हमार उमिर ओह घरी तेईस-चउबीस साल के रहे

विजेन्द्र अनिल के पढ़ावल पाठ

– प्रोफ़ेसर (डॉ.) चंद्रेश्वर

भोजपुरी पुस्तक ‘आपन आरा’ के एगो अंश

सन् 1981 के नवंबर के बात होई. गाँव प दिवाली मना के आरा चहुँपल रहीं जा. कॉलेज खुल गइल रहे. जैन कॉलेज में हम जब से बी.ए.,हिन्दी (ऑनर्स) में एडमिसन ले ले रहीं, कॉलेज कैंपस में आ क्लास में खूबे मन लागत रहे . मन हरमेस हरियराइल रहत रहे . लागत रहे कि हमरा पढ़ाई में केहू जान फूँक देले बा. हम ओह घरी ले रेलवे टेशन के एच. व्हीलर के बुक स्टॉल प रेगुलर जाये लागल रहीं. साहित्यिक पत्र-पत्रिकन के देखे, उलटे -पुलटे के एगो लत लाग गइल रहे . सब पत्रिकवन के उलटला -पुलटला के बाद अंत में हम एगो कहानी के मासिक पत्रिका ‘सारिका’ खरीदत रहीं . ओह घरी ‘सारिका’ के संपादक रहलन कन्हैया लाल नंदन . शायद सहायक संपादक में सुरेश उनियाल आ रमेश बतरा के नांव छपत रहे. हमरा ओही एच. व्हीलर के बुक स्टॉल प जानकारी मिल जात रहे कि आजु आरा में  आपन गाँव बगेन से विजेन्द्र अनिल आवेवाला बाड़ . ऊ आरा आवसु त कानाकानी बात फइल जात रहे कि आवे वाला बाड़न . ऊ नवहा रचनाकारन से ज़रूर मिलल चाहत रहन. बगेन आरा से किछु पछिम  रघुनाथपुर रेलवे स्टेशन से  दक्खिन इचिका हट के बा. एही रघुनाथपुर के उत्तर ओर गइला प हिन्दी आ भोजपुरी के  नामी कहानीकार सुरेश काँटक के गाँव काँट आ जाला . साँच पूछीं त एह दखिनहा गाँव के प्रसिद्धी का पाछा तीन गो शख़्सियत रहल बा लोग.

पहिलका हिन्दी -भोजपुरी के  साहित्यकार विजेन्द्र अनिल,दोसरका  हिन्दी के विद्वान आलोचक आ राची युनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. नागेश्वर लाल अवरू  तीसरका अस्सी के दहाईं में अपन अपराधिक कृत्य ख़ातिर जानल जाये वाला वीर बहादुर सिंह के शख़्सिसत के चलते. दूनो लोग के चलती के पाछा अलग -अलग कारन रहे. हम ओही साल फरवरी-मार्च,81 में विजेन्द्र अनिल से मिले उन्हुका गाँव प जा चुकल रहीं. ओह घरी अबहीं हलुक जाड़ परत रहे . ई होली के पहिले के बात ह . हम साँझ बेर चहुँपल रहीं. ऊ किछु लइकन के ट्यूशन पढ़ावत रहलन . ऊ  एक घंटा में जब खाली हो गइलन त साहित्य के बतकही सुरू भइल रहे. बीच में एक -दू बेर चाह मिलल रहे आ भूनल नमकीन चिउरा. ऊ बगेन हाई स्कूल के नामी साइंस टीचर रहलन. ऊ रात में खइला के बादो बारह-एक बजे रात तक बतियवले रहलन.रात में उन्हुकर दुवार प के एगो बड़हन कोठरी में पुवरा बिछा के ओह प सूजनी डालल रहे आ ओढ़े के कंबल धइल रहे. ओही प सुतल रहीं  हम. अगिला दिन भिनुसारे ऊ जाग गइल रहन आ  हमरा संगे फर-फराकित होखे ख़ातिर लोटा ले के निकललन त इशारा से वीर बहादुर सिंह के घर देखवले रहलन. हम ओह घरी ले आरा में तमाम लोग आ धारा के संपर्क में आ गइल रहीं तबो विजेन्द्र अनिल के नांव हमरा के अपना ओर ढेर आकर्षित करत रहे. एकरा पाछा रहे उन्हुकर भोजपुरी आ हिन्दी के सरल-सहज आ धारदार लेखन. उन्हुकर सहज सुभाव. ऊ जब आरा आवसु त कहीं ना कहीं पता चलिए जात रहे कि ऊ आइल बाड़न आ मौलाबाग़ में अपना ससुरारी के मकान में रूकल बाड़न. ऊ जब आवसु त दू दिन ले  रूक जात रहलन.

