बुजुर्गों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है
युवा पीढ़ी का स्वतंत्र और बेरोकटोक जीवन जीने की चाहत
बुजुर्गों की संख्या 2011 में 104 मिलियन थी
2021 तक ये संख्या 137 मिलियन तक
दुनिया का सबसे ज्यादा बुजुर्गों वाला दूसरा बड़ा देश भारत
बढ़ती जीवन प्रत्याशा की वजह से दुनियाभर में बुजुर्गों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. बुढ़ापा आने पर हर व्यक्ति में शारीरिक, सामाजिक, बीमारी संबंधी और मनोवैज्ञानिक रूप से कई बदलाव आते हैं, जबकि उनकी जरूरतों, उनकी स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं उतनी तेजी से नहीं बदल पाती. हमारी व्यवस्था जीवनपर्यंत चलती रहती है और कभी-कभी इसमें बदलती जीवनचर्या के हिसाब से बदलाव भी लाया जा सकता है. वर्तमान स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर हमारे लक्ष्य अब काफी बदल चुके हैं. संयुक्त परिवार की जगह स्वतंत्र रहन-सहन की व्यवस्था ने ले ली है. इस रहन-सहन की नई व्यवस्था को लाने में जहां एक तरफ हमारे बुजुर्गों की बढ़ी हुई जीवन प्रत्याशा, आजाद ख्याल और स्वाभिमान का योगदान है, वही दूसरी तरफ युवा पीढ़ी का स्वतंत्र और बेरोकटोक जीवन जीने की चाहत भी है. हालांकि बढ़ती उम्र के साथ कई नई तरह की बीमारियां, अव्यवस्था और अक्षमता भी सामने आती हैं,जिनसे अकेले निपटना मुश्किल होता है.
पिछले कुछ दशकों के दौरान भारतीय बुजुर्गों के असामयिक निधन की बड़ी वजह संक्रामक बीमारियां नहीं बल्कि असंक्रामक बीमारियां और उसके प्रभाव ज्यादा देखे गए. बढ़ती जीवन प्रत्याशा और खराब स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से ही जवानी से बुढ़ापे की ओर कदम रख रहे लोगों और उनकी देखभाल करने वालों के लिए समस्याएं बढ़ती जा रही हैं. अलग-अलग बीमारियों से जूझ रहे बुजुर्गों को उनकी जरूरत के हिसाब से खास स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराना पूरी दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. इतिहास में पहली बार दुनिया के ज्यादातर शख्स आज 60 साल से ज्यादा उम्र तक जीने की उम्मीद रख सकते हैं. ऐसे में बुजुर्गों की बढ़ती आबादी को सुविधाएं मुहैया कराना विश्व के नीति निर्माताओं के सामने बड़ी चुनौती है.
साल 1901 में भारत के बुजुर्गों की तादाद सिर्फ 12 मिलियन थी जो कि 1951 में बढ़कर 19 मिलियन हो गईए 2001 आते-आते ये संख्या 77 मिलियन और 2011 में 104 मिलियन पहुंच गई. उम्मीद है कि 2021 तक ये संख्या 137 मिलियन तक पहुंच जाएगी. दुनिया के दूसरे सबसे ज्यादा बुजुर्गों वाले हमारे देश को इनकी संख्या दोगुनी होने में मात्र 25 साल लगे.
बुजुर्गों की समस्याओं की ज्यादातर वजह अपर्याप्त आमदनी, उपयुक्त रोजगार अवसर की कमी, आवासीय सुविधाओं की खराब स्थिति, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां सामाजिक सुरक्षा का अभाव, बदलती पारिवारिक व्यवस्था से बढ़ते तनाव और दबाव के साथ ही सेवानिवृत्ति के बाद समुचित गतिविधियों का अभाव जैसे कारक रहे हैं. सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बदलाव ने बुजुर्गों के जीने के अंदाज को काफी प्रभावित किया है. इसलिए तनाव और दबाव को नियंत्रित करने के लिए जरूरी नीति बनाने और उन्हें लागू करने की जरूरत हैं.
उम्र के अनुसार आनेवाली अक्षमताओं में कम दिखाई देना, सुनाई देने में दिक्कत, खाना खाने/पचाने में दिक्कत, याददाश्त की कमी और चलने फिरने में परेशानी समेत शरीर के आंतरिक भागों : खासतौर से मल-मूत्र त्याग में परेशानी और कई दीर्घकालीन बीमारियां/गड़बड़ियां शरीर में पैदा हो जाती हैं. तेजी से हो रहे शहरीकरण और अस्वस्थ जीवनचर्या उम्र से संबंधित दीर्घकालीक रोगों जैसे हृदय की बीमारी, कैंसर, मधुमेह इत्यादि की मूल वजह है. बच्चों//रिश्तेदारों पर आर्थिक रूप से निर्भरता, परिवार में खुद निर्णय लेने के अधिकार में कमी और घटती सामाजिक पहचान भी बुजुर्गों के आत्मविश्वास में कमी की वजह बनती है. आनेवाले दिनों में ये स्थिति और भी गंभीर होने की आशंका जताई जा रही है.
