पटना (निखिल के डी वर्मा की रिपोर्ट) | बात शुरू करता हूं जेपी आन्दोलन की. यह आन्दोलन देश में हावी हो रही कथित कानूनी अराजकता और संवैधानिक संकट के विरोध में हुआ था. नतीजा भी बेहतर रहा. केन्द्र से लेकर राज्यों तक सत्ता बदल गई. नई मानसिकता के साथ शासन की शुरुआत हुई. नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों तक सब ठीक रहा. बाद के दिनों में राजनीतिक सोच जाति और धर्म के इर्द-गिर्द घूमने लगा. बिहार में लालू को सत्ता मिली. सामाजिक ताना बाना बदलने लगा. पिछड़ों को पहचान मिली लेकिन समाज में जातीय तनाव फन उठाना शुरू किया. नतीजे के तौर पर सूबे में कई नरसंहार हुए. जातियों को आधार बना कर वोटों का ध्रुवीकरण शुरू हुआ, बल्कि कुछ पार्टियां जाति विशेष के तौर पर पहचान बनाने में कामयाब रही. इन पार्टियों के नेता राज्यहित को दरकिनार करते हुए खुद के लिए जाति के नाम पर गोलबंदी किया. यह दौर भी लम्बा चला, कई अहित हुए, कई जातीय समीकरण बदले. लेकिन एक-दो जातियों के प्रति राजनीतिक पार्टियों का एप्रोच आज भी नहीं बदला है. यहां बात की जा रही है महागठबंधन में लीड रोल में शामिल राजद की.
राजद के शुरुआती दौर में वरीय ब्राह्मण नेताओं के तौर पर शिवानंद तिवारी (जो खुद भी जाति के नेता के तौर पर अपनी पहचान नहीं मानते) और रघुनाथ झा का उल्लेख किया जा सकता है. रघुनाथ झा अब नहीं रहे और शिवानंद बाबा कभी भी जातीय हित की बात करना मुनासिब नहीं समझा. आज समय बदल गया है. लालू और उनकी जातीय दबदबे का जमाना नहीं रहा. समय की मांग है कि नए समीकरण पर राजद काम करे और तेजस्वी के लिए यह एक सुनहरा मौका है. तेजस्वी नए युग के नेता हैं, परवरिश भी खुले विचारों के बीच हुई है और जमाने को भी देखा है. तेजस्वी को आगे आकर राजद के लिए नए परिभाषा गढ़ने की जरूरत है.
शेष बिहार की बात छोड़ भी दें तो मिथिलांचल में ब्राह्मण एक बड़ी ताकत हैं, संख्या बल के साथ-साथ हर मोर्चे पर किसी भी राजनीतिक पार्टी को प्रभावित करने की ताकत रखते हैं. लेकिन अभी तक का ट्रेंड बता रहा कि राजद इस मुद्दे को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है. पिछले साल राज्यसभा के लिए जब मनोज झा राजद की तरफ से निर्वाचित हुए तो ब्राह्मणों में एक अच्छा संदेश गया. उम्मीद की जा रही थी कि लोकसभा में राजद ब्राह्मणों को बेहतर तवज्जो देगा. ब्राह्मणों की तरफ से भी हाथ बढ़ाए जाने जैसी शुरुआती रूझान भी मिलने लगे. अब सबों की निगाह मिथिलांचल औऱ चंपारण के सीटों पर है. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है. राजद हिस्से की बात छोड़ भी दें, कीर्ति झा आजाद को भी कांग्रेस का हाथ नहीं मिला.
चर्चा है कि मिथिला के मशहूर मिश्रा परिवार के सदस्य और देश के नामचीन पत्रकार राजीव मिश्र भी इस बार लोकसभा चुनाव में किस्मत आजमाने के इच्छुक हैं. राजद उन्हें अपना प्रत्याशी बनाए, इसके लिए पिछले साल से कोशिश भी चल रही है. बताया तो जा रहा है कि राजीव मिश्र की मुलाकात सुप्रीमो लालू और युवराज तेजस्वी से हो चुकी है और संकेत भी मिले हैं. खुले तौर पर अस्वीकार करते हुए राजीव मिश्र इशारों इशारे में कहने से नहीं चूकते कि राजद को इसका फायद विधानसभा में मिलेगा. बकौल राजीव मिश्र ‘राजद का बड़ा स्टेक बिहार विधानसभा चुनाव है और लालू जी चाहते हैं कि तेजस्वी अगला मुख्यमंत्री बने. जाहिर है इसके लिए राजद को अपने जातीय दायरे को रीडिफाइन करना होगा. पुरानी बातों को भूलना होगा और नए सिरे से अगर नए बिहार का निर्माण करना है तो मिथिलांचल की बड़ी ताकत, ब्राह्मणों को तवज्जो देना होगा. अभी भी देर नहीं हुई है‘. दबी जुबान राजीव मिश्र यह गणित बताने से भी नहीं चूके कि झंझारपुर तो हर हिसाब से जीत के लिए ब्राह्मण प्रत्याशी की बाट जोह रहा है. उनकी मानें तो उस इलाके में लोगों का स्नेह उनके परिवार के प्रति अकल्पनीय है. जाहिर है गेंद राजद के पाले में है. कुल मिलाकर बदले राजनीतिक परिवेश और जरूरत इस बात की है कि महागठबंधन को इस मुद्दे का ध्यान रखते हुए उसे नए समीकरण गढ़ने की जरूरत है.