हमनी के ओहिजे जाके मिलत रहीं जा. ऊ दौर हमनी के जिनगी के बहुते निर्णायक दौर रहल बा .ओह घरी हमनी के आपन जिनगी के नयकी राह खोजत रहीं जा,ऊ राह जेवन सरल -सुगम होखे आ कतो मंज़िल तक ले जात होखे.एही क्रम में हम आरा में मॉडल इंस्टीट्यूट में भोजपुरी -हिन्दी के कवि आ संस्कृत के हेडपंडित अंबिका दत्त त्रिपाठी ‘व्यास’ से सन् अस्सिए  में मिलल रहीं | ऊ डुमराँव में तिवारी टोला के रहन आ हमार गोला बाबा पंडित भृगुनाथ पांडेय के पढ़ावल विद्यार्थियो. हमार गोला बाबा डुमराँव के प्रयाग पाठशाला में किछु साल तक संस्कृत पढ़वले रहलन.हम सन् अस्सिए में मिथिलेश्वरो जी से मिलल रहीं . बाद में सन् 81 में  चंद्रभूषण तिवारी से मिललीं. तिवारी जी से मिलला के बाद जइसे लागल रहे कि एगो चौउरास्ता से आगे बढ़ि गइल बानी आ सोझ राह पकड़ के जाए के बा ; बाकी अब बुझाला कि ऊ एगो भरमे  रहे . जिनगी में कमे अइसन होला कि केहू के भटके के ना परे आ ऊ एगो राह पकड़ के बढ़ेला आ मंज़िलो पा लेला –“एक राह तूँ पकड़ चला चल पा जायेगा मधुशाला .” सोझ राह त एके गो होला –“अति सुधो सनेह को मारग है .” बाकी सुधो सनेह के मारग मिले तब नूँ !  कहाँ ई मारग नसीब होला सबके . लोग जिनगी के माया में अझुराइल रहेला आ अंत में ओही में उलझि -पुलझि के दमो तोड़ देला.एही राह के पावे ख़ातिर हम विजेन्द्र अनिल के गाँवे गइल रहीं आ उन्हुका से आरा में मिलतो रहीं. लेखन के दुनिया के सतहत्तर गो राह रहे .ओह जवानी के दौर में ई राह खोजल आपन वजूदो खोजल रहे,  वजूद अने आपन पहचान.

जे होखे,  एक बेर हम आरा टेशन के सोझा लेमन टी के दोकाने प भोर में आठ बजे चाह पिये ख़ातिर ठाढ़ रहनी तले देखत बानी कि बगल में विजेन्द्र अनिल आ के ठाढ़ हो गइलन. हम उन्हुका के नमस्कार कइलीं आ लेमन टी के ऑर्डर दियाइल. ऊ बाद में दूनो कप के पइसा दिहलन. ऊ कहलन कि ‘चंद्रेश्वर जी,  हम आजु साँझ के पैसेन्जर से गाँवे लवटब, बाकिर दुपहरिया में दू बजे ले हमार काम हो जाई . रउरा एहिजे दू-ढाई बजे ले आईं त रउरा से किछु साहित्य के बतकही होई.”हम ठीक ढाई बजे जब लेमन टी के दोकान प गइलीं त देखतबानी कि विजेन्द्र अनिल जी ओह में बइठल बाड़न . हमरा के देखलन त बहुते अगरा गइलन आ उन्हुका से बात होखे लागल. बात चलल हिन्दी कहानी प त ऊ एक-डेढ़ घंटा में हिन्दी कहानी के जड़, पुलईं आ फुनगी सब बता दिहलन. उन्हुकर ओह दिन के बतकही से हिन्दी कहानी के कंसेप्ट हमार दिमाग़ में क्लीयर हो गइल रहे. ऊ आपन एगो हिन्दी के कहानी संग्रह ‘नयी ईमारत’ हमरा के पढ़े के देले रहलन . हम ओहघरी उन्हुका से पूछले रहीं कि राउर कहनिया सब ‘सारिका’,’धर्मयुग’ आ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में काहे ना छपेली स त ऊ बतवले रहलन कि हम लघु पत्रिकन में छपीला आ व्यवसायिक पत्रिकन में ना.

