ये है आज की गौरैया की कहानी

pic Sanjay Kumar

हमसब के घर आंगन में नजर आने वाली गौरैया के संरक्षण के लिए हर साल 20 मार्च को हम गौरैया दिवस मनाते हैं. 20 मार्च 2010 को ‘विश्व गौरैया दिवस’ की जब शुरुआत हुई थी तबसे हर ओर गौरैया संरक्षण को लेकर गोलबंदी दिखती है. गौरैया के संरक्षण के प्रयास में लगे संजय कुमार कहते हैं, घरेलू गौरैया के गांव और शहरों से विलुप्त होना या कम होना या गायब होना या फिर पलायन करने का सवाल भी सामने आया. एक शहर या गांव से गायब है तो दूसरे शहर या गांव में दिखती है. एक मोहल्ले में दिखती है, दूसरे में नहीं. ऐसे में गौरैया पर स्टेट ऑफ इंडियनस बर्ड्स 2020 रेंज, ट्रेंड्स और कंजर्वेशन स्टेटस की रिपोर्ट चौंकाती है, भारत में 25 साल से गौरैया विलुप्त नहीं बल्कि स्थिर है. सवाल हिचकोला मारने लगाता है, तो यह हर जगह दिखती क्यों नहीं? कुछ लोग कहते हैं पहले हमारे यहां दिखती थी अब नहीं दिखती. कुछ लोग कहते हैं कम दिखती है. छोटे शहरों की तुलना में मेट्रो शहरों में कम हुई. वजह, आवासीय संकट, आहार की कमी, कीटनाशक का प्रयोग, बढ़ता प्रदूषण आदि। कमी के पीछे मोबाइल टावर के दोष को पुख्ता नहीं माना.

संजय कुमार

गौरैया के दिखने या नहीं दिखने पर बिहार के कुछ शहरों / गांवों की कहानी से समझते हैं. 2013 में गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित करने वाले बिहार की राजधानी पटना शहर तेजी से अपार्टमेंट संस्कृति के कब्जे में जा रहा है. हर ओर बहुमंजली इमारत खड़ी है. इसके बावजूद पुराने और छोटे घर भी हैं. पुराने मोहल्ले बरकरार हैं लेकिन, ये सिमटते जा रहे हैं. मोहल्ले में भी अपार्टमेंट संस्कृति प्रवेश कर चुकी है. फूस और खपरैल के घर नहीं के बराबर हैं. संजय कुमार कहते हैं कि विकास ने छोटे बड़े पेड़ों को रौंद डाला है. घरों के आगे पीछे बाग-बाड़ी नहीं के बराबर है. कई मोहल्ले में सिर्फ घर ही घर है, बाग-बाड़ी – बगीचा-पेड़ नहीं है. पटना के पुराने इलाकों में कंकड़बाग के हनुमाननगर, अशोक नगर, चांदमारी रोड, खासमहल, चिरैयाटांड़, संजय नगर एवं पटना सिटी सहित कई मोहल्लो में गौरैया दिखती/रहती है। घर एक दूसरे से सटे हुए हैं.




