांस्कृतिक वैभव। कोहबर घर का मतलब होता है ऐसा कमरा, जिसमें शादी के बाद दुल्हा-दुल्हन पहली बार मिलते हैं। यह नव दंपति के अटूट संबंध का प्रतीक माना जाता है। दोनों एक दूसरे के प्रति पूर्ण रूप में समर्पित होने का संकल्प उसी घर में लेते हैं। इस अवसर पर जो कोहबर बनता है। यानी जो चित्र उकेरा जाता है, उसे कोहबर लेखन कहा जाता है। कोहबर घर के आंतरिक दीवार, पूजा घर अथवा देव-स्थान के निकट बनाया जाता है। कहीं-कहीं आँगन में भी कोहबर बनाने की परम्परा है। कोहबर से चित्रित दीवार की पृृष्टभूमि में ही वर-वधू सजे आसन पर बैठते हैं, जहाँ उनसे अनेक प्रकार की विधियाँ सम्पन्न करायी जाती है। इस अवसर पर उन्हें दही-चीनी खिलाने का शगुन भी है। कोहबर लेखन एक ज्यामितीय पद्धति की रेखाकन कला है, जो पूर्णतः धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है। इस शैली के चित्र परम्परागत होते हैं। अर्थात महिलाएँ अपने ससुराल या मायके की कुल रीति के अनुसार ही इसकी रचना करती है।
कोहबर चित्र पूरब या पश्चिममुखी ही बनाने की प्रथा है, जिसे घर की सुहागन स्त्रियाँ बनाती है। कतिपय जगहों पर इसकी शुरूआत पण्डिताइन से करायी जाती है और बाद में अन्य महिलाएँ उस चित्र को पूर्ण करती हैं। कोहबर लेखन प्रारम्भ करने से पहले महिलाएँ अपने कुल देवता का स्मरण करती है तथा गीत गाते हुए लेखन करती है। चित्र रचना के दौरान लोक गीतों की मधुरता बनी रहती है। कोहबर चित्रण के समय जिन पारम्परिक गीतों का गायन चलता है। वे गीत प्रायः दो प्रकार के होते हैं। ज्यादातर संस्कार गीत होते हैं। कई संदर्भो, मनोभावों के। सबके सब प्रतीकात्मक। मन में उल्लास, आशंकाएं और संकल्प पैदा करने वाले। कोहबर लेखन शुरू होते ही महिलाएँ हुलस-हुलस कर गा उठती हैं :- कहँवा के कोहबर लाल गुलाल, कहँवा के कोहबर रतन जड़ाई। बाहर के कोहबर लाल गुलाल, भीतर के कोहबर रतन जड़ाई।। एक गीत समाप्त हुआ नहीं कि दूसरा गीत शुरू हो जाता है। दूसरे प्रकार के गीतों में कोहबर में रेखाओं और संकेतों का वर्णन होता है, साथ ही वर-वधू की परिचयात्मक तथा सौंदर्यात्मक बातें भी होती है:- लिखीना भीति पड़ोसीना, जहाँ उतरे नवाब कोहबर, ताहाँ ले बइठले कवन दूल्हा, बताव आपन नाम हो….। कोहबर लेखन से पहले दीवार पर कली-चूना से सफेदी की जाती है। तत्पाश्चात सफेद दीवार पर रामराज माटी, गाय का गोबर व चंदन का लेप लगाती है। फिर भगवान गणेश को स्थापित करती हैं। इसके बाद तैयार आधार पर गेरू से दुहरी रेखाओं का प्रयोग कर रेखाकन किया जाता है और फिर उनमें लाल, पीला, हरा और गेरू रंग भरा जाता है। कहीं-कहीं चावल-हल्दी के मिश्रण से अथवा सिंदूर तथा कागज से भी चित्रांकन किया जाता है।
रेखांकन के लिए ब्रश के स्थान पर बाँस की कूंची का प्रयोग किया जाता है, जिसे औरतें स्वयं तैयार करती है। कोहबर का स्वरूप वर्गाकार अथवा आयताकार होता है। उसमें धार्मिक आस्थाओं तथा जन-जीवन पर आधारित चित्र का निर्माण किया जाता है। ज्यादातर चित्र अथवा चिन्ह वैदिक कला से संबंधित होते हैं। इसमें प्रत्येक का विशेष अर्थ होता है। यथा-सिंदूर से टीका किया जाता है, जो देवी के सात रूपों को प्रस्तुत करता है। कोहबर में स्वास्तिक और कमल का चित्रण जरूरी है। ये दोनों भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्ह हैं । स्वास्तिक चिन्ह का प्रयोग ’’ऊँ’’ तथा गणेश के प्रतीक रूप में होता है। काजल का प्रयोग बुरी नजरों से बचाने के लिए किया जाता है। कमल कीचड़ में पैदा होकर आजीवन जल में रहता है। फिर भी उससे असंपृक्त रहता है। उसी तरह कोहबर में कमल के माध्यम से नव विवाहित जोड़ों को यह बताने का प्रयास किया जाता है कि संसार में रहते हुए संसार से अनासक्त