एह प ऊ इहो कहले रहलन कि हमार कहनियन के बड़ व्यवसायिक पत्रिकवा ना पचा पइहें स. ओही दिन हमरा समझ में आइल रहे कि खाली लिखे -पढ़े से आ कतो छप जाये से ना होला, आ इहो कि लेखक आ लेखक में अंतर होला. नेम-फेम पावल आ सामाजिक बदलाव ख़ातिर प्रतिबद्ध होकेे के  लिखल दू गो अलग-अलग चीज़ होला. बिना विचार आ दृष्टि के अनुभव के आधार प लिखल कहानी आन्हर होली स.ऊ गीत, कविता, कहानी आ आलोचना सब लिखत रहलन. हम जब बगेन में उन्हुका से मिले गइल रहीं त ओह घरी उन्हुकर एगो कहानी ‘विस्फोट’ छपल रहे . ऊ आपन गाँव के गोंयड़ के ऊ जगह देखवलन जेहँवा विस्फोट भइल रहे. ओह जगह प रात में लइका पटाखा वाला बम दगले रहलन स आ गाँव के किछु धनी आ बड़ सामंत लोगन के लागल रहे कि ई नक्सली गिरोह के बम विस्फोट ह. एही थीम प ई ‘विस्फोट’ कहानी रहे जेवना में नक्सल आंदोलन से सामंती ताक़तन के अंदर के भय के मनःस्थिति के देखावल गइल रहे. उन्हुकर एगो कहानी ‘माल-मवेशी’  चर्चित भइल रहे . ऊ बराबर पत्र पोस्टकार्ड प लिखत रहलन. उन्हुकर लिखावट बहुते सुन्नर होत रहे. एक बेर सन् 1983 में मई-जून में ऊ अचानके हमार गाँव आशा पड़री पर आ गइल रहन. ऊ केवनो काम से सिमरी गाँव में आइल रहन, शादी-बियाह के सिलसिला में त सोचलन कि हमरो से मिलत चलीं. उन्हुकर सहज व्यवहार एगो गँवई ठेठ किसान वाला रहे. हमरा ई बुझाला कि ऊ अगर किछु ना लिखले रहितन आ खलिसा उन्हुकर भोजपुरी के  किछु गीतवे आ ग़ज़लवे लिखाइल रहितन स तबो ऊ अमर रहिते ! हम जब उन्हुका के इयाद करीला त सबसे पहिले उन्हुकर भोजपुरी ग़ज़ल के लाइनवे हमरा  मन परेला —

             “रउरा सासन के ना बड़ुवे जबाब भाई जी,

             रउरा कुरुसी से झरेला गुलाब भाई जी .

             रउरा भोंभा ले के सगरो आवाज़ करीला,

             हमरा मुँहवा प लगवले बानी जाब भाई जी .”

हम एने उन्हुका प एगो हिन्दी में कविता लिखले बानी जेवन हमार तीसरका कविता संग्रह ‘डुमराँव नज़र आएगा’ में संकलित बा-

