विश्व रक्त दाता दिवस 14 जून पर विशेष
कॉलेज के दिनों में और बाद में भी मेरे पास ब्लड डोनर और उनके ब्लड ग्रुप की सूची हुआ करता था
वो पुलिस थाने में बैठ कर सम्मान के साथ चाय पीने का पहला अनुभव था. मैं उत्तरकाशी के एक थाने में अपने चार दोस्तों के साथ बैठकर चाय सुड़क रहा था और पुलिस वालों की आंखों में अपने लिए आदर के भाव महसूस कर रहा था.
ये सितंबर 1989 की बात है. हॉस्टल से पांच दोस्त गंगोत्री घूमने के लिए निकले. गंगोत्री पहुंचने से पहले रात को उत्तरकाशी में ठहरना था. दो कमरों में सामान रखकर ढाबे पर खाना खाया और सड़क पर टहलने लगे. अचानक एक पुलिस वाला मेरे सामने आकर ठिठक गया. हम कुछ सोच-समझ पाते उससे पहले उसने सिर से टोपी उतारी और मेरे पैरों पर झुक गया.
मैं हड़बड़ा गया. पांव छूने वाले वर्दी धारी को मैं बिल्कुल नहीं पहचानता था. कुछ पूछता उससे पहले उसी ने पूछा – ‘साहब, आप अगस्त्य जी हो ना.’
मैंने कहा – हां.‘आपने मेरी मां को एम्स में ब्लड डोनेट किया था.’
मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था. इतना जरूर था कि मैं हर तीन महीने पर एम्स जाकर ब्लड डोनेट करता था. कभी कोई जरूरतमंद दिखता तो वॉल्युंट्री डोनेशन के बजाय उसी के लिए रक्तदान करता. लेकिन ऐसे किसी भी जरूरतमंद को बाद में पहचान पाना मेरे लिए नामुमकिन था.
रक्तदान की आदत कॉलेज में ही लगी थी. किसी पर क्रश आया. उसने ब्लड डोनेशन शिविर में ब्लड डोनेट किया तो पीछे-पीछे मैं भी ब्लड डोनेट करने पहुंच गया. बाद में जरूरतमंद मरीजों के लिए ब्लड डोनेशन की अहमियत समझ में आई तो हर तीन महीने पर ब्लड डोनेट करने की ठान ली.
युवावस्था के दौरान हर फैसला सही नहीं होता है. लेकिन ब्लड डोनेशन वो सोच थी, जिसने आज तक मुझमें आत्मिक संतोष का भाव बनाए रखा है.
रक्तदान का सिर्फ मानवीय पहलू ही नहीं है.
29 जनवरी 2019 – झारखंड में खूंटी जिले के अड़की में सीआरपीएफ कोबरा यूनिट के साथ मुठभेड़ में घायल एक नक्सली को रांची के राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में भर्ती कराया गया. डॉक्टरों ने उसे बचाने के लिए फौरन खून की जरूरत बताई. उस नक्सली की जान सीआरपीएफ के कॉन्स्टेबल राजकमल ने खून देकर बचाई.
8 फरवरी 2018 – झारखंड के पलामू जिले में सीआरपीएफ के साथ मुठभेड़ में महिला नक्सली मंजू बैगा घायल हो गई. सीआरपीएफ की उसी यूनिट के कॉन्स्टेबल गुलजार ने उसे खून दिया, जिसके साथ मुठभेड़ में मंजू बैगा घायल हुई थी.
ऐसे उदाहरणों की भरमार है, जो निश्चित रूप से समाज से विमुख तत्वों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए गंभीरता से विचार करने पर प्रेरित करते रहे हैं.
कॉलेज के दिनों में और बाद में भी मेरे पास ब्लड डोनर और उनके ब्लड ग्रुप की सूची हुआ करता था. एम्स में इलाज के लिए दूरदराज से परिचितों का आना-जाना लगा रहता है. अक्सर मरीजों को खून की जरूरत पड़ती रही है. ज्यादा परेशानी तो प्लेटलेट्स को लेकर होती है. ब्लड ग्रुप के हिसाब से ही प्लेटलेट्स चढ़ाना पड़ता है. उसे दूसरे ग्रुप के खून से बदला नहीं जा सकता. लिहाजा अलग-अलग ब्लड ग्रुप वालों की सूची जरूरी थी. नौकरी के दौरान एचआर विभाग के पास भी ब्लड डोनर और उनके ब्लड ग्रुप की सूची देखने को मिली.
इंटरनेट के युग में ब्लड डोनर की लिस्ट बनाने का काम आसान हो गया है. कई वेबसाइट हैं, जो देश-दुनिया के लगभग हर हिस्से में जरूरतमंदों को खून मुहैया कराते हैं. निश्चित रूप से हम सभी को ब्लड ग्रुप का पता लगाने वाले ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक कार्ल लैंडस्टेनर का आभारी होना चाहिए, जिन्हें उनकी खोज के लिए 1930 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और जिनके सम्मान में 2004 से संयुक्त राष्ट्र संघ ने हर साल 14 जून को रक्तदान दिवस मनाना आरंभ किया.