पहला सत्र कार्यक्रम हमारा शहर-हमारे गौरव नलिन विलोचन शर्मा:कृतित्व स्मरण
दूसरा सत्र― राममनोहर लोहिया : विचार की प्रासंगिकता
तीसरा सत्र― पानी जैसा देस : लोकार्पण और बातचीत
प्रथम सत्र वक्ता : तरुण कुमार, विनोद तिवारी, अजय आनंद
पटना, कला, संस्कृति एवं युवा विभाग बिहार सरकार पटना के सहयोग से भारतीय नृत्य कला मंदिर में राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित किताब उत्सव के चौथे दिन विभिन्न सत्रों का आयोजन हुआ. किताब उत्सव के चौथे दिन हमारा शहर, हमारे गौरव की श्रृंखला में बिहार स्कूल के यशस्वी आलोचक, रचनाकार, अध्यापक और सम्पादक का कृतित्व स्मरण किया गया. वक्ताओं ने नलिन विलोचन शर्मा की रचनाओं और व्यक्तित्व के बारे में चर्चा की. नलिन जी का महत्व रेखांकित करते हुए अजय आनंद ने कहा कि नलिन जी अपने समय में पटना के साहित्य प्रेमियों और विद्यार्थियों के लिए बेकन लाइट जैसे थे. उन्होंने बिहार में साहित्य लिखने पढ़ने वाले का पलटन तैयार कर दिया था, जिसमें से कई लोग राष्ट्रीय स्तर साहित्य जगत में जगह बनाई. दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रो. विनोद तिवारी और पक्षधर पत्रिका के सम्पादक ने नलिन जी की आलोचना और उनके अध्यापकीय व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला. पटना विश्वविद्यालय, पटना के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो.तरुण कुमार ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की. मंच का संचालन धर्मेंद्र सुशांत ने किया.
कार्यक्रम में पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. तरुण कुमार ने कहा कि नलिन विलोचन शर्मा हिंदी के गंभीर आलोचक, कवि-कहानीकार, तात्विक शोधकर्ता, हिंदी साहित्येतिहास के पुनर्निर्माण की चिंता करने वाले, अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों के उद्धारक-संपादक, साहित्य-संगठन कर्ता, पुराने-नये देशी-विदेशी साहित्य के गंभीर अध्येता, रंगमंच और चित्रकला के प्रेमी, एक सफल साहित्य-अध्यापक के साथ अत्यंत सुरुचि सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी थे.आगे उन्होंने बताया कि 1940 से 1960 का दौर हिंदी में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता का दौर था और यही नलिन जी का अपना दौर था. उस समय की हिंदी आलोचना शीतयुद्ध की छाया से ग्रस्त थी. नलिन जी को भलीभांति समझने की कोशिश नहीं की गई और उनपर कलावादी, रूपवादी, निराधार शास्त्रीयतावादी होने के साथ प्रगति विरोधी होने के आरोप लगाए गए.उन्होंने कहा कि वे प्रगतिवाद के प्रशंसकों में थे लेकिन जब उनमें वैचारिक आग्रह प्रबल होता गया तो उन्होंने उसकी संकीर्णता की उचित आलोचना भी की. अपनी आलोचना के द्वारा उन्होंने हिंदी में मैला आंचल को प्रतिष्ठित किया और प्रेमचंद के गोदान के शिल्प पर बिल्कुल नए ढंग से विचार किया. हिंदी में अभी उनका समय का मूल्यांकन बाकी है.
वहीं अन्य वक्ता विनोद तिवारी ने कहा कि आचार्य नलिन विलोचन शर्मा हिंदी आलोचना की पांडित्य परंपरा के आलोचक थे. वे पंडित, प्रोफ़ेसर और आचार्य एक साथ थे. संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी के साथ-साथ फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान उन्हें था. वे हिंदी के इलियट कहे जाते हैं. साहित्य को साहित्य के ही मानदंडों और मूल्यों पर विवेचित व्याख्यायित किए जाने पर जोर दिया. आगे उन्होंने बताया कि गोदान, मैला आंचल आदि उपन्यासों की व्याख्या जिस तरह से नलिन जी ने प्रस्तुत की उन पर आगे बहस और चर्चाएं होती रहीं. मैला आंचल के प्रकाशन के एक साल बाद ही उसकी जो व्याख्या और विवेचन नलिन जी ने किया वह आज तक आलोचकों के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है. वे हिंदी में एक नई काव्य धारा प्रपद्यवाद अथवा नकेनवाद के प्रवर्तकों में से रहे. नलिन जी का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान साहित्येतिहास दर्शन के क्षेत्र में है. हिंदी शोध और दर्शन के क्षेत्र में उनकी पुस्तक साहित्येतिहास दर्शन का योगदान मूल्यवान है.
