नरसंहारों का दोषी आखिरकार कौन ?

By pnc Aug 27, 2016

कौन था नरसंहारों का दोषी ये वो सवाल है जो आज भी पूछे जाते है. नरसंहार के बाद मरने वालों के घर में आज भी अंधेरा ही है और मारने वाले आज खुले घूम रहे है. आखिर ये कैसा न्याय है जहां पिछड़ी जाति के लोग मारे जाते है और साक्ष्य के अभाव में आरोपी बरी हो जाते है. क्या उन्हें सत्ता का लाभ मिला? ये न्याय प्रक्रिया किसके लिए है ? ऐसे कई सवाल छोड़ती है प्रसिद्ध न्यूज़ एंकर पत्रकार और बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाने वाले ओमप्रकाश दास निर्देशित डॉक्युमेंट्री लक्ष्मणपुर बाथे.

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लक्ष्मणपुर बाथे’ के प्रदर्शन के बाद ‘आम आदमी के लिए न्याय’ विषय पर चर्चा करते हुए विनय कुमार कंठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय और पटना उच्च न्यायालय के हाल के कुछ निर्णय कुछ सवालों पर सोचने के लिए हमें मजबूर करते हैं. 1996 ई0 मे बथानीटोला के नरसंहार में 21 दलित मारे गये और अप्रैल, 2012 में उच्च न्यायालय ने 23 आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया था. मार्च, 2013 और जुलाई 2013 क्रमश: नगरी बाजार नरसंहार (1997) और मियांपुर नरसंहार (2000) के ऊंची जाति के आरोपियों की रिहाई उच्च न्यायालय के स्तर पर हुई थी. सबसे हाल में लक्ष्मणपुर बाथे का निर्णय आया. इन सभी घटनाओं के पीछे रणवीर सेना का हाथ माना जाता है जो जाति विशेष की निजी सेना थी जिसने ऐसे कई एक दलितों के नरसंहार को अंजाम दिया. यदि इन सभी घटनाओं में स्पष्टतः जांच की प्रक्रिया कमजोर रही तो जाहिर है राज्य की सरकार और पुलिस के तंत्र पर विश्वास करना कठिन है. जाहिर है अभियोजन की प्रक्रिया भी संतोषप्रद नहीं थी जिसके कारण इतनी शर्मनाक घटनाओं में भी राज्य का तंत्र पूरी तरह से अपराधियों को सजा दिलाने में विफल रहा ’’ .

न्याय के प्रभाव की चर्चा करते हुए प्रो0 कंठ ने कहा कि गया जिले के बारा नरसंहार में आरोपी दलित समुदाय के थे और मरनेवाला ऊंची की जाति के. यह घटना भी वैसी ही दुखदाई थी और इसमें भी साक्ष्य, जांच या अभियोजन लगभग वैसा ही कमजोर था, मगर इस मुकदमें में कृष्णा मोची और तीन अन्य दलित आरोपियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा मृत्युदण्ड की स्वीकृति मिली, न्यायपालिका के इस प्रकार के निर्णयों का विश्लेष्ण भी अपरिहार्य होता जा रहा है, खासतौर से आज के संदर्भ में और संविधान के आधारभूत मूल्यों के आलोक में, जहां सुरक्षात्मक विभेद का सिद्धांत को साफ ढंग से रखा गया है, प्रो0 कंठ ने कहा कि न्याय को अपराध से जोड़ना सबसे बड़ा अपराध है, न्याय सबसे बड़ी चीज है और न्याय का एक पक्ष आदर्शवादी है और दूसरा यथार्थवादी. ‘आम आदमी के लिए न्याय’ पर चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पटना उच्च न्यायालय वरीय अधिवक्ता ने कहा कि ‘न्याय की अवधारणा संगठित राज्य के अस्तित्व में आने बाद ही पूरी होती है, परन्तु इस देष का दुर्भाग्य यह है कि यहां 25 प्रतिषत भाग में ही राज्य सगठित रूप में नजर आता है.

लक्ष्मणपुर बाथे की घटना का जिक्र करते हुए बसंत चौधरी ने कहा कि लक्ष्मणपुर बाथे की घटना साधारण नहीं थी. एक हत्या मात्र नहीं थी बल्कि यह वर्ग का दूसरे वर्ग के विरूद्ध युद्ध था, परन्तु इस घटना जांच एक साधारण थानाध्यक्ष करता है. कोई वरीय पुलिस अधिकारी नहीं करता है. इसलिए पटना हाईकोर्ट के भवन को देखकर और कुछ वरिष्ठ जजों को देखकर न्याय का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया को देखना और समझना होगा. लेकिन सिर्फ ऐसा करने से हमारा न्यायालय बरी नहीं होता है. भारतीय दण्ड संहिता की धारा 141 न्यायालय को रीट्रायल का अवसर देता है, पर अफसोस है कि यह नहीं हुआ.

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चर्चा में अपनी बात रखते हुए डॉक्युमेंट्री के निर्देशक ओम प्रकाश दास ने कहा कि न्यायालय में न्यायाधीश कुर्सी में बैठा व्यक्ति निरपेक्ष ही हो यह सचमुच कहा नहीं जा सकता. लक्ष्मणपुर बाथे कांड में निर्णय करने वाले न्यायाधीष को कम से कम यह सोचना चाहिए था कि 53 लोग मरे और चश्मदीद गवाह के अनुसार 100 से ज्यादा लोगों ने मारा था.

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28 अगस्त, 2016 को प्रातः 10.30 बजे

कैफी आज़मी इप्टा सांस्कृतिक केन्द्र, एक्जीबिशन रोड, पटना

वक्ता – नसीरूद्दीन,वरीय पत्रकार

 

 

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