जीवन जीने में ही परम आनंद है। कमल नवदंपति के लिए विपरीत हालातों में भी नई आशाओं के साथ जीवन जीने का संकेत देता है। बांस का प्रयोग वंश वृद्धि और नवदंपति के दीर्घायु होने की कामना के लिए किया जाता है। बांस एक ऐसा पौधा है, जो कठिन परिस्थतियों में भी फलता-फूलता है। इसमें फूल तो सूखे के हालात में भी खिलते हैं। साथ ही एक बांस से अनेकों बांस की उत्पति होती है। इसलिए बांस के माध्यम से नव विवाहितों के वंश बढ़ोतरी की कामना की जाती है। सूर्य-चन्द्रमा को जीवन-चक्र तथा उज्ज्वल भविष्य के लिए और लौंग का प्रयोग शुद्धिकरण तथा वातावरण की शुद्धि के लिए होता है। पान-पत्ता की तुलना योनि तथा कसैली को शिश्न रूप में चित्रित किया जाता है। कछुआ, तोता, मछली, घड़ा, पालकी, खिलौना, सिन्होरा, चिड़ियाँ इत्यादि का चित्रण कोहबर का अनिवार्य अंग है।
मछली के चित्राकंन से वर-वधू के पुत्रवान होने और कछुए से दीर्घायु होने की कामना की जाती है। घड़ा का चित्रण संसार के प्रतीकात्मक रूप में होता है। खिलौना बच्चों के प्रतीक के रूप में, चिड़ियाँ उन्मुक्त एवं स्वतंत्र जीवन जीने की कल्पना के रूप में चित्रित किये जाते है। कोहबर घर के बाहर वाले दरवाजे के दोनों ओर हाथी, घोड़ा, दरबान इत्यादि का चित्रण हमें लोक भावना की गहराई में ले जाती है। चैखट के बाहर बेल-बूटें भी चित्रित किये जाते हैं । उनमें लाल, पीला, नीला तथा हरा रंग का प्रयोग अधिक होता है। इन चित्रों के साथ हाथ का थापा देने की भी परम्परा है। तात्पर्य यह कि कोहबर मे चित्रित होने वाले सभी प्रतीक चिन्हों का अपना एक विशेष महत्व है। नव दंपति के सुखमय वैवाहिक जीवन व्यतीत करने में जितनी चीजों की आवश्यकता होती है, उसके प्रतिरूप की कल्पना इन रेखाओं द्वारा की जाती है। लेकिन दीवारों पर होने वाले ये कोहबर चित्रण अब कागज एवं कपड़ों पर बनने लगे है। महिलाएँ कागज या कपड़े पर सभी प्रतीक चिन्हों का चित्रण कर उसे नव दपंति के शयन कक्ष में दीवाल पर चिपका देती हैं।
भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है पिड़िया पर्व, जो सम्पूर्ण भोजपुर में एक माह तक मनाया जाता है। इस दौरान बहनें अपने भाई के स्वस्थ और दीर्घायू जीवन की कामना करती है। इस दौरान दीवार पर पिड़िया लिखा जाता है, जो पिड़िया लेखन के नाम से मशहूर है। यह कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अग्रहन शुक्ल प्रतिपदा को समाप्त होता है। पिड़िया की शुरूआत गोधन पूजा के दिन से होती है और विभिन्न रूपों में एक महीने तक उपस्थित रहती है। कन्याओं से लेकर विवाहित स्त्रियाँ भी इस पर्व को धूमधाम से मनाती है। गोधन पूजा के बाद महिलाएँ दीवार को गाय के गोबर से लिपती है और फिर उसके उपर गोबर की छोटी-छोटी पिंडी चिपकाती है। जिसे कन्या या औरत के जितने भाई होते है, वह उतनी पिड़ी बनाती है। गोबर से बनने वाली उस आकृति में आँख, मुँह, नाक, हाथ व पैर की बनावट स्पष्ट झलकती है। छोटा सिर, छोटे-छोटे हाथ और बड़ा-सा पेट किसी मानवाकृति का भान कराता है। मानवाकृति की बनावट यथार्थ से अलग अर्धमूर्ताकार होती है। यह कला रैखिक होती है। जमीन से करीब दो-तीन ईंच उभार लिए ‘रिलिफ स्टाइल’ में सृजित होने वाली इन कलाकृतियों में शीशे की गोली या कौड़ी से आँख तथा गेहूँ अथवा जौ से दाँत बनाया जाता है। रात्रि में महिलाएँ उसी जगह पर बैठकर भाई के दीर्घायु जीवन के लिए सामूहिक रूप से गीतों का गायन करती है। इसे पिड़िया गीत के नाम से जाना जाता है। गीतों के माध्यम से वे भाई के दीर्घायु होने की कामना के साथ-साथ वे अपने लिए अच्छे सास-ससुर, भसुर-जेठानी, देवर-देवरानी, अमर सुहाग और सुन्दर पुत्र की कामना करती हैं। अगहन मास के शुक्ल प़क्ष एकम की सुबह वे पिडी़ को दीवार से छुड़ाती है। उस दिन पूरे दिन वे व्रत करती है। फिर पिड़िया लेखन के लिए दीवार को गोबर से लीपती है। दीवार सूख जाने के बाद उस पर रूई या कपड़ा को लकड़ी में लपेटकर बनायी हुई कूची के माध्यम से पिड़िया का चित्रण करती है। पिड़िया का स्वरूप तथा उसकी बनावट कैसी हो- यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस युवती या औरत की सौन्दर्य दृष्टि कैसी है। जैसी उसकी कल्पना एवं दृष्टि, वैसी उसकी रचना।