दूसरा सत्र― राममनोहर लोहिया : विचार की प्रासंगिकता
वक्ता : शिवानंद तिवारी, श्रीकांत, नरेन्द्र पाठक
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में वक्ताओं ने राममनोहर लोहिया के गरीब, किसान और मजदूर हितैषी व्यक्तित्व पर रोशनी डालते हुए उनके द्वारा किए गए आंदोलनों की चर्चा की. श्रीकांत ने 5-6 दिसम्बर 1936 को पटना में उनके दिए भाषण को याद करते हुए बताया कि लोहिया आज़ादी के संघर्ष में गरीब, किसान और मजदूर की भूमिका को अहम मानते थे. आगे उन्होंने बताया कि लोहिया जी ने बिहार में सिविल नाफ़रमानी के प्रयोग किए. उनका नहर रेट विरोधी आंदोलन और विधानसभा के सामने किया गया प्रदर्शन उल्लेखनीय है. वहीं श्रीकांत ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि लोहिया जी अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रबल समर्थक थे और अंतिम व्यक्ति को न्याय दिलाने के लिए उनकी कही गई बातें और उनके विचार आज भी मौजू है. इस सत्र में नरेंद्र पाठक ने बताया कि लोहिया जी की समाजवाद की विचारधारा किसी लिखित वैचारिकी में खोजना, उसके साथ अन्याय है. उन्होंने पिछड़ी और पिछड़ गई जातियों को व्यवस्था में वाजिब हक दिलाने का जो आंदोलन शुरू किया और उसी कोभारतीय संदर्भ में समाजवादी आंदोलन कहा गया. इसकी शुरुआत 1930 के आरंभ में बकाश्त आंदोलनसे होते हुए, अंग्रेजी में फेल वह भी पास, मुंगेरी लाल कमीशन के आधार पर आरक्षण और सप्त क्रांति से संपूर्ण क्रांति तक गया. वहीं सत्र के अन्य वक्ता शिवानंद तिवारी ने बताया कि लोहिया ने बिहार के किसान आंदोलनों को रास्ता दिखाने का काम किया.
तीसरा सत्र― पानी जैसा देस : लोकार्पण और बातचीत
वक्ता : आलोक धन्वा, अरुण कमल, प्रेमकुमार मणि; कविता पाठ : विनय कुमार; सूत्रधार: नताशा
कार्यक्रम के तीसरे सत्र में विनय कुमार की नई किताब पानी जैसा देस का लोकार्पण हुआ. इस सत्र की शुरुआत में विनय कुमार ने अपने नए कविता संग्रह से कविता पाठ किया. वहीं सत्र के वक्ताओं ने विनय की कविताओं पर चर्चा की. इस दौरान प्रेमकुमार मणि ने हिंदी कविता की पूरी यात्रा को रेखांकित करते हुए कहा कि बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में न केवल हिंदी कविता, बल्कि दुनिया की दूसरी जुबानों में भी काव्य प्रवृतियों ने एक नया मोड़ लिया. शीतयुद्ध के दौरान कविता में राजनीतिक प्रश्न प्रधान हो गए थे और उसके अनुरूप ही भाषा, तेवर और उसके अंतर- राग विकसित हुए थे. रोटी और आज़ादी के सवाल प्रमुख थे.इन सवालों के किंचित हल होते ही मनुष्य फिर अपनी दुनिया में लौटा. 1980 के बाद मनुष्य का असली जीवन एक बार फिर से कविता में लौटा. रोटी और क्रांति की जगह फूल,बच्चे और नदियां कविता के विषय बनने लगे. जब नई सदी आई तब फिर एक मोड़ आया. अंधाधुंध विकास ने प्राकृतिक संसाधनों और प्रकृति को इतना दयनीय बना दिया किमनुष्य को लगा इसविकृत दुनिया के साथ वह जी नहीं सकेगा. कविता अब मिटटी, हवा और पानी की चिंता में शामिल हुई.. विनय कुमार का यह कविता संकलन पानी जैसा देस इसी चिंता से हमें जोड़ता है.नदियां, ताल-तलैये, आहर-पोखर हमारे जीवन से अलग हो रहे हैं. ऐसे में मनुष्य के समक्ष न केवल पर्यावरण का संकट घनीभूत हो रहा है, बल्कि वह एक सांस्कृतिक संकट से भी घिर रहा है. यदि कविताओं में पानी सुरक्षित होगा, तब जीवन में भी होगा. कवि विनय की कविताएं बस यही बात बहुत हौले से हमारे कानों में बुदबुदाती हैं. इसी क्रम ने अन्य वक्ताओं ने भी अपने विचार रखे.
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