चला गया कलाकार छोड़ गया सवाल हमारे चेहरों पर : दीपक तिवारी स्मृति शेष

वह विस्तर पर रोज मरता रहा और उसका परिवार भी रोज तिल-तिल मरता रहा,




पटना. रंग छत्तीसा के संस्थापक व शानदार अभिनेता, गायक,और नर्तक दीपक तिवारी का शनिवार को निधन हो गया. उनसा रंगकर्मी सदियों में एक होता है. वे भारत लोक रंगकर्म के ईश्वरीय देन थे जिन्हें रंगधुनी हबीब तनवीर ने ढूँढा था. 19 अक्टूबर 1959 को जन्में दीपक ने सितारा बिलासपुर के मंगला गांव से अपनी रंग यात्रा की शुरुआत की और दुनिया में अपने रंग का चमक बिखेर राजनांदगांव से शनिवार को विदा हो गया. सबको अपने अभिनय से अविभूत करने वाले दीपक ने बेहद कष्ट, और अभाव में आखिरी साँसे ली. दीपक तिवारी को बेहद करीब से जानने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत सहायक प्रोफेसर एम के पांडेय ने उनके निधन पर गहरा दुःख व्यक्त किया है. दीपक तिवारी को आइये जानते है उनकी जुबानी….

प्रो. एम के पांडेय

Patna now special

उस रोज 2017 का संगीत नाटक अकादमी अवार्ड कलाकारों को हमेशा की तरह राष्ट्रपति भवन में मिलना था. मैं जैनेंद्र के साथ भिखारी ठाकुर के संगी कलाकार रामचंद्र मांझी के लिए गया हुआ था. पुरस्कारों के बाद भोजन के समय व्हील चेयर पर बैठे दीपक तिवारी पत्नी और नया थियेटर की कमाल कलाकार पूनम तिवारी (बाई) और उनकी बेटी से मुलाकात हुई. फिर थोड़ी बतकुच्चन हुई पर अफसोस हुआ कि दीपक न ठीक से बोल पा रहे थे, न ही अधिक हिलडुल रहे थे. पूनम उनको संभाल-संभाल कर सामने वाले की बात बता रहीं थी और साथिन की बात को समझ कर उनकी आँखों की चमक अभी भी मैं महसूस कर और देख सकता हूँ. उन्होंने उनके इलाज में साथियों के सहयोग के बावजूद कमी की बात कितने दर्द से बताया और सजल नेत्रों को छुपा ले गयी थी.
दीपक तिवारी जैसा रंगकर्मी सदियों में होता है. वह भारत लोक रंगकर्म को ईश्वरीय देन थे जिन्हें रंगधुनी हबीब तनवीर ने ढूँढा था. वह नया थियेटर के दूसरे कलाकारों की तरह नाचा से नहीं आये थे बल्कि उनकी यात्रा शहराती रंगकर्म और बरास्ते आर्केस्ट्रा आये थे. दीपक तिवारी टोटल रंगकर्मी थे. शानदार अभिनेता, गायक, नर्तक दीपक ने हबीब साहब कर लगभग सभी प्रमुख नाटकों में अभिनय किया और अपने समय में अपनी प्रतिभा से उन्होंने देश-विदेश में दर्शकों ही नही, बल्कि रंग समीक्षकों में भी अपनी पहचान बनाई.

दीपक तिवारी(फ़ाइल फ़ोटो)

नया थियेटर पर गहरी जानकारी रखने वाले शोधार्थी, रंगकर्मी और शिक्षक आनंद पांडेय ने बताया कि ‘दीपक तिवारी वर्ष 1984 में हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर’ से सम्बद्ध हुए. इस दौरान उन्होंने अनेक नाटकों में अभिनेता, गायक और नर्तक के रूप में अपनी विशिष्ट सहभागिता दी. आधुनिक रंगमंच और लोक रंगमंच के बीच तारतम्य स्थापित करते हुए दीपक तिवारी ने देह का प्रयोग करते हुए अभिनय के नये प्रतिमानों की स्थापना की.उनके द्वारा किये गये नाटकों में- चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी, गांव के नाम ससुरार मोर नांव दमाद, आगरा बाज़ार, हिरमा की अमर कहानी, बहादुर कलारिन, लाल सोहरत राॅय, सोनसागर, सूत्रधार, जिस लाहौर नई देख्या…, देख रहे हैं नैन, कामदेव का अपना…, मुद्राराक्षस, सड़क, शाजापुर की शांतिबाई, जमादारिन आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय रहे हैं.

दीपक तिवारी 2005 तक ‘नया थियेटर’ व हबीब तनवीर के साथ कार्य करने के पश्चात् छत्तीसगढ़ लौट आये. यहाँ आकर उन्होंने ‘रंग छत्तीसा’ नामक समूह की स्थापना की. इस नवीन समूह के माध्यम से दीपक ने मुन्शी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘लाटरी’ का नाट्य रूपांतरण कर उसका निर्देशन स्वयं किया. हालांकि इसके बाद भी वे ‘नया थियेटर’ व हबीब तनवीर से जुड़े हुए थे तथा हबीब साहब द्वारा बुलाये जाने पर दीपक तिवारी नया थियेटर की प्रस्तुतियों में भी प्रस्तुतियाँ देते रहे.”