विजेन्द्र अनिल के साथ आरा में चाय पीने की स्मृति

वो सोंधी खु़शबू थी नदारद

चाय की

जो बनती थी पहले

दूध को अँवटकर यहाँ

सोचा उतरते ही रेलगाड़ी से

चाय पियें

आरा स्टेशन की

घर जाने के पहले

पर नहीं मिली तृप्ति वो

दो कप के बाद भी

जिसकी थी तलब मुझे

खड़े-खड़े चाय पी रहे लोगों में

गपशप का दिखा नहीं

वो उत्साह

आसपास थी गंदगी बहुत

पर नहीं थी किसी को

कोई शर्मिंदगी

रत्तीभर भी

ये वो ही दुकान थी

चाय की

जहाँ 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में

कवि-गीतकार और  कहानीकार 

विजेन्द्र अनिल मिलते थे

अक्सर जब

आरा आते थे

बगेन से

बेंच पर बैठकर पीते हुए चाय

साथ-साथ

मुझे समझा दिया था जिन्होंने

हिन्दी कहानी-कविता  का

उद्भव और विकास

मैं बीए हिंदी (ऑनर्स) का

विद्यार्थी था तब

जैन कॉलेज, आरा  में

चीज़ें बदल जाती हैं

और बदल जाती हैं

जगहें भी

बदल जाती है

आदमी की

निगाह भी शायद

वक़्त गुज़रने के साथ -साथ

पर कुछ चीज़ों, जगहों, आदमियों …

और उनसे जुड़े

रिश्तों की स्मृतियाँ

करती रहती हैं पीछा

आजीवन

जिसे दुबारा पाना नहीं होता

मुमक़िन …

फिर भी

वो स्मृतियाँ ही देती हैं

संबल जीने का

हमें बचाती हैं अक्सर

बीहड़ों में

गुम होने से .

“जे.एन.यू. में ना पढ़ला के अफसोस कइसन जब आरा में पढ़त रहीं !”

अक्टूबर 1983 में जब बी.ए.(ऑनर्स) के रिजल्ट आइल त पता चलल कि हम मगध विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में दोसरका असथान पवले बानी. पहिलका असथान प गुरुदेव प्रोफेसर रामेश्वरनाथ तिवारी के बहू रहली . ओह घरी हमरा खातिर दू गो प्रसन्नता के बात रहे. एगो त हिन्दी(ऑनर्स) के उमेद से ढेर बढ़िया रिजल्ट आ दोसर कि ‘कथन’-20 में हमार हिन्दी के पहिलकी कविता छपल रहे–‘शब्दों का उच्चारण . एही अंक में हमार गुरुदेव आ हिन्दी के नामी-गिरामी आलोचक प्रोफेसर चंद्रभूषण तिवारी के प्रेमचंद पर लमहर लेख छपल रहे जेवना में सुविख्यात आलोचक डॉ. चंद्रबली सिंह के स्थापना के तस्दीक कइल गइल रहे कि प्रेमचंद के कथा साहित्य में जेवन जथारथवाद आइल बा ऊ जनवादी जथारथवाद ह ; ऊ आलोचनात्मक भा समाजवादी जथारथवाद ना ह . हमार कविता ओहिजे छपल रहे जेहँवा तिवारी जी के लमहर लेख समाप्त होत रहे . ई एगो संजोगे होई भा ‘कथन’ के संपादक आ नामी-गिरामी कहानीकार रमेश उपाध्याय के कुशल संपादन कला . ओह घरी तिवारी जी के आवास बलबतरा,मझौंउवा से बदल के चंदवा हाऊसिंग कॉलोनी में चल गइल रहे . किराया के मकान से अपना मकान में तिवारी जी शिफ्ट कइले रहन–10,एम.आई.जी. में . उन्हुकर चंदवा के पास नया मकानो आरा के साहित्यकारन के तीरथ बन गइल रहे . आरा के नयका से ले के पुरनका लेखकन में शायदे केहू होई जे उन्हुका से मिले ना जात होई ! ई तीरथ रहे एगो दोसर तीरथ के बगल में . बाबू जगजीवन राम के पुश्तैनी मकान के पूरुब में .

नवहा कवि कुमार वीरेन्द्र से ले के कथाकार मधुकर सिंह तक के जुटान होत रहे उन्हुका नयको आवास पर . भोर से देर रात तक लोग उन्हुका से मिले चहुँपत रहे, अापन रचना सुनावे आ ओह प तिवारी जी के राय लेबे खातिर . दिनभर तिवारी जी के जीवनसंगिनी लीलावती देवी के चाह के केतली चूल्हा प चढ़ले रहत रहे . तिवारी जी बहुते गहराई में जाके केहू के कविता भा कहानी पर बात करत रहलन . हमार बेरा रहे साँझ के . रोज़ हम उन्हुका दुवारी चहुँपत रहीं | उन्हुका के सुनला प साहित्य के ढेर खुराक मिल जात रहे . साँच कहल जाय त हम मार्क्सवाद पढ़ि के कम, उन्हुका के सुनि के ढेर सीखले आ जनले रहीं . ऊ जन पक्षधर आलोचक रहलन | तिवारी जी हमार बी.ए.(अॉनर्स ) के रिजल्ट सुन के बहुते अगराइल रहन . ऊ ओहघरी हमरा से कहले रहन कि ‘तूँ एम.ए.में जे.एन.यू. में जाके एडमिशन ले ल . ओहिजा दिल्ली में  जाके सिविल के कंपीटशन के तैयारियो कर सकेल .’