बुजुर्ग लोगों के स्वास्थ्य के लिए समुचित खानपान बेहद जरूरी है और ये बुढापे की ओर जा रहे शरीर की पूरी कार्यप्रणाली पर असर डालता है. युवाओं की अपेक्षा बुजुर्ग ज्यादा असुरक्षित होते हैं क्योंकि शरीर के सभी अंगों का सुचारू रूप से काम करना प्रभावित होता है जैसे मांसपेशियों का साथ नहीं देना, हड्डियों में समस्या, पाचन तंत्र ठीक से काम नहीं करना, खून की कमी, चेतना में कमी, घावों को ठीक होने में देरी और लगातार बीमारी/अस्पताल जाना/सर्जरी जैसी स्थितियां अक्सर मृत्यू की वजह बन जाती हैं. बदलाव के इस दौर में बुजुर्गों को कई बार अकेले अपने रोजमर्रा के कार्य करने के लिए छोड़ दिया जाता है जिसका असर उनके स्वास्थ्य और पोषण पर पड़ता है. खाना कम खा पाने और खाने में जरूरी अवयवों के ना होने की वजह से वो साधारण तौर पर पोषक तत्वों की कमी के शिकार हो जाते हैं.
कई स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद उम्रदराज होने का मतलब किसी पर बोझ होना तो बिल्कुल नहीं समझना चाहिए. स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने, बीमारियों की रोकथाम और प्राथमिक उपचार से लेकर प्रशामक उपचार तक सभी का लक्ष्य बुजुर्गों की बची हुई जिंदगी को रोगमुक्त बनाना होना चाहिए. 2002 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक नीतिगत कार्यप्रणाली ‘एक्टिव एजिंग’ जारी की थी, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया गया था कि बुजुर्ग व्यक्ति अपने परिवार, समाज और अर्थव्यवस्था के लिए एक संसाधन बना रहे.
बुजुर्गों की बढ़ती संख्या से कल्याणकारी योजनाएं और स्वास्थ्य देखभाल तंत्र के साथ ही उनके परिवार पर भी दबाव बढ़ता है. सच्चाई ये है कि आनेवाले दिनों में ज्यादा से ज्यादा लोग लंबी आयु को प्राप्त करेंगे. इससे हमारे स्वास्थ्य तंत्र पर संक्रामक बीमारियों और विसंगतियों का बोझ भी बढ़ेगा, जिसका दबाव पूरे समाज पर दिखाई देगा. इसलिए हमारी कल्याणकारी नीतियों/योजनाओं और स्वास्थ्य सेवाओं को उसी अनुरूप बनाए जाने की जरूरत है.
भारत में राज्य सरकारों, गैर सरकारी संस्थाओं और सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय बुजुर्गों के लिए कई जरूरी कार्ययोजनाएं बनाता है और उन्हें लागू करता है. बुजुर्गों के लिए एकीकृत योजना (आईपीओपी) के तहत मंत्रालय कई योजनाएं चला रहा है. वृद्ध आश्रम और आराम घर समेत बुजुर्गों के लिए कई तरह के सुविधा केंद्र चलाए जा रहे हैं.
मोबाइल मेडिकेयर यूनिट अलजाइमर/डिमेंसिया से पीड़ित वृद्ध लोगों के लिए डे केयर सेंटर, बुजुर्ग विधवाओं के लिए सर्व सुविधा युक्त स्वास्थ्य केंद्र, फिजियोथेरेपी क्लिनिक, क्षेत्रिय संसाधन और ट्रेनिंग केंद्र के साथ ही दूसरी कई योजनाएं वृद्धों को ध्यान में रखकर चलाई जा रही हैं.
स्वस्थ बुढापे की अवधारणा का प्रचार-प्रसार किए जाने की जरूरत है, जिसमें बुजुर्गों का बीमारियों से बचाव, उनका उत्साह बढ़ाना, देखभाल और उनके पुनर्वास की सुविधा देना शामिल है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉ. चटर्जी कहते हैं कि ‘हमें मिलकर बुजुर्गों की देखभाल पर लगने वाले खर्च से ऊपर जाकर ये सोचना होगा कि एक वृद्ध और अनुभवि व्यक्ति जो स्वस्थ और खुश है वो पूरे समाज की बेहतरी के लिए कितना बड़ा योगदान कर सकता है.‘हमारे बड़े-बुजुर्गों ने अपने जीवन में जो अनुभव हासिल किए हैं वो हमारे लिए खजाना है. हमें उनका आदर और उनकी देखभाल करनी चाहिए. एक कहावत है- बड़े-बुजुर्गों के चरण ही दुनिया की सबसे बेहतरीन कक्षा है.‘
संतोष जैन पस्सी/आकांक्षा जैन