इसी बीते मार्च में आज़मगढ़ इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के ड्रामा विभाग के अध्यक्ष और रानावि एलुमनी डॉ. योगेंद्र चौबे (Yogendra Choubey ) से उनकी फिल्म ‘ गाँजे की कली’ पर बात करते हुए हम दोनों ने नया थियेटर पर थोड़ी बात की लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर दीपक तिवारी को नायिका के पिता के रोल में (शारीरिक अक्षमता के बावजूद )देखकर खुश हुआ. दीपक के लिए अभिनय क्या था आप उस फिल्म में उनके किरदार को निभाने की क्षमता से देख सकते हैं. हमने थोड़ी बात दीपक तिवारी के बारे में भी की. मंच पर भी और उनकी हालिया स्थिति पर. उनके युवा बेटे सूरज की असमय मृत्यु से परिवार निकला भी नहीं था कि लंबे समय से बीमार चल रहे दीपक तिवारी ने सांसारिक मंच से विदा ले ली. अब परिवार में बेटी और उनकी कलाकार पत्नी पूनम तिवारी रह गए है. दीपक तिवारी का जाना कोई आम मौत नहीं है, यह एक प्रवृति के पनपने और उसके हमारे आसपास दिनों-दिन गहरे होते जाने की भी सूचना है. एक रंगकर्मी जिसने ‘भारत के प्रायः सभी प्रमुख नगरों व महानगरों के साथ-साथ लंदन, पेरिस, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, रूस, मिस्र, शिकागो आदि देशों में भी प्रस्तुतियाँ दी.’ वह अपने स्वास्थ्य के गिरने पर किसी भी तरह के सरकारी मदद से महरूम रहा. जो मदद भी आई वह ऊंट के मुँह में जीरा हुई! दीपक तिवारी की तबियत लंबे समय से खराब थी, उनका जवान रंगकर्मी बेटा भी इलाज के अभाव में गया और अब पिता, यह मृत्यु हमारे सांस्कृतिक नीतियों और रंगकर्म के नीति- नियंताओ और उनके बनाए खोखले नियमों की उपज है, जहाँ एक कलाकार सरकार से उन सांस्थानिक सहयोग के अभाव में इस तरह से इस संसार से विदा लेता है. वे कोई और हैं जिनको रंगकर्म ने दुनियावी ऊँचाईयाँ दी है वहाँ लोक उपस्थित नहीं वहां एक मंचीय अभिनेता किस तरह से सर्वाइव करता है किस तरह से जीवन जीने ओर मजबूर होता है, उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं.

इस लॉकडाउन में रंगकर्मियों और प्रदर्शनकारी कलाओं के कलाकारो की जो हालात हुई उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. कईयों को तो क्या-क्या काम करके जिंदा रहने को लड़ाई लड़नी पड़ी वह कल्पनातीत है. सरकारें या हमारी बनाई व्यवस्था में दीपक तिवारी जैसे कलाकार लंबे समय से जूझकर बिस्तर पर पड़े-पड़े एक रचनात्मक छटपटाहट लिए चले गए है कुछ लाइन में है अपनी बारी के. 😢 पूनम तिवारी को याद करता हूँ जब वह अपने जवान बेटे की मौत पर हबीब तनवीर के बहादुर कलारिन का वह विदा गीत गाती दिखीं – ‘चोला माटी के है राम, एकर का भरोसा चोला माटी के’- कैसे कहा जाए कि वह किस मिट्टी की बनी हैं, क्योंकि महमूद फारूकी के नया थियेटर पर बनाये डॉक्यूमेंट्री में उनका आगमन हुलसाता है जब वह पर्दे पर मुस्कुराकर चहकते हुए कहती है – पूनम जब मरिहै तब नाचे गावे बर छोड़िहे
-(मुझे छतीसगढ़ी नहीं आती, यह संवाद यादाश्त आधारित है) पूनम की वह चहक नीति नियंताओं ने छीनी है क़ुछ हमारी यथास्थितिवादी मानसिकता ने.

दीपक जैसे कलाकार जाते रहेंगे और हम एक सतत अफसोस के साथ यह कहकर आगे बढ़ जाएंगे कि ‘शो मस्ट गो ऑन’- पर हम भी यह जानते हैं कि इस शब्द के भीतर की पीड़ा क्या है! जोकर को देखा है न आपने! जिसके रंगे चेहरे पर मसखरी थी और पार्श्व में उसकी माँ का शव. यही विरोधाभासी स्थिति में आज के कस्बाई रंगकर्मी और बाकी भी जूझ रहे हैं. 19 अक्टूबर 1959 का यह सितारा बिलासपुर के मंगला गांव से निकला और दुनिया जहान में चमक, राजनांदगांव से कल विदा हो गया, बेहद कष्ट में, अभाव में. मरते समाज को जीवन देने वाली बात कलाकारों के लिए कही जाती है पर यहाँ एक कलाकार वर्षों से बिस्तर पर रोज मर रहा था साथ मे उसके घर वाले तिल-तिल मर रहे थे और हम… हमने उनके हिस्से केवल तालियाँ दी उनके प्रदर्शन पर. यह हमारी नैतिकता की मौत, हमारी संवेदनाओं की मौत है. सवाल तो है कि आखिर इस तरह के कलाकार इस तरह से तड़पते जूझते कैसे विदा हो जाते हैं? जाओ दीपक तिवारी जाओ विराट, जाओ छछान, जाओ जाओ जाओ ढल जाओ अब तुम्हरा रोल खत्म हुआ. पर्दा गिरता है.
श्रद्धांजलि 💐💐💐
“चोला माटी के है राम एकर का भरोसा चोला माटी के है राम”

साभार : एम के पांडेय
प्रस्तुति : ओ पी पांडेय

Related Post