देश के चर्चित एंकर और निर्देशक ओमप्रकाश का वृत्तचित्र ‘लक्षमण पुर बाथे’ न्याय की परिभाषा और उसके पीछे राजनीति को सामने रखता है.जहां इस परिभाषा के अपने आग्रह हैं और इस राजनीति के अपने लक्ष्य. बिहार जैसा सामंती समाज जहां जाति के मूल्य कई बार इंसान होने की मौलिक अवधारणा को ध्वस्त कर देते हैं, वहां जब आर्थिक हितों के बंटवारे का सवाल उठता है, तो हिंसा महज़ एक साधन बन कर सामने आती है. बिहार पिछ्ली सदी के 90 के दशक में जाति आधारित हिंसा का गवाह रहा है. वृत्तचित्र ‘लक्षमणपुर बाथे’ इसी हिंसा और उसके न्याय की राजनीति को उभारती है. ये वही घटना है जिसमें लोग तो मारे गए लेकिन सजा किसी को नहीं मिली.
लक्षमणपुर बाथे, बिहार में जाति आधारित हिंसा के दौर का प्रतीक कहा जाता है जहां एक ही रात में क़रीब 60 निहत्थे लोगों को मार डाला गया. ये घटना 1-2 दिसंबर 1997 की दरम्यान रात को बिहार के अलवर ज़िले में हुई थी. मारे गए लोग दलित थे. इस घटना को उस समय के राष्ट्रपति के आर नारायणन ने राष्ट्रीय शर्म कहा था. जब राजनीतिक हो हल्ले के बाद जब अदालती कारवाही हुई तो निचली अदालत ने रणवीर सेना के 16 लोगों को फांसी दी और कइयों को उम्रकैद की सजा सुना दी लेकिन मामला जब हाइकोर्ट पहुंचा तो सभी बरी हो गए, ये बात गंभीर इसलिए है क्योंकि 90 के दशक में ही हुए ज़्यादातर नरसंहार मामलों में अदालतों ने किसी को दोषी ही नहीं ठहराया. शंकर बिगहा, बथानी टोला, मियांपुर जैसे जघन्य मामलों में आरोपी एक के बाद एक बरी होते गए. इन तमाम मामलों में आरोप सवर्ण जातियों की हथियारबंद रणवीर सेना पर था,वहीँ जिन दो मामलों (बारां और सेनारी) में पिछड़े तबके के लोग आरोपी थे. उन्हें सज़ाएं मिलीं. चर्चित अमीर दास आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रणवीर सेना, राजनीतिक दल के बीच कई स्तरों पर संबन्ध स्थापित किया था, हालांकि आयोग की रिपोर्ट कभी दिन का सूरज नहीं देख पाई.
वृतचित्र ‘लक्षमण पुर बाथे’ न सिर्फ इन मुद्दों की पड़ताल करती है बल्कि अदालती पूर्वाग्रहों,समाजिक संरचना के सवाल और राजनीति में हितों के टकराव को सामने रखती है.
वृत्तचित्र ‘लक्षमणपुर बाथे’ का प्रदर्शन 27 अगस्त को पटना में इप्टा के नगर सम्मलेन में शाम 4 बजे होगा,
वृत्तचित्र ‘लक्षमण पुर बाथे’ का निर्देशन टीवी पत्रकार और लेखक ओमप्रकाश दास ने किया है और निर्माण मुम्बई की सैक्लोप्स क्रियेशन और कुमार उत्पल प्रोडक्शन ने मिल कर किया है.