आरा में मंचित हुआ शेक्सपियर का अभिशप्त नाटक मैकबेथ
4 दिन तक शेक्सपियर-मय रहा नागरी-प्रचारिणी
मंचीय प्रकाश व्यवस्था की घोर रही कमी
आरा, 28 दिसम्बर. रंगमंच की उर्वर धारा, भोजपुर के मुख्यालय कहे जाने वाले आरा में रंगसंस्था “भूमिका” ने मैकबेथ नाटक का मंचन कर अपने रंगमंचीय भूमिका का बखूबी निर्वहन किया. रांगेय राघव दारा हिंदी रुपान्तरित इस नाटक का निर्देशन श्रीधर शर्मा ने किया था. 24 दिसम्बर से प्रारम्भ हुए इस नाटक को देखने के लिए ठंडे में भी दर्शकों का लंबे अंतराल तक बैठना यह दिखाता है कि गम्भीर रंग-दर्शक आज भी भोजपुर में उपस्थित हैं. 24-27 दिसम्बर तक आयोजित इस 04 दिवसीय आयोजन के अंतिम दिन वरिष्ठ रंगकर्मी छन्दा सेन, वरिष्ठ काव्य-आलोचक राम निहाल गुंजन और वरिष्ठ कथाकार अनंत कुमार को संस्था ने सम्मानित किया. बताते चलें कि शेक्सपियर और रवींद्रनाथ टैगोर के नाटकों को रँगनगरी आरा में 60 और 80 के दशक में भी किया गया है, जिसे काफी अंतराल के बाद देखने को मिला.
विलियम शेक्सपियर की कृति द ट्रेजडी ऑफ मैकबेथ जिसे आम तौर पर मैकबेथ कहा जाता है, एक राज-हत्या और उसके बाद की घटनाओं पर लिखा गया एक नाटक है. शेक्सपियर के नाटकों में यह सबसे छोटा शोकान्त नाटक है और माना जाता है कि इसे 1603 और 1603 के बीच किसी समय लिखा गया था. शेक्सपियर के नाटक पर किसी अभिनय का सबसे पहला संदर्भ संभवतः अप्रैल 1611 का है जब साइमन फोरमैन ने ऐसे ही एक नाटक को ग्लोब थियेटर में रिकॉर्ड किया था. यह पहली बार 1623 के फोलियो में प्रकाशित हुआ था जो संभवतः एक विशिष्ट अभिनय के लिए एक संवाद बताने वाली पुस्तक (प्रॉम्प्ट बुक) थी. ऐसा माना जाता है कि इस 1587 में छपे शेक्सपियर के स्रोत होलिंशेड्स क्रॉनिकल्स क्रॉनिकल्स से इस शोकान्त नाटक को लिया गया है जिसमें स्कॉटलैंड, मैकडफ और डंकन के किंग मैकबेथ के संदर्भ हैं. शेक्सपियर की यह रचना और उनके समकालीनों के लिए परिचित इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और आयरलैंड का इतिहास है. हालांकि, शेक्सपियर द्वारा बतायी गयी मैकबेथ की कहानी का स्कॉटिश इतिहास की वास्तविक घटनाओं से कोई संबंध नहीं है क्योंकि मैकबेथ एक प्रशंसित और सक्षम सम्राट थे.
अभिशप्त है यह नाटक
सुनने में आपको जरूर अजीब लगे लेकिन हक्कीकत यह है कि रंगमंच के नेपथ्य की दुनिया में कुछ लोगों का मानना है कि यह नाटक अभिशप्त है और इसके शीर्षक का उल्लेख जोर देकर नहीं किया जाता है, इसकी बजाय इसे “द स्कॉटिश प्ले” जैसे नामों से संदर्भित किया जाता है. सदियों से इस नाटक ने मैकबेथ और लेडी मैकबेथ की भूमिकाओं में कई महानतम अभिनेताओं को आकर्षित किया है.
आज भी प्रासंगिक है यह नाटक
सत्ता की ललक के लिए आँखो में समायी कुर्सी की भूख ने अंधविश्वास के सहारे अपनों की भी हत्या कर जो खूनी खेल को अंजाम उस जमाने मे दिया,वह आज भी बद्दस्तूर जारी है. सत्ता में जाने के लिए यह प्रयास आज भी जारी है तो यह नाटक वर्तमान में भी प्रासंगिक है.