खपरैल एवं फूस के घर नहीं के बराबर है, फिर भी गौरैया इन इलाकों में वर्षों से रह रही है. पीसी कालोनी के कई इलाकों में गौरैया रहती है. यहाँ पेड़ हैं लेकिन, ज्यादा नहीं. इसकी वजह साफ है. गौरैया एक घरेलू पक्षी है जो स्वभाव से मनुष्यों के बीच ही रहती है. यहाँ इसे अमूमन हर घर के आगे पीछे गली रास्ते में दाना-पानी यानी आहार मिल जाता है. घरों के सटे रहने से आराम से कहीं जगह देख बैठ जाती है. अंडे देने के लिए किसी के घर के अंदर, बाथरूम के पाइप,ऐसी के नीचे, दुकान की सटर या वेंटिलेशन आदि में. कई घर बंद भी रहते हैं तो ये वहां रहने लगती हैं. पेड़ की कमी, बिजली के तार और लटकते केबल दूर करते हैं. इन पर यह बैठी दिखती है. घरेलू गौरैया पेड़ पर बैठती जरूर है लेकिन, घोंसला नहीं बनाती है. घोंसला के लिये इंसानों के घरों को ही पसंद करती है. संजय कुमार कहते हैं कि पटना, कंकड़बाग के डॉक्टर्स कालोनी में सैकड़ों गौरैया झुंड में रहती, उड़ती है और शाम होते ही आसपास के छोटे बड़े पेड़ों पर रात गुजारने के लिये बैठ जाती थी. एक अपार्टमेंट के आगे लगें गुलमोहर के पेड़ पर 2016 तक सैंकड़ों गौरैया झुण्ड में शाम में आती और बैठ जाती थी.लेकिन, 2017 में जब एक पैथलैब ने अपना जेनरेटर सेट लगा दिया तो उसके धुंआ और आवाज़ से होते प्रदूषण को देखते गौरैया उस पर बैठना छोड़ दी. बल्कि उस इलाके में वह झुंड सैकड़ों की संख्या अब नहीं दिखती. हालांकि, इस इलाके में गौरैया लगभग 25 साल से भी ज्यादा वक़्त से हैं. वहीं, पटेल नगर में एक घर के हाते में एक शमी पेड़ पर सैकड़ों गौरैया रहती थी. शाम होते ही इस पर बैठ रात गजारती थी. लेकिन 2021 के जनवरी माह में. सैकड़ों गौरैया रहती थी. शाम होते ही इस पर बैठ रात गुजारती थी. लेकिन, 2021 के जनवरी माह में पेड़ के सूख जाने के बाद उस पर अब नहीं आती, बल्कि अब उस इलाके में नहीं दिखती है. जाहिर है पलायन कर गयी. अशोक नगर मोहल्ले के एक के घर के अंदर बाथरूम में लगे पाइप के ऊपर गौरैया जोड़ा ने घास-फूस लगा कर घोंसला बनाया. अंडे दिये और तीन बच्चे भी हुए. वहीं, एनटीपीसी कालोनी बाईपास, पटना में लेखक अशोक कुमार के घर के अंदर वेंटिलेटर, बिजली के स्वीच बोर्ड और गैरेज में लगे शटर के फांक में कई गौरैया ने घोंसला बनाया। गौरैया के घोंसले को देखते हुये उन्होंने शटर को तब तक नहीं खोला जब तक गौरैया के बच्चे उड़ नहीं गये। रेलवे स्टेशनों पर गौरैया को झुंड में प्रवास करते देखा जा सकता है। पुराने रेलवे स्टेशनों पर सहजता से मिलती हैं। पटना रेलवे स्टेशन पर इन्हें देखा जा सकता हैं। रेलवे स्टेशन रहने और सुरक्षित जगह तो है ही साथ ही उन्हें भरपूर आहार सहज मिल जाता है। यहाँ पेड़ नहीं होने से फर्क नहीं पड़ता है बिजली के तार पर बड़ी संख्या में बैठती है।

वहीँ, नवादा जिले के वारसलीगंज प्रखंड के समीप ही एक गाँव हैं, “बेलधा”, जहाँ से गौरैया गायब हो चुकी है। रोहित कुमार बताते हैं, छुट्टी में जब अपने गाँव गये तो अपने साथ गौरैया के लिए कृत्रिम घोसलें ले गये, ताकि घरों में लगाया जा सके, लेकिन गाँव में बहुत खोजने पर भी एक भी गौरैया दिखाई नहीं दी, न ही उनके एक भी घोसलें का पता चला। कहा जाता है जहाँ गाय और गोबर हो वहां गौरैया का वास होता है। गाँव में पेड़ो की संख्या भी बहुत ज्यादा है, घरों में गाय भी पाले जाते हैं, जिससे वहाँ गोबर भी प्रचूर मात्रा थी। गाँव का मुख्य व्यवसाय भी कृषि है। इतना उचित माहौल होने के बाद भी गौरैया का नामोनिशान नहीं था। बॉक्स को देख गाँव के बुजुर्गों ने कौतूहलवश जानना चाहा कि यह क्या हैं । युवाओं ने गौरैया के घर के बारे में बताया तो वे बहुत मायूस हुये, उन्होंने बताया कि लगभग 15-20 वर्ष पहले उनके घरों में भी गौरैया रहती थी, लेकिन जब से कीटनाशक को खेत में डालने लगे, गौरैया गायब होती चली गई। जहर के प्रयोग से कई गौरैया तो खेतों में ही प्राण त्याग दी थी और फिर गौरैया पूरे क्षेत्र से गायब हो गई। दस कोस के गाँव में भी गौरैया नहीं हैं .

दूसरी ओर, पश्चिमी चंपारण जिले के बगहा दो प्रखंड के सिनगारी गाँव के प्रियदर्श कुमार बताते हैं, पूरा गाँव गौरैया के आवास के लिए प्रसिद्ध हैं। गौरैया यहाँ केवल रहती ही नहीं हैं, बल्कि लोगों के साथ खेलती-कूदती, खाती-पीती भी हैं। इस गाँव का हर घर गौरैया के चहचाहट से गुलजार है। लेकिन कंक्रीट के घर बनने लगे है, फिर भी लोग गौरैया के लिए कृत्रिम घोसला लगा कर रखते हैं या वैसी जगह छोड़ते हैं, जहाँ गौरैया रह सके। वहीं, सिवान जिले के गुठनी गांव के बृजेश कुमार गुप्ता और उदयभान बताते हैं, सरयू नदी के किनारे और हरियाली युक्त होने के कारण आरंभ से ही यहाँ गौरैया का निवास स्थाल रहा हैं। 2008 के पूर्व यहाँ गौरैया बड़ी संख्या में पायी जाती थी। लगभग हर घर इसकी चहचहाहट से गुलजार रहता था। लेकिन, बड़ी संख्या में गौरैया को बहेलियों ने पकड़ कर बगेरी के नाम पर बेचना शुरू कर दिया। धीरे- धीरे गौरैया विलुप्ति की ओर अग्रसर होने लगी। सिवान जिले के ही भगवानपुर हाट प्रखंड में रहने वाले राहुल कुमार बताते हैं गाँव में गौरैया थी। लेकिन, 2010 में गांव के कई घरों में रंग-रोगन के कार्य में डिस्टपर रंग का प्रयोग किये जाने से घरों से गौरैया पलायन कर गयी और छोटे पेड़ों पर रहना शुरू कर दी। 2020 में भीषण बाढ़ आया। लगभग सभी छोटे पेड़ बर्बाद हो गये । जिसके कारण गौरैया एक बार फिर से वापस घरों में लौटने लगी पिछले दो साल में वह पुनः घरों में घोंसला बनाने लगी और पहले की तरह रहने लगी.

