महाभारत की कहानी को एक अलहदा व तार्किक नज़रिए से पेश करती है आशुतोष की यह किताब
महाभारत को एक अलहदा व तार्किक नज़रिए से पेश करता एक उपन्यास
पटना (अनूप कुमार पांडेय) | माइथॉजिकल फिक्शन इन दिनों ट्रेंड में है. अमीश त्रिपाठी, अश्विन सांघी, केविन मिशेल, आनंद नीलकंठन जैसे लेखकों की किताबें बाजार में धूम मचा रही हैं. शिव ट्रायलॉजी में अमीश ने शिव को अलग ही रूप में दिखाया तो अश्विन सांघी ने अपने रोमांचक उपन्यास कृष्ण कुंजी में एक मर्डर मिस्ट्री के जरिए श्रीकृष्ण को पौराणिक के बजाय ऐतिहासिक चरित्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश करता है. आनंद नीलकंठन ‘असुर’ और ‘अजेय’ के जरिए रामायण और महाभारत के पराजितों की गाथा एक नए स्वरूप में पेश कर चुके हैं.
ऐसे में आशुतोष नाड़कर की चर्चित किताब ‘शकुनि: मास्टर ऑफ द गेम’ जब मेरे हाथों में आई तो मेरी उत्सुकता बढ़ गई कि महागाथा के इस महाखलनायक के किस तरह से पेश किया गया है, लेकिन उपन्यास की शक्ल में लिखी गई इस किताब में शकुनि को जबरदस्ती हीरो बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई है. न ही मूल महाभारत की कहानी में किसी तरह का बदलाव किया गया है. ये पुस्तक सहज रूप में शकुनि का आत्मकथ्य है, जिसमें शकुनि अपने किए का न तो कोई स्पष्टीकरण दे रहा हैं और न ही कोई पश्चाताप कर रहा है. लेखक ने बहुत ही सरल ढंग से महाभारत की कथा को शकुनि के नजरिए से दिखाने की कोशिश की है.
ये कहानी पाठकों से शकुनि के जरिए पाठकों से सवाल करती है कि क्यों केवल शकुनि को खलनायक कहा जाता है, जबकि जुए में पत्नी को दांव पर लगाने वाले युधिष्ठिर को धर्मराज का दर्जा दिया जाता है. क्यों यहां अपने नवजात पुत्र को नदी में बहा देने वाली कुंती भी एक महान माता मानी जाती है? क्यों अपने वनवासी शिष्य से अंगूठा कटवा लेने वाले द्रोण के नाम पर द्रोणाचार्य पुरस्कार दिए जाते हैं? कथा के आरंभ में ही शकुनि पाठकों से कुछ इस तरह से संवाद करता है-
“आख़िर क्यों मुझे अपराधी कहा जाता है? आख़िर क्यों मैं छल, कपट, धूर्तता का पर्याय बन गया हूं? किसी भी कठोर प्रतिज्ञा का पालन करने वाला व्यक्ति सम्मान का पात्र होता है. तो मैं क्यों नहीं? मैंने भी तो एक प्रतिज्ञा की थी और अपने प्राण का मूल्य देकर भी उस प्रतिज्ञा को निभाया है तो मेरे हिस्से में क्यों श्रद्धा और सम्मान की बजाय केवल और केवल घृणा ही आई. मैंने तो काम के मोह में अपने वंश को दांव पर नहीं लगाया. मैंने तो किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका हरण नहीं किया. मैंने अपने शौर्य के बल पर स्वयंवर में जीती हुई पत्नी को किसी अन्य के साथ नहीं बांटा. मैंने तो अपने दुधमुंहे शिशु को नदी के प्रवाह में नहीं बहाया. मैंने तो द्यूत में अपनी पत्नी को दांव पर नहीं लगाया. मैंने तो भरी सभा में किसी स्त्री को वेश्या नहीं कहा. मैंने तो किसी की प्रतिभा के दमन के लिए उसके हाथ का अंगूठा नहीं मांगा था. तो फिर क्यों मैं ही इस महागाथा का सबसे बड़ा खलनायक हूं.”
शकुनि के नज़रिए से ये कहानी महाभारत के कई दूसरे पात्रों को तार्किक रूप से कटघरे में खड़ा करती है. जैसा मैंने कहा कि यहां महाभारत की मूल कहानी को बदला नहीं गया है. लिहाजा महाभारत की सभी मुख्य घटनाएं यहां भी मौजूद है. प्रमाणकोटि में भीम को विष दिए जाने, वारणावत में लाक्षागृह का निर्माण, द्यूत क्रीड़ा और द्रोपदी वस्त्र हरण का एक अलहदा नज़रिए से वर्णन किया है जो तर्क की कसौटी पर भी बेहद कसा हुआ दिखाई देता है.
जिस प्रकार कहानी की शुरूआत पाठकों से सवाल के साथ होती है उसी प्रकार शकुनि अपनी कहानी का अंत भी इस सवाल के साथ ही करता है-
“मैं ये नहीं कहता कि इस महायुद्ध में कौरवों ने या शकुनि ने छल या कपट का सहारा नहीं लिया, लेकिन शकुनि की प्रत्येक योजना को षड़यंत्र, विदुर की योजना को नीति और यदि योजना श्रीकृष्ण की हो तो उसे लीला मान लेना कैसे स्वीकार किया जा सकता है?
सवाल आपसे भी है कि क्या मैं अकेला या सबसे बड़ा खलनायक हूं इस महागाथा का?”
महाभारत देश के साहित्यकारों के लिए हमेशा से एक रुचिकर विषय रहा है. यही वजह है कि महाभारत की मूल कथा को आधार बनाकर कई कालजयी कृतियां लिखी गई हैं, लेकिन शकुनि की नज़रिए से महाभारत को पढ़ना एक अलग ही अनुभव है. माइथॉलॉजी खासतौर पर महाभारत में रूचि रखने वाले को ये जरूर पसंद आएगी.
पुस्तक- शकुनि: मास्टर ऑफ द गेम
लेखक- आशुतोष नाड़कर
पब्लिशर- जगरनॉट बुक्स
पृष्ठ संख्या- 329
मूल्य- 299