हम ओहघरी उन्हुका बात प गंभीर होके ना सोचले रहीं . हम कहले रहीं कि ना हम एहिजे पढ़ब . ई एगो नीमन भा बाउर संजोगे कहल जाई कि ओही साल आरा जैन कॉलेज में हिन्दी में पी.जी. के संबद्धता मिलल रहे . हमार मन आरा छोड़े के ना करत रहे . हम आरा में जाके आरा के हो गइल रहनी . गाँव छोड़े के बेर सन् 1977 के जुलाई में भोंकार पार के रोवल रहीं आ अब आरा से माया लागि गइल रहे | आरा के माया ओहघरी दिल्ली जाए से रोक देले रहे .

हम आरा जैन कॉलेज में एम.ए. हिन्दी में पहिलका बैच के छात्र रहल बानी . सत्र सन् 1984-86 में . ओहघरी हमनी के हिन्दी पढ़ावेवाला प्रोफेसर लोग के सख्या आधा दर्ज़न से ज़ादा रहे –डॉ. जितराम पाठक पहिलका विभागाध्यक्ष रहलन. ऊ पहिले एम.वी.कॉलेज,बक्सर में पढ़वले रहलन. उन्हुका अलावा डॉ.कपिलदेव पांडेय,डॉ.चंद्रभूषण तिवारी,डॉ.दीनानाथ सिंह,डॉ.लक्ष्मीकांत सिन्हा,डॉ.रमेश चंद्र पाठक,डॉ.नथुनी सिंह,डॉ.गदाधर सिंह आदि पढ़ावत रहे लोग. एह में लक्ष्मी कांत सिन्हा ‘गोदान’ पढ़ावसु त तिवारी जी पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अलावा ‘मैला आँचल’ पढ़ावसु. जितराम पाठक जी ‘पद्मावत’ के नखशिख बरनन पढ़ावसु त रमेश चंद्र पाठक भारतीय काव्यशास्त्र पढ़ावसु. कपिलदेव पांडेय भाषा विज्ञान पढ़ावसु त दीनानाथ सिंह हिन्दी साहित्य के इतिहास,’कामायनी’ आ ‘ऊर्वशी. जितराम पाठक जब पद्मावती के नख-शिख बरनन पढ़ावसु त बहुते मेंही ढंग से रस लेसु. दीनानाथ सिंह के आवाज़ आ बोले के लहज़ा बहुते सुन्नर रहे. हमनी के उन्हुका क्लास में ‘कामायनी’ आ ‘ऊर्वशी’ पढ़त बेर अपना के मनु आ पुरुरवा समझे लागत रहीं जा. केवनो क्लास के छात्र जब खिड़की के ओर देखे लागत रहे त दीना बाबू नाव लेके टोकसु. आपन नाव के साफ़ उच्चारन  गुरुदेव के खनकदार आवाज़ में सुन के बहुत सोहावन लागत रहे. उन्हुकर आवाज़ ग्लैमरस रहे. हमरा नीक से इयाद परत बा कि चंद्रभूषण तिवारी के क्लास क के जब बाहर निकलत रहीं जा त लागे कि एगो विचार के गहिरारेे नदी में गोता भा डूबकी मार के बहरियाइल बा आदमी. नथुनी बाबू निबंध पढ़ावसु आ कहसु कि हम कहानी-क़िस्सा से ज़ादा महत्व निबंध विधा के दिहिला. कहानी में भा उपन्यास में ऊहे नू बा जेवन समाज में देखत बा आदमी . निबंध से ज्ञान बढ़ेला. दृष्टि साफ़ होला. हम एही से यात्रा में मौका मिलेला त रामचंद्र शुक्ल के निबंधन के  पढ़िला. कपिलदेव पांडेय क्लास में रोज़ पहिले गुरु महिमा के बखान क के तब पढ़ावे शुरू करसु . पहिले ऊ शिष्य लोग के डेरवावसु. क्लास में अनुशासन क़ायम करे के एगो उन्हुकर अजगुते तरीका रहे जेवन मनोवैज्ञानिक रहे .