पूर्णिया जिले के जयकृष्णपुर कटहा गांव गौरैया के लिए सुरक्षित स्थानों में से एक हैं। यहाँ गौरैया के प्रति लोगों में जागरूक करने में लगी अदिति रॉय बताती हैं, इस क्षेत्र में गौरैया मुख्यतः खेतों में या नदियों के आसपास के घास की झाड़ियों में रहना पसंद करती हैं। लोगों के घरों के आँगन में वे दाना चुगने के लिए हमेशा मौजूद रहती हैं, लेकिन शाम होती ही, वे खेतों के आसपास ख़र-पतवार की झाड़ियों में लौट जाती हैं। जागरूकता आने के बाद अब लोग अपने घरों के आसपास गौरैया के लिए दाना रखने लगे हैं, जिसके कारण उनके भोजन की समस्या कुछ हद तक कम हुई हैं। लेकिन, अब नदी किनारे भी घर बनने लगे है, जिसके कारण अब उनका वह आशियाना भी धीरे धीरे छीन रहा हैं.

सारण जिले के मढ़ौरा में गौरैया विलुप्त होने के कगार पर पहुँच चुकी थी। पर्यावरण योद्धा के अध्यक्ष निशांत रंजन, जो गौरैया संरक्षण में लम्बे समय से जुड़े है कहते हैं, 10 वर्ष पूर्व शमी, नींबू, मालती आदि के पेड़ों पर गौरैया से गुलजार रहता था । लेकिन, बीते वर्षों में ज्यादातर पेड़ों के कट जाने के बाद, वे धीरे धीरे विलुप्ति होने लगी। लोग भी उसे भूलने लगे थे। लेकिन, 2019 में कृत्रिम घोसला लगाया, कुछ ही दिन में उसमें गौरैया के जोड़े ने अपना आशियाना बनाया। इसे देख, बच्चों में एक जुनून आया और घोसलें बनाये एवं लगाये। परिणाम स्वरूप गौरैया की संख्या में तेज़ी से वृद्धि होने लगी, जहाँ पहले 4-5 गौरैया रहती थी अब 10-15 गौरैया रहने लगी। आज मरहौरा के प्रत्येक पांच में से एक घर में गौरैया के घोसलें जरूर हैं.

पटना जिले के मनेर थाना स्थित बलुआ गाँव गौरैया के लिए स्वर्ग से कम नहीं हैं। प्रतीक कुमार बताते है कि उनके जन्म से बहुत पहले उनके पुराने घर के आँगन में अनार का पेड़ था उस पर बैठी रहती थी। लेकिन, जब पुराने मिट्टी का घर को तोड़ कर नया पक्का मकान का निर्माण हुआ, तभी से गौरैया घर को छोड़ कर चली गई। यह देख दादा जी को बहुत दुख हुआ, दादाजी ने गौरैया के लिए 50 से भी अधिक घोसलें बनावा कर पूरे घर में लगवाया। देखते ही देखते गौरैया पुनः घर में रहने लगी। समय के साथ लकड़ी के बने घोंसले टूटने लगे, तो हांडी या सुराही टाँगने लगे। गौरैया उसको उसी प्यार से अपनायी । पटना का बोरिंग रोड का इलाका कंक्रीट का जंगल है। एक अपार्टमेंट की तीसरी मंजिल पर रहने वाली उमा रानी दाना पानी रखने लगी देखते देखते गौरैया सहित अन्य चिड़ियां आने लगी.

ये कहानियां सिर्फ बिहार की नहीं हैं बल्कि पूरे देश की है। जो गौरैया संरक्षण के लिये अहम् हैं। ‘दाना-पानी-बॉक्स और थोड़ा सा प्यार’ अभियान से लोग जुड़ रहे हैं असर भी दिख रहा है। देश भर में सैकड़ों लोगों की पहल से उनके घर-आँगन में रूठी गौरैया के साथ-साथ दूसरी चिड़ियां भी दाना-पानी और बॉक्स में आने लगी । (लेखक – संजय कुमार 2007 से गौरैया संरक्षण से जुड़े हैं.

सभी तस्वीरें साभार- संजय कुमार

By dnv md

Related Post