सबसे पहले वे आकृति (खाका) खिंचती है। फिर उस खाका में सेम की पत्ती से तैयार किया हुआ हरा रंग भर देती है। उसके बाद उस पर चावल के दानों से तैयार उजले रंग से रेखांकन किया जाता है। लाल रंग के लिए वे सिंदूर का इस्तेमाल करती है। पिड़िया की आकृति अमूनन हर जगह एक जैसी होती है। यह आकृति किसी मानवाकृति का एहसास कराती है। छोटा सिर, छोटे-छोटे हाथ-पैर, लेकिन पेट बड़ा बनता है। उस पेट के अंदर बहुत सारी आकृतियाँ बनायी जाती है। बाहर की रेखाएं थोड़ी मोटी होने के साथ-साथ दो-तीन कतार में खींची जाती है। रेखाओं में गति एवं लोच तो होती ही है। साथ ही रूपाकार (फाॅर्म) में भी हाथों की स्वतंत्रता महसूस की जा सकती है। आकृतियाँ रचते समय युवतियाँ अपने परिवेश को लेकर चलती है। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र में प्रकृति के साथ-साथ पशु-पक्षी मनुष्य के साथी के रूप में स्वीकार्य है। इसलिए पिड़िया में सूरज, चाँद, बत्तक, हाथी, घोड़ा, कुत्ता-बिल्ली, डोली-कहार, चाँद, सूरज, तोता-मैना, पेड़-पौधे इत्यादि का चित्रण अधिक होता है। महिलाएँ देर रात तक वहाँ दिया जलाती है और घी-रोली से सभी चित्रों को टिकती हैं। रातभर गीतों का गायन चलता रहता है। उन गीतों में महिलाएँ अपने भाई एवं अन्य प्रियजनों के स्वस्थ एवं दीर्घायु होने की मंगलकामना करती है। एक परम्परागत गीत इस प्रकार है:- नाहीं हम माँगी ला अन-धन सोनवा न माँगी रतन ढे़र हो। रामा माँगीला अतने उमिरिया के मोती कि भइया से सजल रहो आंगन हो।। इस दौरान वह गीतों के माध्यम से अपने पति के प्रति अनन्य प्रेम का भी वर्णन करती हैः- जइसे कतिकवा के उगली अंजोरिया उगत आवे न। मोरे पातर बलमुवा उगत आवे ना।। इस गीत में पत्नी अपने पति को कार्तिक महीने के चाँद से अलंकृत करती है। दूसरे दिन सूर्योदय से पहले दीवार से छुड़ाये गए गोबर की पिंड़ी को एक दौरा में रखकर किसी नदी, आहर या पोखर में दहवा (बिसर्जन) देती है। जिसे ‘सेरवाना’ अर्थात् शीतल करना कहते हैं। तत्पाश्चात् ही वे अन्न-जल ग्रहण करती हैं। भोजपुर अंचल में कोहबर लेखन हो या पिड़िया लेखन-दोनों में किसी भी आकृति का पूर्व निर्धारित कोई रूप नहीं होता, वह औरतों की रूचि और कल्पनाशीलता पर निर्भर करता है कि वे किन-किन आकृतियों को किस-किस रूप में उकेरती है। दोनों पेंटिंग विशेष प्रयोजन पर ही होती हैं और आयोजन समाप्त होने के बाद किसी शुभ मुर्हूत में उन्हें मिटा दिया जाता है। यही वजह है कि दोनों की परम्परा प्राचीन होते हुए भी इसके प्रमाण बहुत कम मिलते हैं। इसलिए भोजपुरी पेंटिंग की ओर कला मर्मज्ञों का ध्यान बहुत कम गया है। कलात्मकता एवं परिपूर्णता के बावजूद इसका उतना विस्तार या विकास नहीं हो पाया, जितना होना चाहिए था। 2010 के शुरूआती दौर में भोजपुरी पेंटिंग जीवित रहते हुए भी मृतप्राय हो रही थी। 2010-2020 का दौर बिहार में कला के क्षेत्र में नवजागरण का काल कहा जा सकता है। इस दौरान बिहार-झारखण्ड में मंजूषा कला, सोहराई कला, सुजनी कला और सिक्की कला जैसी विभिन्न कलाओं का पुनर्जीवन हुआ तो कला-मर्मज्ञों और कलाकारों को भोजपुरी कला का भी ख्याल आया।
अशोक कुमार सिन्हा ,उपेंद्र महारथी शिल्प संस्थान ,पटना