मेरे नाटक की रचना प्रक्रिया
हर तरह की बाधा उतार चढ़ाव के बाद भी लगभग पिछले एक दशक से बिना रुके मंच पर सक्रिय हूँ , इस बीच रंगमंच का एक विद्यार्थी होने के नाते हर उस चीज़ को अन्वेषण करने की कोशिश कर रहा हूँ जो जीवन से जुडी है क्यों कि जो जीवन से जुड़ा है वही हमारे अंदर समाहित है और हम चाहे जितना भी अपने क्रॉफ्ट का, अपने भावों का, अपने रस का अभ्यास कर लें लेकिन अगर हम अपने अभिनय को वास्तविक जीवन से नहीं जोड़ते हैं तब तक वो एक तकनीकी रूप से अभिनेता द्वारा किया गया प्रयास ही दिखता है , सहज घटित होने वाली घटना नहीं दिखती. ये बात मेरे शुरुआती दिनों में मुझे बहुत परेशान करती थी कि मैं मंच पर जाकर नकली क्यों हो जाता हूँ? मंच पर जा कर मैं वो सब करने लगता था जो मैं अपने दैनिक जीवन में कभी नहीं करता था. लगभग दो सालों के बाद मुझे ये बात समझ में आयी कि मैं अभ्यास गलत करता था,मैं चरित्र को ऊपर से ओढ़ने की कोशिश करता था जो मेरे अभिनय को सहजता और वास्तविकता से काफी दूर ले जाता था.
बाद के दिनों में जब मेरी समझ और बढ़ी और विशेष रूप से जब मैं मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल में छात्र के रूप में पढ़ रहा था उस समय इन सवालों का गंभीरता से सूक्ष्म अध्यन किया. नाट्य विद्यालय में ये बात समझ में आ गयी थी कि अभिनय कहीं बाहर से आने वाली कोई वस्तु या विचार नहीं बल्कि ये गहरे कहीं हमारे अंदर ही घटित होता है. उसके बाद मैं स्वयं के अंदर उतरने की कोशिश करने लगा. जब मैं नाट्य विद्यालय के पढ़ाई के बाद अपने इंटर्नशिप में लगा तब मैंने इसका ध्यान रखा कि मुझे अपने नाटक को ऐसे तैयार करना चाहिये कि उससे नये बच्चे अभिनय के विभिन्न आयामों से गुज़र कर निकले. एक लिखे हुए नाटक में मुझे अभिनेताओं के लिए और एक निर्देशक के करने के लिए कुछ विशेष नज़र नहीं आया , हो सकता है आप मेरी बातों से सहमत न हो लेकिन मुझे ये लगा कि जब नाटक के सारे दृश्य नाटककार ने स्वयं सजा दिए हैं और दृश्य व चरित्र से संबंधित बहुत सारी जानकारियाँ नाटककार ने स्वयं दे दिया है तो अभिनेता और निर्देशक के लिए काम बहुत कम रह जाता है , जब की कहानियों के लिए ये लागू नहीं होता, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे लिखे हुए नाटकों के बजाये कहानियों के मंचन के तरफ मुड़ना चाहिए.
नाट्य विद्यालय में भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निर्देशक देवेंद्रराज अंकुर सर ने कहानी का रंगमंच से अवगत कराया था. मुझे ये नया और चुनौतीपूर्ण लगा मैं इसी दिशा में बढ़ गया. लेकिन समस्या ये थी कि अंकुर सर तो कहानियों का रंगमंच कर ही रहे थे फिर मैं कहानियों के मंचन को करता तो मात्र ये एक दोहराव ही होता और उस समय मैं अपने नाटकों की शैली तय कर पाने में सक्षम नहीं था. उधर नाट्य विद्यालय में देश के वरिष्ठ रंगकर्मी संजय उपाध्याय सर के निर्देशन में हिंदी का पहला नाटक आनंद रघुन्नदन (हमने बघेली भाषा में मंचित किया था) करते हुए गीत और लोक के मिश्रण से उत्पन्न होने वाले प्रभावों को मैं महसूस कर चुका था, वहीं नाट्य विद्यालय में हमारा अंतिम नाटक गोई जिसका निर्देशन किया था #कुमार दास टीएन सर ने इस नाटक में मुझे नाटक में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं की भाषा, उनका कार्य व्यापार, उनका प्रभाव व नाटकों के बनने की प्रक्रिया से गुजरने का अवसर दिया था. इन दो नाटकों ने तब मुझे एक विस्तृत कैनवास दिया जब मैं कहानी के रंगमंच की तरफ बढ़ रहा था. मैंने सबसे पहले बिहार के वरिष्ट नाटककार व कहानीकार हृषिकेश सुलभ सर की कहानी खुला को इसके लिए चुना, जिसका मंचन पकवाघर के नाम से किया.
मैंने हुबहु लिखी हुई कहानी को मंच पर बिना किसी बदलाव के उतारने की कोशिश की, मैंने कहानीयों को नाट्य रूपांतरित कभी नहीं किया बल्कि उसे उसी रूप में मंचित करने का जोखिम उठाया जिस रुप में कहानीकार ने लिखा है. ‘कहानी के रंगमंच’ की तरह ही मैंने अपने नाटकों में भी स्पेस को न्यूट्रल रखा. उसमें कभी किसी तरह का बड़ा सेट नहीं लगाया, हमेशा इसका ध्यान रखा कि रंग वस्तु मंच पर आते-जाते रहे जिससे मंच का एकाकीपन टूट जाये. उनके बाद मैंने अपने नाटक में वस्त्र विन्यास को मूलरूप से किये जाने वाले नाटकों के जैसा ही रखा. मैंने इसमें संगीत का भी भरपूर प्रयोग किया है लेकिन इसका ख्याल रखा कि उन गीतों में लोक बचा रहे, साथ ही अभिनेता पूरे नाटक के कई चरित्र निभाते के लिए स्वतंत्र कर दिए गए. मैंने नाटकों की गति सामान्य बनाये रखने के लिए पूरे नाटक में सारे फेड आउट हटा दिए ताकि देखने वाले को लगे कि उसने किसी कहानी को पढ़ना शुरू किया है और उसने एक बार में पूरी कहानी पढ़ ली. मैंने कहानी के अलग अलग लेयर को प्रकाश के बिम्बों व ब्लॉकिंग के द्वारा अलग किया .
आज लगभग मेरे प्रशिक्षण के प्राप्त करने के 6 साल के लंबे समय के बाद भी मैं देवेंद्र राज अंकुर सर के द्वारा शुरू किया गया “कहानी का रंगमंच” को विस्तारित कर के उसे एक नई रंग भाषा के साथ गढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ , जहाँ दर्शकों को लगे कि उन्होंने कोई नाटक नहीं देखा है बल्कि सच में वो प्रेक्षागृह से कहानी पढ़ के निकले हैं. मैं अपनी नाट्य शैली की तलाश में आगे बढ़ रहा हूँ जिसके केंद्र में अभिनेता है और पृष्ठभूमि में कहानीकार द्वारा लिखित कहानी.
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