एक बेर रमेश चंद्र पाठक क्लास में भाषा विज्ञान पढ़ावत बेर बेहोस हो गइल रहन . बाद में पता चलल कि ऊ  उन्हुकर हार्ट अटैक रहे . उन्हुका के कुर्जी हॉस्पीटल में पटना-दानापुर भरती करवावल गइल रहे . हमनियों के दू-चार गो छात्र हॉस्पीटल तक गइल रहीं जा . बाद में ऊहाँ के परिवार एतना संजम कइलस कि ऊहाँ के बिल्कुल नीरोग हो गइलीं . ऊहाँ के मंसा पाँड़े के बाग़,आरा में मकान बा आ नब्बे साल के ऊपर अबहियों ऊहाँ के जियत बानी.लक्ष्मी बाबू के पढ़ावे के तरीका बतकही आ संवाद वाला रहे . ऊ एतना रोचक बतकही करसु ‘गोदान’ प कि हमनी के नीमन श्रोता बन जात रहीं जा. ऊ हिन्दी उपन्सास प चरचा के क्रम में विश्व के हर भाषा के उपन्यासन प चरचा करसु. खेल -खेल में. गदाधर बाबू नाटक पढ़ावत रहलन.

ऊ समइया हमनी के भीतर अबहियो समाइल बा,दिल के हर कोना-अंतरा में. हमार उमिर रहे ओह घरी तेईस-चउबीस साल के . हमार जेवन यारी आ दोस्ती भइल रहे सन् 1980 से 85-86 के भीतर ओकर अमिट परभाव परल हमरा जिनगी प . कहल जा सकेला कि बीस से पचीस के वय के भीतर जेवन यारी आ दोस्ती होला ओकर ता -ज़िंदगी असर रहेला . ऊ दौर हमरा जिनगी के सबसे ऊर्वर आ एनरजेटिक दौर रहल बा . सन् 1985 में 06 जून के हमार बियाहो भइल रहे,आरा-पटना मुख मारग प, सात-आठ किलोमीटर पूरब क़ायमनगर में. चद्रभूषण तिवारी के छोट भाई चंद्रमौलि तिवारी के बड़ बेटी इंदु से.

जब पाठक ने एक नहीं तीन किताब मंगाए

माला वर्मा, अभी तुरंत मिली किताब “आपन आरा”. सचमुच ये आरा मेरा भी है, बस पन्ने पलटी हूं, पूरा पढ़ कर लिखूंगी. चंद्रेश्वर जी और रश्मि प्रकाशन का आभार. तीन किताब एक संग मंगाया है ताकी बाकी घरवाले भी पढ़ सके. मैं आरा की बेटी हूं इस बात का मुझे गर्व है. आरा के सभी साहित्यकार लोगों का मेरा आभार है, खासकर मिथिलेश्वर जी का जिनके सानिध्य में बहुत कुछ जानने सुनने को मिला. कुछ लिखने की ललक बढ़ी. और सबसे बड़े प्रेरणाश्रोत मेरे अम्मा पापा थे , लाख व्यस्त रहते थे फिर भी दोनों को कुछ न कुछ अलग हट कर पढ़ना था. बचपन से यही माहौल देखा और फिर पढ़ने के साथ साथ मैंने कलम भी उठा लिया, लिखने लगी और अब तक मेरी 42 किताबें आ गई हैं. ये सब आरा की मिट्टी का असर है. अम्मा पापा तो अब रहे नहीं किंतु उनका आशीर्वाद, वरद हस्त अपने सिर पर आज भी महसूस करती हूं. हर पल हर दिन, आरा मेरे साथ होता है. अब उस आरा वाले घर में मेरा छोटा भाई डॉक्टर विनीत सिन्हा अपनी पत्नी रजनी के साथ रहते हैं और उस मंदिर रूपी घर को संभाल रखा है. मेरे पापा डॉक्टर वीरेंद्र मोहन सिन्हा  जो रमनी बाबू के नाम से ज्यादा चर्चित थे.

रवींद्र भारती

By pnc

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