नाटक मैकबेथ, सत्ता की भूख के लिए खूनी सनक, लालच, झूठे वादे,दावे और साजिशों के प्रपंच से बुना हुआ है जो लोगों को खुद के तथ्य में घंटो बांधे रहता है. वही लेडी मैकबेथ की महत्वाकाँक्षा कईयों की मौत का सबब बनती है. नाटक में अभिनेताओं ने अपनी ओर से पात्रों को जीवंत करने में कोई कसर नही छोड़ी. लेकिन इन पात्रों में भी दर्शको के दिलों में बसने वाले पात्रों में मैकबेथ बने विवेकदीप पाठक लेडी मैकबेथ बनी पूजा, डंकन बने सुधीर सुमन, लेनॉक्स बने लोकेश दिवाकर,एंगस बने अतुल आदित्य,बुजुर्ग बने 80 वर्षीय डॉ बी एन सिंह, हिकेट बने अजयश्री, पिशाच बने मनीष और मुमताज के साथ डायनों की भूमिका में रागनी कश्यप, उषा पांडेय, और आरती सबसे अधिक प्रभावी रहीं. रौशन राय ने मेकअप से उस काल के किरदारों के लुक देने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया. कलाकारों के पर्सनालिटी से लेकर भाव संचालन और ड्रेस तक उस काल को दर्शाते थे. हालांकि मुख्य पात्रों और सैनिकों के ड्रेस को छोड़ बाकी पात्रों के वस्त्र विन्यास में चेक के कपड़े उतने जंच नही रहे थे.
श्रेयस श्रेयकर द्वारा मंच सज्जा में मंच का तीन सेटअप बनाना काबिल-ए-तारीफ था और दरबार का दृश्य सिर्फ कपड़ों के सहारे बनने के बाद भी प्रभावी था लेकिन उसमें लगी गोल्डन रंग की चमकीली पट्टी,कम रोशनी में भी इतनी चमकती थी कि कलाकारों से ध्यान हट, हर बार उन पट्टियों पर केंद्रित हो जाता था. नाटक में प्रकाश की घोर कमी थी. पूरे नाटक में अगर डायनों वाले दृश्य को छोड़ दें तो कहीं भी भरपूर प्रकाश नही था जिससे कलाकरों के चेहरे के भाव ही नही दिखते थे. मंच के पीछे भाग में 4 ब्लू और लाल रंग के LED लाइट जो दर्शको की ओर ही प्रकाश देते थे, उनकी रौशनी इतनी तीखी थी कि दर्शकों की आंख में चुभने के साथ मंच पर उपस्थित कलाकारों को एक प्रतिबिम्ब में बदल देते थे, जससे उनके भाव और चेहरा दिखता ही नही था. प्रकाश व्यवस्था में वरिष्ठ रंगकर्मी रहे ‘अशोक मानव’ पूरी तरह से फेल रहे. ऐसे प्रकाश डिजाइनर को चाहिए कि प्रकाश का थोड़ा ज्ञान ले लें. नाटक के इस दरमियान रंगकर्मी कृष्ण यादव कृष्णेन्दु याद आये जो प्रकाश में रंगों के संयोजन के लिए जाने जाते थे. प्रकाश के लिए दूसरे विकल्प भी शहर में मौजूद थे जिससे इसे बेहतर बनाया जा सकता था. नाटक में कोई गीत-संगीत नही था पर बैकग्राउंड में बजने वाले रिकॉर्डेड म्यूजिक दृश्यों को जीवंत कर रहे थे. मैकडफ बने निर्देशक श्रीधर शर्मा भी नही जंचे. बॉडी लैंग्वेज की घोर कमी थी. निर्देशक द्वारा ऐसे नाटक को वैसे प्रेक्षागृह में करना वाकई काबिले तारीफ तो जरूर था, जहाँ न ढंग का मंच है और न ही ईको-रहित हॉल. लेकिन नाटक में बहुत कुछ करने लायक था. लेपल माइक का पहली बार प्रयोग हुआ जो अच्छा लगा पर हॉल की संरचना और तकनीकी दिक्कतों ने उसे भी प्रभावित किया. पूरे कार्यक्रम का सयोजन डॉ कुणाल ने एक सफल आयोजक की तरह किया.
नाट्य समीक्षा-आरा से ओ पी पांडेय