निरर्थक प्रलाप
सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है. संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई के बाद कोर्ट अब सिर्फ सरकार से यह जानकारी मांगेगी कि लोगों की कठिनाई दूर करने के लिए क्या किया जा रहा है. नोटबंदी के आठ दिनों बाद इसपर रोक लगाने या इसकी मांग करने का कोई औचित्य भी नहीं था. जाहिर है कि इस मामले में याचिकाकर्ताओं के तर्क से सुप्रीम कोर्ट सहमत नहीं हो पाया. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार के इस फैसले पर न्यायपालिका की मुहर लग चुकी है. भारतीय अर्थ व्यवस्था को स्वच्छ करने की दिशा में यह ऐतिहासिक फैसला है. इधर शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए विपक्ष एकजुट है. लेकिन विपक्ष के पास भी कुल मिलाकर वही तर्क हैं जो सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वालों के पास थे. दूसरी तरफ यह भी सच है कि विपक्ष के कुछ नेताओं के पास काले धन का भंडार होने की लंबे समय से चर्चा रही है.
आय से अधिक संपत्ति के कई मामलों में उनकी गर्दन फंसी हुई है. उनके खिलाफ कई मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैंं या आयकर और सीबीआई जैसी एजेंसियों के पास जांच के क्रम में हैं. काले धन के मामले में विपक्ष के कई नेताओं की भूमिका संदिग्ध रही है. उनके समक्ष विस्वसनीयता का संकट है. इसके कारण भी वे इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना के लिए आम जन का विश्वास हासिल नहीं कर सकते. सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं पर काला धन जमा करने का कोई गंभीर आरोप नहीं है. विपक्षी दलों को अपनी जमीन का अहसास है. इसीलिए सरकार को घेरने के लिए सिर्फ नोटबंदी के मुद्दे को वे पर्याप्त नहीं मान रहे हैं. इसके साथ भोपाल एनकाउंटर, वन रैंक वन पेशन, मीडिया पर प्रतिबंध जैसे मुद्दों को भी उठाने की तैयारी है. उनका एकमात्र मकसद लोकसक्षा के संचालन को बाधित करना रह गया है. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अब सरकार के नोटबंदी के फैसले पर किसी मंच से सवालिया निशान उठाने का कोई औचित्य नहीं है. घोषणा के आठ दिनों बाद इसे लागू करने के तरीके पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते. अब कठिनाइयां दूर की जा सकती हैं, स्थिति को जल्द से जल्द सामान्य बनाने के प्रयास किए जा सकते हैं लेकिन जो हो चुका उसे वापस नहीं किया जा सकता. तमाम असुविधाओं के बावजूद जब आम जनता इस फैसले को सही मान रही है और परेशानियां झेलने को तैयार है तो विपक्ष सरकार को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकता. कालेधन के खिलाफ लड़ाई पर आपत्ति व्यक्त करना उनके लिए आत्मघाती होगा. इस मुहिम के लिए अगर उनके पास कोई बेहतर योजना हो तो जरूर वह स्वीकार्य हो सकती है.
नोटबंदी लागू करने के लिए मोदी सरकार ने जो तरीका अपनाया दरअसल उसके अलावा इसका कोई रास्ता भी नहीं था. नोट बदलने की मुकम्मल तैयारी के क्रम में गोपनीयता भंग हो सकती थी. फिर इस योजना का कोई लाभ नहीं होता. सारा काला धन खपा लिया जाता. घोषणा के तीन चार घंटे के अंदर सर्राफा बाजार से लेकर मुद्रा विनिमय केंद्रों तक नोट खपाने की जो कवायद की गई और अभी भी जिस तरह के तिकड़म आजमाए जा रहे हैं, ज्यादा समय मिलने पर उसमें और तेजी आती. इस योजना से काले धन का खात्मा भले नहीं हुआ हो लेकिन एक जोरदार झटका तो जरूर लगा है. यह सच है कि अभी नकद पैसों के प्रचलन वाले खुदरा बाजार का भट्ठा बैठ गया है. बाजार में सन्नाटा छा गया है. छोटे नोटों की कमी ने अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी है. सरकार स्थिति से निपटने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है. फिर भी अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने और स्थितियों को सामान्य अवस्था में लाने में समय लगेगा. योजना के फलाफल की समीक्षा उसके बाद ही हो सकेगी. मोदी सरकार की नीयत पर किसी को संदेह नहीं है. इसीलिए काले धन के खिलाफ उनके अभियान को व्यापक जन समर्थन मिल रहा है. अब इस फैसले को खुले मन से स्वीकार करना और लोगों को राहत पहुंचाने में मदद करना ही एकमात्र उपाय है. अनावश्यक प्रलाप से कुछ होना जाना नहीं है.
नैतिकता का संकट
अभी नए नोट बाजार में आए चार दिन भी नहीं हुए और उसकी फोटोकॉपी चलाने, नकली छापने के प्रयास शुरू हो गए. हैदराबाद में फोटोकॉपी का एक दुकानदार दो हजार के नोट की रंगीन फोटोकॉपी चलाने के आरोप में पकड़ा गया. तरनतारन में भी इस तरह का मामला सामना आया. नोट बदलवाने के मामले में तरह-तरह की अनियमितताओं की खबरें आ रही हैं. नोएडा में एक बैंक मैनेजर बैंक बंद होने के बाद कमीशन लेकर लाखों के नोट बदलने के क्रम में पकड़ा गया. पुराने नोटों को तीस से चालीस फीसदी कमीशन पर बदलने की शिकायतें मिल रही हैं. इस तरह की प्रवृति पूरे देश में देखी जा रही है. छोटे नोटों की किल्लत को देखते हुए एक दूसरे की मदद करने की जगह इसका लाभ उठाने की कोशिश बड़े पैमाने पर हो रही है. छोटे नोटों की जमाखोरी भी संकट में इजाफा कर रही है. नोटबंदी के फैसले पर व्यापक जन-समर्थन के बावजूद इस तरह के मामले सामने आ रहे हैं. यह भ्रष्टाचार और दलाल मानसिकता के ग्रासरूट तक पहुंच चुकने का सूचक है. लोग आसानी से कमाई का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते. ऐसे लोगों की तादाद भले कम हो लेकिन समाज के हर वर्ग में उनकी मौजूदगी है.
नोटबंदी के दौरान देश में नैतिकता के घोर संकट का आभास हो रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अर्थतंत्र में पारदर्शिता लाने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं उसका एक बड़ा मोर्चा लोगों के अंदर तक पैठ जमा चुकी यह दलाल मानसिकता भी है. इसे सिर्फ कानून के डंडे से पराजित नहीं किया जा सकता. यह एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई है. इसे बहरहाल लड़ना ही होगा. सकारात्मक सोच और सही मानसिकता को प्रोत्साहित करके और गलत प्रवृति का सामातिक बहिष्कार कर इसपर एक हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है. लेकिन इस मोर्चे पर जंग के तौर-तरीकों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. मोदी सरकार देश को जिस दिशा में ले जाना चाहती है उसके लिए नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना जरूरी है. इसके बिना स्वच्छ समाज की स्थापना नहीं की जा सकती. आदर्श गुणों से युक्त जिम्मेदार नागरिक ही एक आदर्श समाज की स्थापना कर सकते हैं.